आतंकवाद ने जम्मू कश्मीर में कई परिवारों को तबाह कर दिया है। हजारों लोग आज भी बेघर हो विस्थापन कैंप में जिंदगी गुजार रहे है। सरकार इन लोगों की खराब हालत के बारे में जानती तो है लेकिन वायदों के सिवाए कुछ नहीं करती। जम्मू के एक इलाके में विस्थापितों की हालत भी कुछ इसी तरह है। लेकिन सिटीज़न जर्नलिस्ट बलवान सिंह पिछले 10 साल से इन लोगों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। उनकी लड़ाई है आतंकवाद की वजह से विस्थापित हुए लोगों को सरकार से मुआवजा दिलवाने के लिए।
कश्मीर के बाकी जिलों की तरह रियासी भी आतंकवाद की चपेट में था। खून खराबे के बीच 1998-99 में लगभग 1000 परिवार अपनी जान बचाकर अपना घर बार छोड़ कर तलवाड़ा कैंप पहुंचे। इनके पारिवार के कई लोगों को आतंकियों ने मार दिया और कई को उनके ही घर से खदेड़ दिया। यहां पहुंच कर इनकी जान तो बच गई लेकिन जिंदगी को नए सिरे से दोबारा शुरू करना इनके लिए मुश्किल हो गया। इनके पास न सिर पर छत थी और न खाने की व्यवस्था। बच्चे भूखे मर रहे थे। हालत यहां तक बिगड़े कि अपना पेट पालने के लिए इन्होंने अपने बच्चों को बेचने की मंडी लगाई।
कुछ औरतों ने तो सरकार से चकला शुरू करने की मांग तक की ताकि बच्चों को खाना मिल सकें।
यहां के लोगों की खराब हालत देखकर 1999 बलबान सिंह ने इनके हक के लिए लड़ने का फैसला किया। शुरूआत हुई लोगों को जोड़ने से। इन्होंने विस्थापितों के लिए कपड़े और खाने का इतंजाम करवाना शुरू किया। कई लोग खुले दिल से मदद के लिए आगे आए। लेकिन विस्थापितों की जिंदगी को फिर से सामान्य बनाने के लिए ये हल नहीं था।
लोगों को फिर से बसाने के लिए सरकारी मदद की आस में बलवान सिंह ने दफ्तरों के कई चक्कर लगाए। आवेदन लिखे, अधिकारियों से मिले लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अधिकारियों ने तलवाड़ा के विस्थापितों को विस्थापित ही नहीं माना। हकीकत आंखों के सामने थी लेकिन अधिकारी कागजी कार्यवाई और कानूनी पैचिदगियों के जाल में ही उलझे रहे।
अधिकारियों का कहना था कि तलवाड़ा के विस्थापित पजींकृत नहीं है इसलिए बाकी विस्थापितों की तरह उन्हें न तो सुविधाएं मिल सकती हैं न ही मुआवजा। बलवानन सिंह का सवाल है कि अगर विस्थापित पजीकृत नहीं किए गए है तो क्या उन्हें इंसानों की तरह बेहतर जिंदगी जीने का हक नहीं है? क्या उन्हें सरकार से सुविधाए नहीं मिलनी चाहिए?
बलवान सिंह बताते हैं कि यहां के लोगों ने अपनी रोजी रोटी के लिए आवाज उठाई और कई बार प्रदर्शन किए। लेकिन सरकार से उन्हें खाने के लिए मिलीं तो सिर्फ लाठियां। काफी दबाव के बाद सरकार ने मुआवजा देना तो शुरू किया लेकिन वो किसी भी तरह काफी नहीं। तलवाड़ा कैंप में विस्थापितों को 1200 रुपए प्रति परिवार और 10 किलो राशन दिया गया। जबकी कश्मीर के विस्थापितों के प्रति व्यक्ती के हिसाब से 4000 रुपए और 10 किलो राशन हर महीने दिया जाता है। इस मुआवजे में भी लापरवाही की गई और ज्यादातर वक्त ये बंद ही रहा। पिछले 6 महीने से इन लोगों को मुआवजा नहीं मिला बंद ही है।
लंबी कानूनी लड़ाई के बाद 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू कश्मीर सरकार को तलवाड़ा के विस्थापितों को कश्मीरी विस्थापितों का दर्जा देने का आदेश दिया। लेकिन दुख की बात है अब तक इस फैसले पर अमल नहीं हो सका है।आगे पढ़ें के आगे यहाँ
कश्मीर के बाकी जिलों की तरह रियासी भी आतंकवाद की चपेट में था। खून खराबे के बीच 1998-99 में लगभग 1000 परिवार अपनी जान बचाकर अपना घर बार छोड़ कर तलवाड़ा कैंप पहुंचे। इनके पारिवार के कई लोगों को आतंकियों ने मार दिया और कई को उनके ही घर से खदेड़ दिया। यहां पहुंच कर इनकी जान तो बच गई लेकिन जिंदगी को नए सिरे से दोबारा शुरू करना इनके लिए मुश्किल हो गया। इनके पास न सिर पर छत थी और न खाने की व्यवस्था। बच्चे भूखे मर रहे थे। हालत यहां तक बिगड़े कि अपना पेट पालने के लिए इन्होंने अपने बच्चों को बेचने की मंडी लगाई।
कुछ औरतों ने तो सरकार से चकला शुरू करने की मांग तक की ताकि बच्चों को खाना मिल सकें।
यहां के लोगों की खराब हालत देखकर 1999 बलबान सिंह ने इनके हक के लिए लड़ने का फैसला किया। शुरूआत हुई लोगों को जोड़ने से। इन्होंने विस्थापितों के लिए कपड़े और खाने का इतंजाम करवाना शुरू किया। कई लोग खुले दिल से मदद के लिए आगे आए। लेकिन विस्थापितों की जिंदगी को फिर से सामान्य बनाने के लिए ये हल नहीं था।
लोगों को फिर से बसाने के लिए सरकारी मदद की आस में बलवान सिंह ने दफ्तरों के कई चक्कर लगाए। आवेदन लिखे, अधिकारियों से मिले लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अधिकारियों ने तलवाड़ा के विस्थापितों को विस्थापित ही नहीं माना। हकीकत आंखों के सामने थी लेकिन अधिकारी कागजी कार्यवाई और कानूनी पैचिदगियों के जाल में ही उलझे रहे।
अधिकारियों का कहना था कि तलवाड़ा के विस्थापित पजींकृत नहीं है इसलिए बाकी विस्थापितों की तरह उन्हें न तो सुविधाएं मिल सकती हैं न ही मुआवजा। बलवानन सिंह का सवाल है कि अगर विस्थापित पजीकृत नहीं किए गए है तो क्या उन्हें इंसानों की तरह बेहतर जिंदगी जीने का हक नहीं है? क्या उन्हें सरकार से सुविधाए नहीं मिलनी चाहिए?
बलवान सिंह बताते हैं कि यहां के लोगों ने अपनी रोजी रोटी के लिए आवाज उठाई और कई बार प्रदर्शन किए। लेकिन सरकार से उन्हें खाने के लिए मिलीं तो सिर्फ लाठियां। काफी दबाव के बाद सरकार ने मुआवजा देना तो शुरू किया लेकिन वो किसी भी तरह काफी नहीं। तलवाड़ा कैंप में विस्थापितों को 1200 रुपए प्रति परिवार और 10 किलो राशन दिया गया। जबकी कश्मीर के विस्थापितों के प्रति व्यक्ती के हिसाब से 4000 रुपए और 10 किलो राशन हर महीने दिया जाता है। इस मुआवजे में भी लापरवाही की गई और ज्यादातर वक्त ये बंद ही रहा। पिछले 6 महीने से इन लोगों को मुआवजा नहीं मिला बंद ही है।
लंबी कानूनी लड़ाई के बाद 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू कश्मीर सरकार को तलवाड़ा के विस्थापितों को कश्मीरी विस्थापितों का दर्जा देने का आदेश दिया। लेकिन दुख की बात है अब तक इस फैसले पर अमल नहीं हो सका है।आगे पढ़ें के आगे यहाँ
कास्मिक भाई अच्छी बात हम तक पहुंचाई !!
ReplyDeleteक्या चल रहा है..कहा हो और भोपाल से कब बापिस आ रहे हो !!
जय हिन्दुस्तान जय यंगिस्तान
ये दर्द तो अंग्रेजों की दी गयी द्फ्तरशाही व्यवस्था में निहीत थी, जिसे हमलोग आज तक ढ़ोते आ रहें हैं। जबतक दफ्तरशाही व्यवस्था में अंग्रेजो की दी गयी कार्य पद्धति को नहीं बदला जायेगा, हर हिन्दुस्तानी इसी तरह घूँट-घूँट कर मरता रहेगा।
ReplyDeleteआपने यह जानकारी देकर आश्चर्यचकित कर दिया. इनके लिया हम कुछ नहीं कर सकते क्या? सारा काम सरकार ही करेगी तो लोकतंत्र में लोक की ताकत और भूमिका दोनों पर प्रश्न चिह्न लगेगा ही. ये महिलायें हस्त शिल्प का काम करें, उसे हम खरीदें तो वे इज्जत से जी सकेंगी बिना कोई अहसान लिए. इनकी सहकारी संस्था बनाई जाए तो ठीक होगा. प्रशासनिक अधिकारी खुद को कानून के ऊपर मानते हैं. उन्हें किसी की पीडा से क्या लेना-देना? यही हल नेताओं का है. ऐसे किसी एक बच्चे की पढ़ाई की फीस मैं दे सकूंगा बशर्ते प्रकरण सच्चा हो.
ReplyDeleteचिंतन करने वाला मुद्दा है
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया आपने जो यह मुद्दा हमारे सामने रखा !