कुन्तलों पर घटाओं को आक्रोश है।
चंद्रमा मुख से करता सा परिहास है।
कुम्भ शिखरों सदृश कटि लजाई हुई-
नूपुरों ने किया मन को मदहोश है॥
नैन देते है निमंत्रण पर रागिनी निर्दोष है।
मन का संयम टूटता है पर चांदनी निर्दोष है।
गहन तम के पार जन दृष्टि का ठहरा कठिन -
कालिमा मन की गले पर यामिनी निर्दोष है॥
है अभावो भरा इनका सारा जनम।
जोङते जोङते बिखरा सारा जनम ।
गाँव जिंदगी श्राप सी हो गई -
एक पल को हँसे रोये साए जनम॥
दीन की दीनता जब नमन छोड़ देगी ।
मनुज की मनुज़तर घरम छोड़ देगी।
नदी के किनारों संभल जावो वरना-
लहर बढ़ बनकर कसम तोड़ देगी॥
डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'
काफी रचना काफी पसंद आई,लेकिन सेंगेर जी का अंदाज़ बुरा लगा जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के ब्लॉग का उपयोग कर रहे है !
ReplyDeleteयह नेतिक नहीं है
काफी रचना काफी पसंद आई,लेकिन सेंगेर जी का अंदाज़ बुरा लगा जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के ब्लॉग का उपयोग कर रहे है !
ReplyDeleteयह नेतिक नहीं है
बढ़िया लिखा है जारी रखे!
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