मेरी पोस्ट "आवश्यकता है ५४२ नालायकों की" पर किन्हीं BS की टिप्पणी के लिये उनका हार्दिक धन्यवाद। इस प्रकार की पोस्ट पर एक रूढ़ि के रूप में, वाहवाही कर देने से बात वहीं की वहीं समाप्त हो जाती है जबकि विषय की गंभीरता मांग करती है कि इन प्रश्नों को मथा जाये। आपने बहस चलानी चाही, इसके लिये आपको साधुवाद !
बी एस ने जिन बिन्दुओं को अपनी टिप्पणी में स्पर्श किया है, उनसे मेरी असहमति नहीं है। मैं राज्य सभा का जिक्र नहीं कर रहा हूं। राज्य सभा और लोक सभा की चयन प्रक्रिया बिल्कुल अलग है। मेरा प्रयास सिर्फ हमारे संविधान की उन खामियों की ओर इंगित करना है जिनके चलते हमारे सांसदों की हर अगली पीढ़ी पहले वाली पीढ़ी की तुलना में निकृष्ट होती चली गयी है।
क्या ये सच नहीं है कि -
१- हमारे संविधान में सांसद या विधायक पद हेतु चुनाव लड़ने के लिये जो अर्हतायें निर्धारित की गयी हैं उनसे कहीं अधिक अर्हतायें किसी विद्यालय में चपरासी बनने के लिये निर्धारित होती हैं? हमारे देश के संविधान के प्रावधानों के अनुसार जो व्यक्ति स्कूल में चपरासी बनने के अयोग्य है, वह शिक्षा मंत्री बन सकता है और शिक्षा मंत्री बन कर उसी विद्यालय के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में भाषण देने लगता है, विद्यालय के प्रधानाचार्य उसको माल्यार्पण करके स्वयं को धन्य हो गया मानने लगते हैं। जो व्यक्ति सिपाही बनने के लिये भी अयोग्य है, उसे हमारा संविधान परेड की सलामी लेने योग्य बना देता है, उसे प्रतिरक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभालने के योग्य मान लिया गया है। क्या यह किसी लायक व्यवस्था के लक्षण हैं?
२- लालू प्रसाद यादव को बिहार का मुख्य मंत्री पद छोड़ कर जेल जाना पड़ा तो अपना राज-पाट अपनी लगभग निरक्षर पत्नी को सौंप गये। मुख्य मंत्री के पद पर देश ने एक ऐसी महिला को विराजमान देखा जो चूल्हे-चौके के अलावा कुछ जानती ही नहीं थी। क्या यह किसी लायक व्यवस्था के लक्षण हैं?
३- अपने लिये कानून स्वयं बना लेना, जब उच्चतम न्यायालय आपकी किसी हरकत को असंवैधानिक ठहराये तो उससे बच निकलने के लिये देश के कानून में ही परिवर्तन कर देना हमारे देश में बड़ी आसानी से देखने को मिलता रहता है। क्या यह किसी लायक व्यवस्था के लक्षण हैं?
अपना वेतन और भत्ते खुद तय करना; जब चाहो, जितनी चाहो, उनमें वृद्धि कर लेना हमारे लोकतंत्र में अनुमन्य है । क्या ये किसी लायक व्यवस्था के लक्षण हो सकते हैं?
आप पढ़े लिखे हैं, विद्वान हैं, विभिन्न राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों का मनन करके, सभी प्रत्याशियों की कुंडली जांच कर वोट दे कर आते हैं, वहीं दूसरि ओर, आपके पड़ोस का कोई व्यक्ति देसी ठर्रे के एक पाउच के लालच में, या जात-बिरादरी के कहने पर एक गलत व्यक्ति को वोट दे आता है और इस प्रकार आपके वोट की महत्ता को समाप्त कर देता है - क्या ऐसी व्यवस्था के अंतर्गत आप श्रेष्ठ जन-प्रतिनिधियों की उम्मीद कर सकते हैं? क्या यह किसी लायक व्यवस्था के लक्षण हैं?
एक पांचवी पास दुकानदार, जो कल तक अपने मुहल्ले की दुकान पर कपड़ा बेच रहा था, आज हमारे लोकतंत्र की लायकी की वज़ह से विधायक और फिर मंत्री बन जाता है और एक आइ.ए.एस. उसका सचिव बन कर उसके मातहत कार्य करने लगता है। अब आप कल्पना कीजिये - इन तथाकथित 'माननीय' मंत्री महोदय को किसी भी शासकीय कार्य का कोई तज़ुर्बा नहीं है, कोई ट्रेनिंग की भी आवश्यकता नहीं समझी गयी है। मंत्री पद इस लिये मिल गया क्योंकि उनकी जाति को प्रतिनिधित्व दिया जाना जरूरी लगा । क्या ये 'माननीय' मंत्री जी उस आइ.ए.एस. सचिव के हाथों की कठपुतली से अधिक कुछ हो सकते हैं ?
स्थानीय स्तर पर देखें तो पंचायतों मे, नगर-पालिकाओं में महिलाओं के लिये सुरक्षित सीटों पर जो महिला प्रत्याशी चुनाव लड़ती हैं - वह केवल डमी होती हैं - चुनाव उनके पति लड़ते हैं, वही भाषण भी देते हैं, जन संपर्क आदि करते हैं । यदि कोई मुस्लिम महिला उम्मीदवार हो तो पोस्टरों पर फोटो भी उसके पति का ही देखा जाता है। चुनाव जीत जायें तो सारा राजकाज उनके पति ही चलाते हैं। बैठकों में महिला सभासद या प्रधान नहीं, प्रधान पति बैठते हैं और हम हैं कि इन संविधानेत्तर सत्ता केंद्रों को खड़े करके प्रसन्न हैं - इस खुशफहमी में जी रहे हैं कि हमने महिलाओं को सत्ता सौंप दी, जबकि ये महिलायें अपने पति के आदेश पर, न जाने किन-किन कागज़ों पर अंगूठा भर लगाती हैं। हम इसे लोकतंत्र मान बैठे हैं और खुश हैं। होते रहिये आप खुश, मेरी दृष्टि में तो यह संविधान के हास्यास्पद प्रावधानों के निकृष्टतम उदाहरण हैं ।
बी एस ने अपनी टिप्पणी में जिस लायब्रेरी का जिक्र किया है, यदि वर्तमान व्यवस्था इसी प्रकार चलती रही तो ये लायब्रेरी धूल फांकेंगी। बाहुबलियों के इस युग में लायब्रेरी का क्या काम? अब बुद्धिबल की नहीं, बाहुबल की, जातिबल की, धनबल की आवश्यकता का जमाना आ चुका है।
अब रहा सवाल कि मैंने लोकतन्त्र के लिये क्या किया है तो मैं विनम्रता पूर्वक यही कह सकता हूं कि देश की जनता को संविधान की इन कमियों के प्रति सतर्क करना, उनमे परिवर्तन की आकांक्षा जगाना, इसके लिये जनमत निर्माण का सतत प्रयास करना भी लोकतंत्र की छोटी सी सेवा ही तो है। जैसी देशघाती व्यवस्था हमारे देश में चल रही है, वह हमारे वर्तमान जन-प्रतिनिधियों को बहुत रास आ रही है। वह उसमे कोई परिवर्तन नहीं चाहते हैं । यदि चुनाव आयोग या हमारे माननीय सभापति महोदय चुनाव प्रक्रिया में सुधार की कोई अकांक्षा रखते हैं तो ऐसी हर पहल को तारपीडो कर देना, उसके मार्ग में यथा-संभव रोड़े अटकाना, उसमें से चोर दरवाज़े ढूंढ कर अपनी हरकतों को जारी रखने में ही उनका स्वार्थ निहित है । ऐसे में यह कार्य आपको और हमें ही करना होगा।
कुछ उपायों की ओर इंगित किया जा सकता है जिनको अपना कर हम कुछ बेहतरी की आशा कर सकते हैं। मेरी तुच्छ बुद्धि में भी दो चार बातें आ रही हैं।
एक आई. ए. एस. बनने के लिये कठिनतम बौद्धिक परीक्षाओं से गुज़रना होता है। एक जिलाधिकारी बनना किसी भी युवा का सपना हो सकता है। एक आइ. ए. एस. की तुलना में निपट मूर्ख, निरक्षर भट्टाचार्य जन-प्रतिनिधि उसकी छाती पर मंत्री बन कर बैठ जाता है, उसको उल्टे-सीधे आदेश देता है, न माने तो उसका ट्रांसफर कर देने के अधिकार रखता है | क्या बॉस को कम से कम अपने सचिव जितना शिक्षित होना अनिवार्य नहीं होना चाहिये? यदि ऐसी व्यवस्था कर दी जाये कि एम.पी. या एम.एल.ए. का चुनाव वही व्यक्ति लड़ सकता है जो आइ.ए.एस. की प्रिलिमिनरी परीक्षा पास कर चुका हो तो क्या चुनाव लड़ने के इच्छुक टिकटार्थियों की संख्या में पर्याप्त कमी नहीं दिखाई देगी? क्या हमारे जन-प्रतिनिधियों के बौद्धिक स्तर में गुणात्मक परिवर्तन दिखाई नहीं देंगे?
आज हम स. मनमोहन सिंह का इतना सम्मान क्यों करते हैं? वह एक लब्धप्रतिष्ठ अर्थशास्त्री हैं, भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रह चुके हैं, देश की अर्थव्यवस्था की बारीकियों को भली प्रकार समझ सकते हैं - उनका आइ.ए.एस. सचिव उनके सिर पर सवार नहीं हो सकता क्योंकि उसे पता है कि उसका बॉस उससे अधिक विद्वान यदि न भी होगा तो उसके जितना तो विद्वान है ही ।
आप कोई भी सरकारी नौकरी के लिये आवेदन करें तो आपकी स्वास्थ्य परीक्षा होती है। (स्वास्थ्य परीक्षा सेना में भर्ती के लिये ही नहीं, सरकार के सभी विभागों में सेवा पाने के लिये अनिवार्य है।) परंतु हमारे लायक लोकतंत्र में चुनाव लड़ने के लिये, एम.पी., एम.एल.ए. बनने के लिये, मंत्री बनने के लिये बीमार होना कहीं आड़े नहीं आता। फल यह है कि चुनाव जीतते ही, हमारे जन-प्रतिनिधि सरकारी खर्च पर ऑपरेशन कराने के लिये अमेरिका या इंग्लैंड भागते हैं और देशवासियों की खून-पसीने की कमाई से बटोरे गये टैक्स इस प्रकार इन लोगों पर लुटाये जाते हैं। क्या इसमें कुछ बुराई है कि चुनाव लड़ने के इच्छुक व्यक्ति को कठिन स्वास्थ्य परीक्षा से गुज़ारा जाये और जो इस परीक्षा में असफल हों वह अपने घर बैठ कर अपना इलाज़ करायें?
आम लोक सेवकों की भांति जन-प्रतिनिधियों की भी सेवा-निवृत्ति की आयु तय की जाये इसमें क्या बुराई हो सकती है?
अभी कुछ वर्ष पूर्व कानून में संशोधन कर के यह प्रावधान कर दिया गया कि सदन पांच वर्ष तक चले या न चले, सांसदों, विधायकों की पेंशन तो पक्की हो ही जायेगी। आजकल देख रहा हूं कि हिंदुस्तान समाचार पत्र में हमारे देश के सभी सांसदों की सक्रियता (परफॉर्मेंस) से संबंधित बहुत महत्वपूर्ण व रोचक जानकारी पाठकों तक क्रमिक रूप से पहुंचायी जा रही है जिसे देख कर स्पष्ट है कि हमारे अधिकांश सांसद या तो सदन से अनुपस्थित रहते रहे हैं, या फिर सदन में उपस्थित रह कर भी ऊंघते रहे हैं। क्या इसमे कुछ बुराई है कि पेंशन की राशि तय करने के लिये नये सिरे से पैरामीटर बनाये जायें और यह परफोरमेंस (performance based) पर आधारित हो?
उपाय तो बहुत हो सकते हैं, चुनाव आयोग भी इस विषय में चिन्तित है। यह भी तय है कि हमारे जन-प्रतिनिधि ऐसे हर किसी प्रयास का पुरजोर विरोध करेंगे। आखिर ये उनकी रोज़ी-रोटी से जुड़ा सवाल है!! वे भला क्यों चाहने लगे कि उनकी गर्दन पर आरी चले? पर बंधु, लोकतंत्र केवल उसी समाज में सफल होता है जहां 'लोक' जागृत हो, 'तंत्र' में जो दोष दिखें, उनको दूर करते रहने की मानसिक तैयारी हो। हम भारतीय तो राजतंत्र के अभ्यस्त हैं। जो एम.एल.ए./एम.पी बन जाता है, उसको अपने मुहल्ले में बुला कर उसका अभिनन्दन करने की होड़ में लग जाते हैं - अपना काम निकलवाने के लिये उसके कृपा-पात्र बनना चाहते हैं। यदि हमें पता है कि वह व्यक्ति अनाचारी, दुराचारी है, जेल भी काट आया है तो भी उसको घर बुला कर उसका आतिथ्य करने में सौभाग्य मानते हैं। अभिनन्दन करते समय यह नहीं सोचते कि आखिर ये व्यक्ति अभी चुना ही तो गया है, पांच साल काम कर ले, उसके बाद देखेंगे कि अभिनंदन करना है या गधे की सवारी करानी है।
यह बेहद दुखद है की काबिल लोगों को मौका नही मिलता लेकिन को काबिल नही है उनसे पास मौके है
ReplyDeleteआपके लेख ने एक बार फिर उस दबे दर्द को उपर ला दिया
गजब लिखा है