मीरवाइज उमर फारूख
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस लीडर
हिंदुस्तान एक बड़ी जम्हूरियत है। बेशक, कश्मीर को लेकर भारत से हमारे मतभेद हैं लेकिन हम इसे काफी महत्वपूर्ण मानते हैं कि भारत में हर 5 साल बाद आम चुनाव होते हैं और नई सरकार चुनकर आती है।
मेरे ख्याल से कोशिश यही होनी चाहिए कि साफ सुथरे इलेक्शन हों। लोगों को भरपूर मौका मिले। कश्मीर के हवाले से हम इन चुनाव को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। हमारी इस बात में काफी रुचि है कि सेंटर में एक मजबूत सरकार हो ताकि वो कोई मजबूत पहल कर सके।
आगे पढ़ें के आगे यहाँ हम बेशक इन चुनावों से दूर हैं पर हम चाहते हैं कि आने वाली सरकार दूसरे मामलों के साथ-साथ कश्मीर पर भी तवज्जो दे। हमारा मानना है कि कश्मीर का मसला बातचीत से ही हल हो सकता है। हमें कश्मीर पर भारत-पाक की वार्ता फिर शुरू होने का बेसब्री से इंतजार है।
कश्मीर में चुनाव को अलग नजर से देखा जाता है। हमारा मसला चुनाव से जुड़ा हुआ नहीं है। इन चुनावों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। कश्मीर के हवाले से अगर हम कहें तो हम भारत और पाकिस्तान दोनों की मजबूती देखना चाहते हैं। क्योंकि तभी कश्मीर पर कोई फैसला लिया जा सकता है।
मेरी तमाम पार्टियों से गुजारिश है कि कश्मीर की हर बात को पाक के नजरिए न देखें। कश्मीर समस्या का एक इंसानी पहलू भी है। हम 50 साल से अलग-थलग हैं। इसे एक इंसानी प्रॉब्लम की तरह ही लोग देखें। मेरी पार्टियों से गुजारिश है कि वे नफरत की मियाद पर लोगों से वोट न मांगें। करीब 20 साल से कश्मीर में आंदोलन चल रहा है। बंदूक में अब कमी आई है।
मेरा मानना है कि मौजूदा हालात सही हैं। अगर शुरुआत होती है तो काफी अच्छा रहेगा। ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। मैं मानता हूं कि इत्तलाफात हैं लेकिन हम चुनावों के खिलाफ नहीं हैं। हम चुनावों में यकीन रखते हैं। हमारा मानना है कि अपनी बात रखने का यह सबसे सही तरीका है। कश्मीर के संदर्भ में हालात बदल जाते हैं।
एक बार समझौता होने पर हम राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होने का तैयार हैं। कश्मीर के हवाले से कई बार चुनावों को गलत इंटरपिटेशन किया गया है। अगर ऐसा होता तो अमरनाथ पर सबकुछ बदला न नजर आता। चुनाव दरअसल प्रशासनिक मुद्दा है। इसे समस्या का हल नहीं माना जाना चाहिए। कश्मीर में कई बार चुनाव हो चुके हैं। पर इससे कोई हल नहीं निकला।
मुझे लगता है कि अगर दिल्ली की ओर से एक कदम की पहल होगी तो हमें 4 कदम चलना होगा। जब हमने दिल्ली के साथ समझौते की पहल की तो गिलानी से हमारा झगड़ा हो गया, हमारे अपने लोग ही हमारे खिलाफ हो गए लेकिन हमें दिल्ली से इस मुद्दे पर जो समर्थन मिलना चाहिए था वो नहीं मिला।
हमने 3 चीजें सरकार के समाने रखीं थीं
पहली कि राजनीतिक कैदी रिहा होने चाहिए
दूसरी जिन मिलिटेंट ने आत्मसर्पण कर दिया है उनकी पुलिस में हाजिरी को बंद की जाए
फौज की तादाद कम की जानी चाहिए
उस वक्त पाकिस्तान के नजरिए में बदलाव भी आया। सबको दिल्ली की तरफ से उम्मीद थी।
अगर आज सेंटर में किसी के समर्थन की बात करें तो मैं कहूंगा कि मुझे एनडीए यूपीए से बेहतर लगी। उसमें मुझे ज्यादा राजनीतिक इच्छाशक्ति नजर आई। ये अजीब बात है उसे हिंदूपरस्त पार्टी कहा जाता है लेकिन मुझे लगा कि एनडीए की सरकार कश्मीर मसले पर ज्यादा फोकस्ड और उत्सुक थी।
यह लेख ibnखबर से साभार लिया गया है !
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस लीडर
हिंदुस्तान एक बड़ी जम्हूरियत है। बेशक, कश्मीर को लेकर भारत से हमारे मतभेद हैं लेकिन हम इसे काफी महत्वपूर्ण मानते हैं कि भारत में हर 5 साल बाद आम चुनाव होते हैं और नई सरकार चुनकर आती है।
मेरे ख्याल से कोशिश यही होनी चाहिए कि साफ सुथरे इलेक्शन हों। लोगों को भरपूर मौका मिले। कश्मीर के हवाले से हम इन चुनाव को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। हमारी इस बात में काफी रुचि है कि सेंटर में एक मजबूत सरकार हो ताकि वो कोई मजबूत पहल कर सके।
आगे पढ़ें के आगे यहाँ हम बेशक इन चुनावों से दूर हैं पर हम चाहते हैं कि आने वाली सरकार दूसरे मामलों के साथ-साथ कश्मीर पर भी तवज्जो दे। हमारा मानना है कि कश्मीर का मसला बातचीत से ही हल हो सकता है। हमें कश्मीर पर भारत-पाक की वार्ता फिर शुरू होने का बेसब्री से इंतजार है।
कश्मीर में चुनाव को अलग नजर से देखा जाता है। हमारा मसला चुनाव से जुड़ा हुआ नहीं है। इन चुनावों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। कश्मीर के हवाले से अगर हम कहें तो हम भारत और पाकिस्तान दोनों की मजबूती देखना चाहते हैं। क्योंकि तभी कश्मीर पर कोई फैसला लिया जा सकता है।
मेरी तमाम पार्टियों से गुजारिश है कि कश्मीर की हर बात को पाक के नजरिए न देखें। कश्मीर समस्या का एक इंसानी पहलू भी है। हम 50 साल से अलग-थलग हैं। इसे एक इंसानी प्रॉब्लम की तरह ही लोग देखें। मेरी पार्टियों से गुजारिश है कि वे नफरत की मियाद पर लोगों से वोट न मांगें। करीब 20 साल से कश्मीर में आंदोलन चल रहा है। बंदूक में अब कमी आई है।
मेरा मानना है कि मौजूदा हालात सही हैं। अगर शुरुआत होती है तो काफी अच्छा रहेगा। ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। मैं मानता हूं कि इत्तलाफात हैं लेकिन हम चुनावों के खिलाफ नहीं हैं। हम चुनावों में यकीन रखते हैं। हमारा मानना है कि अपनी बात रखने का यह सबसे सही तरीका है। कश्मीर के संदर्भ में हालात बदल जाते हैं।
एक बार समझौता होने पर हम राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होने का तैयार हैं। कश्मीर के हवाले से कई बार चुनावों को गलत इंटरपिटेशन किया गया है। अगर ऐसा होता तो अमरनाथ पर सबकुछ बदला न नजर आता। चुनाव दरअसल प्रशासनिक मुद्दा है। इसे समस्या का हल नहीं माना जाना चाहिए। कश्मीर में कई बार चुनाव हो चुके हैं। पर इससे कोई हल नहीं निकला।
मुझे लगता है कि अगर दिल्ली की ओर से एक कदम की पहल होगी तो हमें 4 कदम चलना होगा। जब हमने दिल्ली के साथ समझौते की पहल की तो गिलानी से हमारा झगड़ा हो गया, हमारे अपने लोग ही हमारे खिलाफ हो गए लेकिन हमें दिल्ली से इस मुद्दे पर जो समर्थन मिलना चाहिए था वो नहीं मिला।
हमने 3 चीजें सरकार के समाने रखीं थीं
पहली कि राजनीतिक कैदी रिहा होने चाहिए
दूसरी जिन मिलिटेंट ने आत्मसर्पण कर दिया है उनकी पुलिस में हाजिरी को बंद की जाए
फौज की तादाद कम की जानी चाहिए
उस वक्त पाकिस्तान के नजरिए में बदलाव भी आया। सबको दिल्ली की तरफ से उम्मीद थी।
अगर आज सेंटर में किसी के समर्थन की बात करें तो मैं कहूंगा कि मुझे एनडीए यूपीए से बेहतर लगी। उसमें मुझे ज्यादा राजनीतिक इच्छाशक्ति नजर आई। ये अजीब बात है उसे हिंदूपरस्त पार्टी कहा जाता है लेकिन मुझे लगा कि एनडीए की सरकार कश्मीर मसले पर ज्यादा फोकस्ड और उत्सुक थी।
यह लेख ibnखबर से साभार लिया गया है !
अच्छा लिखा है
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