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उस अनजानी लड़की से जाना, आसान नहीं है पहचान पाना

त्रकारिता के क्षेत्र में दो दशक बिताने के बाद मैं मनुष्यों के स्वभाव, व्यवहार और प्रकृति को काफी हद तक समझने लगा हूं। मैं हमेशा मानता हूं कि किसी भी व्यक्ति को समझना बहुत कठिन नहीं है। पर एक बार एक ऐसी घटना हुई, जिसने मेरी सारी धारणा-अवधारणा को गलत साबित कर दिया। उस घटना से ऐसा कटु अनुभव हुआ कि मुझे आज तक लगता है, किसी को पहचानने में ऐसी भूल मुझसे कैसे हो गई।
बात पांच-छः साल पुरानी है। हमेशा की तरह काम निपटा कर मध्य रात्रि के बाद घर जाने के लिए आफिस से बाहर निकला तो बाजू में स्थित एक अपार्टमेन्ट के नीचे दीवाल से सटकर कोई खड़ा दिखा। रात में सतर्क रहने की आदत है, इसी कारण उसका हिलता हुआ हाथ आसानी से दिख गया। कार रोकी तो वहां एक लड़की नजर आई जो तत्काल बाहर आ गई। उसने रेलवे स्टेशन तक छोड़ देने का आग्रह किया। दिमाग ने कहा- आफिस से किसी को बुला लो। इतने में कार रुकी देखकर दो-तीन जूनियर लड़के भी आ गए। सभी ने एक मत से निर्णय लिया कि लड़की को पुलिस को सौंप देना चाहिए। समीप ही सिविल लाइंस थाना था, जहाँ फोन कर दिया तो पुलिस भी आ गई। हालांकि लड़की बार-बार कहती रही कि उसे पुलिस के पास मत भेजो, गड़बड़ हो जाएगी लेकिन तब तक पुलिस आ ही गई थी।
पुलिस ने लड़की से पूछा कि वह कहां की रहने वाली है? लड़की ने बड़ी मुश्किल से बताया कि पास के शहर दमोह से किसी के साथ आई थी, लाने वाला चला गया, अब वह अकेली है, स्टेशन पर छोड़ दो सुबह होते ही चली जाएगी। पर पुलिस ने तय किया कि उसे महिला पुलिस स्टेशन में छोड़ देते हैं। पुलिस ने किया भी यही। अगले दिन उस लड़की की मासूमियत पर यह स्टोरी छापी कि उसकी मां और सौतेले पिता ने उसे घर से निकाल दिया है। खबर पढ़ने के बाद गोरी-चिट्टी सुंदर-सी इस लड़की को गोद लेने के लिए एक संभ्रांत परिवार तैयार हो गया।
दो-चार दिनों तक लड़की की खबर ली तो पता चला कि बच्चों ने उसे बड़ी दीदी मान लिया है। सब कुछ बढ़िया चल रहा है, सब खुश भी हैं। करीब एक पखवाड़े बाद जब फिर से उस लड़की कि याद आई तो उस परिवार को फोन किया और जो सुना उससे पैरों के नीचे की जमीन किसक गई। उस परिवार ने मुझे घर पर बुलाकर पूरी कहानी सुनाई। वह लड़की पक्की कालगर्ल थी। उसने घर के फोन से ही अपने ग्राहकों को फोन करना शुरू कर दिया था। गोद लेने वाले मियां-बीवी काम पर चले जाते थे और पीछे से लड़की गड़बड़ करती थी। जब शक हुआ तो उसका मेडिकल परीक्षण कराया गया, जिसमें पुष्टि भी हो गई। वह संभ्रांत परिवार मरता क्या न करता, पुलिस के सहयोग से किसी तरह उससे छुट्टी पायी और भविष्य में ऐसी सहायता न करने कि कसम भी खाई।
मेरे लिए यह घटना एक सबक है। भूल किसी से भी हो सकती है। मैंने भूल की किसी को पहचानने में।
मनीष गुप्ता दैनिक भास्कर के जबलपुर संस्करण के एडिटर (सिटी) हैं। इन्होंने करियर की शुरुआत नवभारत से की और पिछले आठ वर्षों से भास्कर समूह के साथ हैं। पत्रकारिता व फोटोग्राफी के लिए मनीष को कई एवार्ड मिल चुके हैं।

प्रधानजी डॉट कॉम से साभार
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Comments

  1. अच्छी जानकारी कशिश जी लेकिन यदि ऐसा होता रहा तो लोग किसी की मदद को आगे नहीं आयेंगे !

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  2. जो मनीष जी ने किया बह बहुत कम ही लोग कर पाते है
    लेकिन जो उस लड़की ने किया बह अब आम हो गया है
    अच्छी जानकारी

    ReplyDelete

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--- संजय सेन सागर

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