
दैनिक भास्कर और नई दुनिया में काम कर चुके कुलदीप शर्मा भोपाल में रहकर अब स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन करते हैं। फिलहाल पिछले 60 साल की राजनीति पर पुस्तक लेखन में व्यस्त
क्या भाजपा का उद्देष्य अब कूेवल सत्ता प्राप्त करना मात्र रह गया है ठीक अटलबिहारी वाजपेयी की तरह जो हमेषा से एकमात्र महत्वाकांक्षा देष का प्रधानमंत्री बनने की पाले रहे थे? यदि इन प्रष्नों का जवाब हां में दिया जाए तो अनेक लोग इससे असहमत होंगे, क्योंकि ऐसा कहने को अधिकांष लोग नहीं पचा पाएंगे मगर यही हकीकत मानी जा सकती है। इस बात को सिद्ध करने के लिए अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। इतना ही नहीं भाजपा की हालिया नीतियों से भी यह जाहिर होता है कि अब उसका ध्येय प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आडवाणी को आसीन करना ही रह गया है, क्योंकि जिस तरह से वाजपेयी की एकमात्र महत्वाकांक्षा देष का प्रधानमंत्री बनने की रही थी और उन्होंने इसके लिए जनसंघ की घोषित नीतियों में बदलाव कर भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के समय इसे धर्मनिरपेक्षता का चोला पहनाया दिया था, जबकि जनसंघ की नीतियों में संभवतः ऐसी कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। इसका कारण यही माना जाना चाहिए कि वे भी कांग्रेस की तरह ही धर्मनिरपेक्षता के घोड़े पर सवार होकर प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचने की इच्छा पाले हुए थे। ठीक उसी तरह के हालात अभी बनते दिखाई दे रहे हैं जब लालकृष्ण आडवाणी को इस पद पर काजिब किए जाने की मंषा से मजमर्जी के निर्णय लेकर देष के मतदाताओं को भ्रमित किया जा रहा है। हिन्दू मतदाताओं के वोट पाने की गरज से पहले इस पार्टी ने राम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठाया। इसकी बदौलत अटलबिहारी वाजपेयी तो प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल गया लेकिन इसी दौरान यह भी स्पष्ट हो गया कि केवल हिन्दूवादी पार्टी के रूप में बनी इस छवि के कारण अब भविष्य में इस पार्टी की ओर से किसी का प्रधानमंत्री बन पाना संभव नहीं हो पाएगा, जिस तरह से वाजपेयी प्रधानमंत्री बन सके थे।वजपेयी अब स्वास्थ्य के साथ न दे पाने के कारण भले ही राजनीति से एक तरह से संन्यास ले चुके हैं लेकिन यह जानकारी सभी के लिए चैंकाने वाली हो सकती है कि अटलबिहारी वाजपेयी अब बुढ़ापे की बीमारी अर्थात् याददाष्त के कम हो जाने की परेषानी से जूझ रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें यह बीमारी हाल के दो-चार वर्षो में लगी हो बल्कि यह बीमारी उन्हें प्रधानमंत्री रहते हुए ही लग चुकी थी, अब तो संभवतः वे बहुत थोड़े से चेहरों को ही पहचान पाते हैं। यह बात मैं इतने दावे के साथ इसलिए कह पा रहा हूं, क्यांेकि यह जानकारी उन्होंने नरसिंहा राव मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री रहे अपने संसदीय साथी को देते हुए बताया था कि अब मुझे अपनी कैबिनेट के सभी सदस्यों के भी नाम याद नहीं रह पाते हैं। इस बात की जानकारी एक चर्चा के दौरान इन्हीं राज्यमंत्री महोदय ने मुझे दी थी।खैर मैं मुद्दे से न भटकते हुए फिर से अपनी बात पर लौटता हूं। जब अटलबिहारी वाजपेयी की तूती बोलती थी तब उन्होंने कमोबेष सभी हथकंडे अपना लिए थे जिनकी बदौलत इस कुर्सी तक पहुंचना संभव हो सकता था। मुझे अच्छी तरह से याद कि भारतीय जनता पार्टी के गठन के कुछ ही समय बाद पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के दर्षन के स्थान पर वाजपेयी की बदौलत ही इस पार्टी की रीति-नीतियों में गांधीवादी समाजवाद को शामिल करने से भी परहेज नहीं किया। कितना अच्छा होता यदि वाजपेयी ने पं. उपाध्याय के बेहतरीन एकात्म मानववाद का साथ नहीं छोड़ा होता। राजस्थान के जिस कोटा शहर में कभी पं. दीनदयाल ने जिस अर्जुन गली में अपने मामा के यहां अपना बचपन गुजारा था, उसी शहर की इसी गली से महज डेढ़ सौ कदमो पर मैं भी पैदाइष से लेकर करीब 35 साल तक रहा हूं। यह बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि जहां पं. दीनदयाल ने भाजपा को एकात्म मानववाद जैसा दर्षन देकर उसे स्थापित करने में महती भूमिका अदा की थी, वहीं इस पार्टी को दो सीटों से सत्ता का स्वाद चखाने में अपने को शामिल करता हूं। अपनी इस बात को मैं आगे स्पष्ट करूंगा फिलहाल बात एकात्म मानववाद की।यदि भाजपा द्वारा एकात्म मानववाद के इस दर्षन को तिलांजलि नहीं दी गई होती तो न तो कर्ज के बोझ तले दबकर किसानों को आत्महत्या करने जैसे कदम उठाने को बाध्य होना पड़ता और न ही आम जनता को महंगाई के इस बोझ तले रहना पड़ता, जहां सरकार की तरफ से तो इस बात का ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि सरकार की कोषिषों से महंगाई की दर लगातार कम होती जा रही है और इसी वजह से मुद्रास्फीति की दर पिछले वर्ष के 13 प्रतिषत से घटकर शून्य प्रतिषत की ओर जा रही है, लेकिन सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि फिर बाजार में खरीददारी करने जाने पर गत वर्ष से कम दाम पर कोई भी वस्तु क्यों उपलब्ध नहीं है, लेकिन भाजपा महंगाई जैसे मुद्दे पर कोई बड़ा आंदोलन खड़ा करने के स्थान पर परमाणु करार के मुद्दे पर सरकार को घेरने में लगी रही। भाजपा गठन के शुरुआती वर्षों में लोगों को यही लगा कि यह पाटी्र्र जनसंघ का प्रतिरूप बन सकेगी, लेकिन बहुत जल्दी ही इसकी नीतियों में सत्ता पाने की चाह में फेरबदल करने शुरू कर दिए और आज इसकी हालत भी दूसरी पार्टियों की मानिंद हो गई है। भाजपा द्वारा यदि एकात्म मानववाद का दर्षन नहीं छोड़ा जाता तो कम से कम इस पार्टी में कांग्रेस की तरह पांच सितारा संस्कृति का प्रवेष नहीं हुआ होता और न ही इसमें वंषवाद पनप पाता। यह पार्टी अर्से से कहती आई थी कि पं. नेहरू की बेटी होने के कारण ही इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन सकी थीं और इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी। क्या आज यह बात भाजपा पर लागू नहीं होती कि विजयाराजे के कारण ही वसुंधराराजे को राजनीति में इतनी आसानी से प्रवेष मिल गया और वे अपनी तिकड़मों और कथित झूठे आष्वासनों की बदौलत राजस्थान की मुख्यमंत्री तक बन बैठी थीं जबकि अर्से से मुख्यमंत्री बनने की आस लगाए बैठे पार्टी के उन अनेक वरिष्ठ नेताओं को मुंह ताकते रह जाना पड़ा, जिन्होंने न सिर्फ भाजपा बल्कि जनसंघ की भी लोगों में पैठ बनाई थी। पार्टी में ऐसे नेताओं और कार्यकर्ताओं की ल्रंबी फेहरिस्त है जो शैषव काल से दिन-रात इसके उत्थान के लिए प्रयासरत रहे लेकिन कांग्रेस की तरह एकाएक हर प्रदेष के नेतृत्व का फेसला केंद्रीय नेताओं द्वारा किया जाना लगा। इस कारण बरसों तक पार्टी के लिए निष्ठावान बने रहने का पार्टी ने यह सिला उल्हें दिया। वह तो अटलबिहारी वाजपेयी अविवाहित रहे खुदा न खस्ता यदि वे शादीषुदा होते तो निष्चित रूप से आडवाणी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में कहीं पीछे दौड़ रहे होते। जो संस्कार जनसंघ में मौजूद रहे हैं उनका एक के बाद एक करके लोप होते जाने से यह पार्टी भी सिर्फ सत्ता सुख पाने की आकांक्षी हो गई है। कोई समय था जब इस पार्टी में एकजुटता की मिसाल देखने को मिलती थी। यदि कोई वैचारिक मतभेद भी किसी नेता विषेष या किसी नीति से होता था तो भी उस मतभेद पर बोलने की आजादी थी लेकिन अब ऐसा माहौल इस पार्टी में गुजरे जमाने की बात हो गया है। उमा भारती और सुषमा स्वराज के साथ पार्टी के नेताओं द्वारा जिस प्रकार का व्यवहार किया जाता है, वह पार्टी में गुटबाजी को दिखाता है। आज इस पार्टी में कांग्रेस से अधिक गुटबाजी मौजूद है। जब इस पार्टी में भी वे तमाम अवगुण मौजूद हैं जिसके लिए यह कांग्रेस को कोसने का कोई अवसर नहीं छोड़ती तो फिर यह पार्टी विथ डिफरेंस कैसे हो सकती है, यह भी तो कांगेस का ही दूसरा विकृत रूप सिर्फ और सिर्फ तीस साल में ही बन गई है जबकि कांग्रेस में ऐसी विकृतियां पैदा होने में करीब सौ साल का समय लगा था। आगे पढ़ें के आगे यहाँ
हाँ बिलकुल ठीक कहा..तभी तो इतने अछे नेताओं के होते हुए...अभी भी सोनिया का दामन थामे बैठे है..कांग्रेसी..
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है
ReplyDelete" वर्तमान राजनीति के तीन तथाकथित युवा प्रतिनिधि राहुल , प्रियंका और वरुण सब के सब गाँधी . !कांग्रेस हो या भाजपा गाँधी परिवार है हावी ! क्या देश में नेहरु खानदान ही नेता जनने की क्षमता रखते हैं ? कितना बड़ा दुर्भाग्य है हमारा लोकतान्त्रिक देश में राजवंश की स्थिति बन गई है ? क्या भाजपा में वरुण गाँधी को बढावा देकर वंशवाद को मजबूत नहीं किया जा रहाhai . bhajpa mein wanswad ka panapna jansangh ke mulyo ki hatya hai
ReplyDelete