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लघु कथा-- आचार्य संजीव 'सलिल'

लघु कथा-- आचार्य संजीव 'सलिल'

स्वर्ग-नर्क

एक देश में शहीदों और सत्याग्रहियों ने मिलकर स्वतंत्रता प्राप्तकर लोकतंत्र का पौधारोपण किया. उनके साथियों और बच्चों को पौधे के चारों ओर लगी हरी घास, वंदे मातरम गाती हवा, कलकल बहती सलिल-धार बहुत अच्छी लगी.

पौधे के पेड़ बनते ही हाथ के पंजे का उपयोग कर एक बच्चे ने एक डाल पर झूला डालकर कब्जा कर लिया.


हँसिया-हथोडा लिए दूसरे बच्चे ने एक अन्य मोटी डाल देखकर आसन जमा लिया. तीसरी शाखा पर कमल का फूल लेकर आए लडके ने अपना झंडा फहरा दिया. कुछ और बच्चे चक्र, हल, किसान, हाथी आदि ले आए.

आपाधापी और धमाचौकडी बढ़ने पर जनगण की दोशाले जैसी हरी घास बेरहमी से कुचली जाकर सिसकने लगी. झूलों में आसमान से होड़ लेती पेंगें भरते बच्चे जमीन से रिश्ता भूलने लगे. लोकतंत्र का फलता-फूलता पेड़ अपनी हर डाल को क्षत-विक्षत पाकर आर्तनाद करने लगा.

अपने पेड़ बेटे के दर्द से व्यथित धरती माता आसमान से पूछ रही है मुक्ति की राह. बच्चों में बढती जा रही है अधिक से अधिक पाने की चाह, फ़ैल रहा है विषैला दाह. जन-आकाक्षाओं की तितलियों को कहीं नहीं मिल पा रही है पनाह, अनाचार करता हर बच्चा ख़ुद ही अपनी पीठ ठोंक कर कर रहा है वाह-वाह, और सुनकर भी अनसुनी कर रहा है जनगण की कराह. ऊपरवाले से नीचेवाले पूछ रहे हैं कब तक भरना होग आह? स्वर्ग के नर्क में बदलने की कब रुकेगी राह?


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--- संजय सेन सागर

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