बेखुदी, और इंतज़ार नहीं,
छोड़ आई नज़र क़रार कहीं
तेरी रहमत है, बेपनाह मगर
अपनी किस्मत पे ऐतबार नहीं
निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं
सख्त दो-इक, मुकाम और गुजरें,
फ़िर तो मुश्किल, ये रह्गुजार नहीं
काश! पहले से ये गुमां होता,
यूँ खिजाँ आती है, बहार नहीं
अपने टोटे-नफे के राग न गा,
उनकी महफिल, तेरा बाज़ार नहीं
जांनिसारी, कहो करें कैसे,
जां कहीं, और जांनिसार कहीं
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छोड़ आई नज़र क़रार कहीं
तेरी रहमत है, बेपनाह मगर
अपनी किस्मत पे ऐतबार नहीं
निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं
सख्त दो-इक, मुकाम और गुजरें,
फ़िर तो मुश्किल, ये रह्गुजार नहीं
काश! पहले से ये गुमां होता,
यूँ खिजाँ आती है, बहार नहीं
अपने टोटे-नफे के राग न गा,
उनकी महफिल, तेरा बाज़ार नहीं
जांनिसारी, कहो करें कैसे,
जां कहीं, और जांनिसार कहीं
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अनूठी रचना...."जांनिसारी, कहो करें कैसे...जां कहीं और जांनिसार कहीं"
ReplyDeleteक्या बात है
मनु जी आपकी इसी बेतखल्लुसी पे तो फ़िदा हैं हम..
मनु जी की ग़ज़ल को पढना एक सुखद अहसास रहा
ReplyDeleteमैंने मनु जी को उनकी रचनाओं के साथ हिन्दुस्तान का दर्द पर आमंत्रित भी किया था
आज का दिन अब अच्छा जायेगा !