कवितायें
प्रो. वीणा तिवारी
कभी-कभी
कभी-कभी ऐसा भी होता हैकोई अक्स, शब्दया वाक्य का टुकडारक्त में घुल-मिल जाता है।
फ़िर उससे बचने को कनपटी की नस दबाओ उँगलियों में कलम पकडो
या पाँव के नाखून सेधरती की मिट्टी कुरेदो
वह घड़ी की टिक-टिक-साअनवरत शिराओं में दौड़ता-बजता रहता है.
कभी-कभी ऐसा क्यों होता है?
************************************
क्या-क्यों?
क्या हो रहा है?
क्यों हो रहा है?
इस 'क्या' और 'क्यों' को
न तो हम जानना चाहते हैं
न ही जानकर मानना
बल्कि प्रश्न के भय से
उत्तर की तरफ पीठ करके
सारी उम्र नदी की रेत में
सुई तलाशते हैं.
*************************
मन
दूसरों की छोटी-छोटी भूलें
आँखों पर चढी
परायेपन की दूरबीन
बड़े-बड़े अपराध दिखाती है
जिनकी सजा फांसी भी कम लगती है
अपनों की बात आने पर ये मन
भुरभुरी मिट्टी बन जाता है
जिसमें वह अपराध कहीं भीतर दब जाता है.
फिर सजा का सवाल कहाँ रह जाता है?
**************************************
बसंतोत्सव पर विशेष
श्री जयदेव रचित गीत गोविन्द
महीयसी महादेवी वर्मा
छाया सरस बसंत विपिन में,
करते श्याम विहार.
युवती जनों के संग रास रच
करते श्याम विहार.
ललित लवंग लताएँ छूकरबहता मलय समीर.अली संकुल पिक के कूजन से
मुखरित कुञ्ज कुटीर.
विरहि जनों के हित दुरंत
इस ऋतुपति का संचार.
करते श्याम विहार.
जिनके उर में मदन जगाता
मदिर मनोरथ-भीर.
वे प्रोशितपतिकाएं करतीं
करूँ विलाप अधीर.
वकुल निराकुल ले सुमनों पर
अलिकुल का संभार.
करते श्याम विहार.
मृगमद के सौरभ सम सुरभित
नव पल्लवित तमाल,
तरुण जनों के मर्म विदारक
मनसिज नख से लाल-
किंशुक के तरु jaal कर रहे
foolon से श्रृंगार.
करते श्याम विहार.
राजदंड स्वर्णिम मनसिज का
केशर-कुसुम-vikas
समर तूणीर बना है पाटल
लेकर भ्रमर-विलास.
करता है ऋतुपति दिगंत में
बासंती विस्तार.
करते श्याम विहार.
विगलित-लज्जा जग सता है
तरुण करूँ उपहास,
कुंतामुखाकृतिमयी केतकी
फूल रही सोल्लास,
विरहिजनों के ह्रदय निकृन्तन
में जो है दुर्वार.
करते श्याम विहार.
ललित माधव परिमल से,
मल्लिका सुमन अभिराम,
मुनियों का
मन भी कर देता
यह ऋतुराज सकाम,
बंधु अकारण यह तरुणों का
आकर्षण-अगर.
करते श्याम विहार.
भेंट लता अतिमुक्त, मंजरित
पुलकित विटप रसाल
तट पर भरा हुआ यमुनाजल
रहा जिसे प्रक्षाल,
वह वृन्दावन पूत हो रहा
पा अभिषेक उदार.
करते श्याम विहार.
इसमें है श्रीकृष्ण-चरण की
मधु स्मृतियों का सार,
मधुर बसन्त-कथा में मन के
भाव मदन-अनुसार
श्री जयदेव-रचित रचना यह
शब्दों में साकार.
प्रो. वीणा तिवारी
कभी-कभी
कभी-कभी ऐसा भी होता हैकोई अक्स, शब्दया वाक्य का टुकडारक्त में घुल-मिल जाता है।
फ़िर उससे बचने को कनपटी की नस दबाओ उँगलियों में कलम पकडो
या पाँव के नाखून सेधरती की मिट्टी कुरेदो
वह घड़ी की टिक-टिक-साअनवरत शिराओं में दौड़ता-बजता रहता है.
कभी-कभी ऐसा क्यों होता है?
************************************
क्या-क्यों?
क्या हो रहा है?
क्यों हो रहा है?
इस 'क्या' और 'क्यों' को
न तो हम जानना चाहते हैं
न ही जानकर मानना
बल्कि प्रश्न के भय से
उत्तर की तरफ पीठ करके
सारी उम्र नदी की रेत में
सुई तलाशते हैं.
*************************
मन
दूसरों की छोटी-छोटी भूलें
आँखों पर चढी
परायेपन की दूरबीन
बड़े-बड़े अपराध दिखाती है
जिनकी सजा फांसी भी कम लगती है
अपनों की बात आने पर ये मन
भुरभुरी मिट्टी बन जाता है
जिसमें वह अपराध कहीं भीतर दब जाता है.
फिर सजा का सवाल कहाँ रह जाता है?
**************************************
बसंतोत्सव पर विशेष
श्री जयदेव रचित गीत गोविन्द
महीयसी महादेवी वर्मा
छाया सरस बसंत विपिन में,
करते श्याम विहार.
युवती जनों के संग रास रच
करते श्याम विहार.
ललित लवंग लताएँ छूकरबहता मलय समीर.अली संकुल पिक के कूजन से
मुखरित कुञ्ज कुटीर.
विरहि जनों के हित दुरंत
इस ऋतुपति का संचार.
करते श्याम विहार.
जिनके उर में मदन जगाता
मदिर मनोरथ-भीर.
वे प्रोशितपतिकाएं करतीं
करूँ विलाप अधीर.
वकुल निराकुल ले सुमनों पर
अलिकुल का संभार.
करते श्याम विहार.
मृगमद के सौरभ सम सुरभित
नव पल्लवित तमाल,
तरुण जनों के मर्म विदारक
मनसिज नख से लाल-
किंशुक के तरु jaal कर रहे
foolon से श्रृंगार.
करते श्याम विहार.
राजदंड स्वर्णिम मनसिज का
केशर-कुसुम-vikas
समर तूणीर बना है पाटल
लेकर भ्रमर-विलास.
करता है ऋतुपति दिगंत में
बासंती विस्तार.
करते श्याम विहार.
विगलित-लज्जा जग सता है
तरुण करूँ उपहास,
कुंतामुखाकृतिमयी केतकी
फूल रही सोल्लास,
विरहिजनों के ह्रदय निकृन्तन
में जो है दुर्वार.
करते श्याम विहार.
ललित माधव परिमल से,
मल्लिका सुमन अभिराम,
मुनियों का
मन भी कर देता
यह ऋतुराज सकाम,
बंधु अकारण यह तरुणों का
आकर्षण-अगर.
करते श्याम विहार.
भेंट लता अतिमुक्त, मंजरित
पुलकित विटप रसाल
तट पर भरा हुआ यमुनाजल
रहा जिसे प्रक्षाल,
वह वृन्दावन पूत हो रहा
पा अभिषेक उदार.
करते श्याम विहार.
इसमें है श्रीकृष्ण-चरण की
मधु स्मृतियों का सार,
मधुर बसन्त-कथा में मन के
भाव मदन-अनुसार
श्री जयदेव-रचित रचना यह
शब्दों में साकार.
बेहद सुन्दर कवितायेँ !!
ReplyDeleteपड़कर अच्छा लगा !!