खुशवंत सिंह ने "दैनिक हिन्दुस्तान " में २४ जनवरी २००९ को एक लेख लिखाजिसमे उन्होंने लालच को वर्तमान के सभी समस्याओं के ....एक बुनियादी कारण के रूप में... देखा॥ पेश है उनकी टिपण्णी पर टिपण्णी॥
खुशवंत सिंह निश्चित तौर पर आज के बुद्धिजीवी वर्ग के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। उनकी सोच और समझ के सभी कायल हैं और समाज का एक बड़ा तबका उनकी कलम से प्रभावित और प्रवाहित होता है। उन्होंने अपने इस लेख में पञ्च मकारों (काम, कोध, लोभ, मोह और लालच।) के मध्य लालच को सबसे व्यापक और दुष्प्रभावी माना है।
उन्होंने सत्यम घोटाला, झारखण्ड में सिबू सोरेन का गद्दी छोड़ना, उत्तर प्रदेश में मायावती का जन्मदिन का मामला, राजस्थान में वशुंधरा राजे के खिलाफ भ्रस्टाचार जैसे मामले में लालच को हीं पर्याय माना हैयह तो सत्य है कि मनुष्य आपनी भावी ज़िन्दगी और योजनाओं के प्रति मानसिक तौर पर इतना कृतसंकल्प हो जाता है कि वर्तमान और इसकी उपलब्धियां अन्धेरें में लगती हैं। हाँ जब कभी उसका अंहकार हावी होता है, तो उसकी अभिव्यक्ति वह अपने इतिहास और वर्तमान के सापेक्ष में हीं करता है। परन्तु यह क्या सत्य नही कि "ज़रूरत " और " बुनियादी ज़रूरत " दो भिन्न दृष्टिकोण हैं। "ज़रूरत" को ख़ुद पता नही कि वह कब तृप्त होगी और " बुनियादी ज़रूरत" का विस्तार दिन-प्रति-दिन इन्द्रीओं के वशीभूत हो कर आपनी सीमाएं और अर्थ बदलता जाता है। तब इन्सान को यह फर्क समझ में नही आता। यह मार्ग हीं ऐसा है। जिसमे दूर कि देखने और सोचने वाला व्यक्ति हीं दृष्टिवान कहलाता है, भले हीं वह करीब को नही देख सकता है। इसे दूर्द्रिष्टिदोश शायद इसीलिए कहतें हैं।
मूझे यह सवाल हमेशा सताते रहा कि चिकित्सा विज्ञानं में इतनी बड़ी भूल क्यों ? दूर सही दीखता है, नज़दीक नही दीखता तो , तो दूर्द्रिष्टिदोश कहतें हैं। और नज़दीक सही नज़र आता हो और दूर कि वस्तुएं दिखयी न दें तो निकटदृष्टि दोष । अजीब बात है, जो सही है उसी के साथ दोष जुड़ा हुआ है। परन्तु इस अजीब नामकरण व्यावहारिक जिंदगी में कितना सार्थक और अर्थपूर्ण है।परन्तु उनका सुझाव कि जिनके पास बहुत कुछ है , अपने उपभोग से कही ज्यादा, उन्हें सामाजिक कार्यों कि ओर अग्रसर होना चाहिए । यह एक अच्छा सुझाव हो सकता है , भली सोच हो सकती है , पर व्यवहारिक तौर पर लागू नही हो सकती। क्यों कि"कारण"ओर"कर्ता " हीं मिलकर फल में फलीभूत होतें हैं। अब गौर करें कि उन व्यक्तिओं के इस विशिष्ट जगह "यानि कुछ करने में सक्षम" होने कि जगह पहुचने का कारण क्या रहा? -- तो निश्चय हीं "लालच" ओर'ज्यादा पाने कि लालसा"। कर्ता कौन है- ? तो वही लालची व्यक्ति। तो यह कदापि सम्भव नही कि उसके कर्म इसके विपरीत हों ।आप अगर कुछ कर सकतें हैं तो , हर व्यक्ति अपने लालच ओर सपनो के पीछे भागने में इमानदारी बरते । सपने पूरे करे किंतु कि इक्षाओं ओर अधिकारों का हनन कर के नही। मसालेवाला मसाले में मिलावट न करे ओर तेली तेल में । तो न तेली ठगा जाएगा मसाला खरीदते वक्त, ओर न मसालेवाला ठगा जाएगा तेल खरीदते वक्त । दोनों खुश, दोनों सुखी।
खुशवंत सिंह निश्चित तौर पर आज के बुद्धिजीवी वर्ग के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। उनकी सोच और समझ के सभी कायल हैं और समाज का एक बड़ा तबका उनकी कलम से प्रभावित और प्रवाहित होता है। उन्होंने अपने इस लेख में पञ्च मकारों (काम, कोध, लोभ, मोह और लालच।) के मध्य लालच को सबसे व्यापक और दुष्प्रभावी माना है।
उन्होंने सत्यम घोटाला, झारखण्ड में सिबू सोरेन का गद्दी छोड़ना, उत्तर प्रदेश में मायावती का जन्मदिन का मामला, राजस्थान में वशुंधरा राजे के खिलाफ भ्रस्टाचार जैसे मामले में लालच को हीं पर्याय माना हैयह तो सत्य है कि मनुष्य आपनी भावी ज़िन्दगी और योजनाओं के प्रति मानसिक तौर पर इतना कृतसंकल्प हो जाता है कि वर्तमान और इसकी उपलब्धियां अन्धेरें में लगती हैं। हाँ जब कभी उसका अंहकार हावी होता है, तो उसकी अभिव्यक्ति वह अपने इतिहास और वर्तमान के सापेक्ष में हीं करता है। परन्तु यह क्या सत्य नही कि "ज़रूरत " और " बुनियादी ज़रूरत " दो भिन्न दृष्टिकोण हैं। "ज़रूरत" को ख़ुद पता नही कि वह कब तृप्त होगी और " बुनियादी ज़रूरत" का विस्तार दिन-प्रति-दिन इन्द्रीओं के वशीभूत हो कर आपनी सीमाएं और अर्थ बदलता जाता है। तब इन्सान को यह फर्क समझ में नही आता। यह मार्ग हीं ऐसा है। जिसमे दूर कि देखने और सोचने वाला व्यक्ति हीं दृष्टिवान कहलाता है, भले हीं वह करीब को नही देख सकता है। इसे दूर्द्रिष्टिदोश शायद इसीलिए कहतें हैं।
मूझे यह सवाल हमेशा सताते रहा कि चिकित्सा विज्ञानं में इतनी बड़ी भूल क्यों ? दूर सही दीखता है, नज़दीक नही दीखता तो , तो दूर्द्रिष्टिदोश कहतें हैं। और नज़दीक सही नज़र आता हो और दूर कि वस्तुएं दिखयी न दें तो निकटदृष्टि दोष । अजीब बात है, जो सही है उसी के साथ दोष जुड़ा हुआ है। परन्तु इस अजीब नामकरण व्यावहारिक जिंदगी में कितना सार्थक और अर्थपूर्ण है।परन्तु उनका सुझाव कि जिनके पास बहुत कुछ है , अपने उपभोग से कही ज्यादा, उन्हें सामाजिक कार्यों कि ओर अग्रसर होना चाहिए । यह एक अच्छा सुझाव हो सकता है , भली सोच हो सकती है , पर व्यवहारिक तौर पर लागू नही हो सकती। क्यों कि"कारण"ओर"कर्ता " हीं मिलकर फल में फलीभूत होतें हैं। अब गौर करें कि उन व्यक्तिओं के इस विशिष्ट जगह "यानि कुछ करने में सक्षम" होने कि जगह पहुचने का कारण क्या रहा? -- तो निश्चय हीं "लालच" ओर'ज्यादा पाने कि लालसा"। कर्ता कौन है- ? तो वही लालची व्यक्ति। तो यह कदापि सम्भव नही कि उसके कर्म इसके विपरीत हों ।आप अगर कुछ कर सकतें हैं तो , हर व्यक्ति अपने लालच ओर सपनो के पीछे भागने में इमानदारी बरते । सपने पूरे करे किंतु कि इक्षाओं ओर अधिकारों का हनन कर के नही। मसालेवाला मसाले में मिलावट न करे ओर तेली तेल में । तो न तेली ठगा जाएगा मसाला खरीदते वक्त, ओर न मसालेवाला ठगा जाएगा तेल खरीदते वक्त । दोनों खुश, दोनों सुखी।
इसको दूर द्रश्टि दोष ,निकट द्रिष्टि दोष नहीन अपितु --दूर द्रिष्टि एवम निकट द्रिष्टि कहते हैं. ।अर्थात
ReplyDeleteकेवल दूर देख सकने वाला व केवल निकत देख सकने वाला ,अपन्ग।
kanishka जी माफ़ कीजिये अब तो खुशवंत जी का कुछ भी पढने की इच्छा नहीं होती
ReplyDeleteक्योंकि इनका लेखन समाज को कुछ देने के काबिल नहीं बचा है !
अतुल जी का लिखा लेख पढ़ा आपने
http://yaadonkaaaina.blogspot.com/2009/04/blog-post_6992.html
यहाँ देखिये आप,फिर शायद आपका भी दिल नहीं करेगा !
kanishka जी माफ़ कीजिये अब तो खुशवंत जी का कुछ भी पढने की इच्छा नहीं होती
ReplyDeleteक्योंकि इनका लेखन समाज को कुछ देने के काबिल नहीं बचा है !
अतुल जी का लिखा लेख पढ़ा आपने
http://yaadonkaaaina.blogspot.com/2009/04/blog-post_6992.html
यहाँ देखिये आप,फिर शायद आपका भी दिल नहीं करेगा !
सच में खुशवंत सिंह की असलियत जानने के बाद अब तो उनकी पैरवी बंद होनी चाहिए...
ReplyDeleterajnish jee
ReplyDeletenaraz hone se kaam nahi chalega. aise pen prostitutes , jo lekhni ko atmabhiwyakti ki sangya dekar, punjipation ki dalali kartein hai.. samne lane ki awashyakta hai.
aap aise kisi bhi lekh taraf mera dhyan dila sakte hain, jo bazar ke mulyon ko badhava de raha ho...
apka swagat hai..
greatkanishka@gmail.com