विनय बिहारी सिंह
हममें से कितने लोग हैं जो ईश्वर से जी भर कर प्यार करते हैं? हमारे जीवन में मां का स्थान सबसे ऊंचा है। मां के प्यार का कोई विकल्प नहीं है (हालांकि मेरी मां मेरे बचपन में ही गुजर गई थीं, तबसे जगन्माता ही मुझे प्यार दे रही हैं) । क्या हम ईश्वर से मां से भी बढ़ कर प्यार कर पाते हैं। ईश्वर से प्यार करने की बात इसलिए क्योंकि उसी ने हमें जीवन दिया है। हम जो सांसें लेते हैं, उसी की कृपा के कारण। हम सबकी सांसें गिनी हुई हैं। जब सांस पूरी हो जाएगी तो हमें अंतिम सांस ले कर इस संसार से विदा लेनी पड़ेगी? क्या आपने कभी सोचा है कि जन्म लेने के पहले आप कहां थे? या मृत्यु के बाद कहां जाएंगे? आपका जीवन जीवन और मृत्यु के बीच वाला हिस्सा भर है। क्या आप जानते हैं कि दूसरों को नुकसान पहुंचाने का विचार आपको भी कभी न कभी नुकसान पहुंचा कर दम लेता है? जी हां, यह सच है। तो सवाल था कि हममें से कितने लोग ईश्वर को दिलो जान से चाहते हैं? क्या हम ईश्वर के लिए कभी भी रोते हैं? नहीं। हम पत्नी के लिए, प्रेमी या प्रेमिका के लिए, मां- पिता के लिए तो रोते हैं। व्यवसाय में नुकसान होने पर तो रोते हैं। लेकिन ईश्वर को दर्शन देने के लिए नहीं रोते। कोई चीज हम नहीं पा सके तो उसका दुख हमें खूब होता है। कोई मौका खो देते हैं तो उसका दुख भी खूब होता है। किसी ने गहरा दुख पहुंचा दिया तो कई अकेले में रोते हैं। लेकिन ईश्वर के लिए बहुत कम लोग रोते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हमें दिन रात ईश्वर के लिए रोना ही चाहिए। उससे प्रार्थना करनी चाहिए, ध्यान करना चाहिए। उसे हमेशा दिल में रखना चाहिए। लेकिन जब लगे कि उसने आपकी बात का मूक जवाब नहीं दिया, कोई संकेत भी नहीं दिया तो हम शिकायत क्यों न करें। आखिर बचपन में मां से अपनी बात मनवाने के लिए रोते थे या नहीं?
सच विनय जी माँ का प्यार और उसका अहसास ऐसा होता है जिसके सहारे जिंदगी गुजारी जा सकती है,माँ के न होने का दर्द बहुत कठिन होता है !
ReplyDeleteअच्छा लिखा है
ReplyDeleteविनय जी, आप अच्छा लिखते हैं | विनय जी आपसे गुजारिश है- आप जब भी इस विषय पर लिखें तो उसका हवाला ज़रूर लिखा करें कि आपने जो भी लिखा है वह फलां मान्य ग्रन्थ में लिखा है | इससे होगा यह कि आपकी बात ज़्यादा प्रभावी होगी|
ReplyDeleteऔर हाँ धर्म जैसा विषय जैसा कि आप लोग कहते हैं - बेहद निजी है! सौ प्रतिशत सही है| यही वजह है कि हम मुस्लिम्स हमेशा अकेले नमाज़ केवल ईश्वर का ध्यान रख कर पढ़ते है| निजी से मुराद आपके हिसाब से शायद यह होगा कि मैं जैसे भी चाहूँ वैसे ईश्वर की व्याख्या कर दूँ| जो जैसे चाहे उसे माने| जो जैसे चाहे उसकी उपासना करे|
यही कारण है कि इस सोच की वजह से हमारे भारत में इतनी विभिन्नता है| विभिन्नता को मिटाना है तो एक जैसे विचार रखने होंगे |