मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म अपनी बात कहने या विचार प्रकट करने का भी सशक्त माध्यम है। 2002 में गुजरात में दंगों की आड़ में जो कुछ हुआ उससे अभिनेत्री नंदिता दास भी आहत हुईं और उन्होंने अपनी भावनाओं को ‘फिराक’ के जरिये पेश किया है। युद्ध या हिंसा कभी भी किसी समस्या का हल नहीं हो सकते। इनके खत्म होने के बाद लंबे समय तक इनका दुष्प्रभाव रहता है। फिराक में भी दंगों के समाप्त होने के बाद इसके ‘आफ्टर इफेक्ट्स’ दिखाए गए हैं। हिंसा में कई लोग मर जाते हैं, लेकिन जो जीवित रहते हैं उनका जीवन भी किसी यातना से कम नहीं होता। इस सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में वे लोग भी आते हैं, जिनका घर जला नहीं या कोई करीबी मारा नहीं गया है।
फिल्म में 6 कहानियाँ हैं जो आपस में गुँथी हुई हैं। इसके पात्र हर उम्र और वर्ग के हैं, जिनकी जिंदगी के 24 घंटों को दिखाया गया है। पति (परेश रावल) का अत्याचार सहने वाली मध्यमवर्गीय पत्नी (दीप्ति नवल) को इस बात का पश्चाताप है कि वह दंगों के समय अपने घर के बाहर जान की भीख माँगने वाली महिला की कोई मदद नहीं कर सकी।
संजय सूरी एक उच्चवर्गीय और पढ़ा-लिखा मुस्लिम है, जिसने हिंदू महिला से शादी की है। उसका स्टोर दंगों के दौरान लूट लिया गया है और वह डर के मारे गुजरात छोड़कर दिल्ली जाना चाहता है। उसे अपना नाम बताने में डर लगता है क्योंकि धर्म उजागर होने का भय है।
शहाना का घर दंगों में जला दिया गया है और उसे अपनी खास हिंदू सहेली के पति पर शक है। उनकी दोस्ती की परीक्षा इस कठिन समय पर होती है। सड़कों पर घूमता एक बच्चा है, जिसके परिवार को मार डाला गया है और वह अपने पिता की तलाश कर रहा है।
एक वृद्ध मुस्लिम संगीतकार (नसीरुद्दीन शाह) है, जो इस सांप्रदायिक हिंसा से बेहद दु:खी है। उसका नौकर उससे पूछता है कि क्या आपको इस बात का दु:ख नहीं है कि मुस्लिम मारे जा रहे हैं। वह कहता है कि उसे मनुष्यों के मरने का दु:ख है। कुछ जवान युवक हैं जो हिंदुओं से बदला लेना चाहते हैं।
निर्देशक के रूप में नंदिता प्रभावित करती हैं। फिल्म की शुरुआत वाला दृश्य झकझोर देता है। लाशों को अंतिम संस्कार के लिए ट्रक के जरिये लाया जाता है। मुस्लिम व्यक्तियों के बीच एक हिंदू स्त्री की लाश देखकर कब्र खोदने वाला उस लाश को मारना चाहता है। यह दृश्य दिखाता है कि इनसान इतना भी नीचे गिर सकता है |
नंदिता ने पुरुषों के मुकाबले महिला किरदारों को सशक्त दिखाया है। बिना दंगों को स्क्रीन पर दिखाए चरित्रों के जरिये दहशत का माहौल पैदा किया है। फिल्म देखते समय इस भय को महसूस किया जा सकता है। फिल्म के जरिये उन्होंने दुष्प्रभाव तो दिखा दिया, लेकिन इसका कोई हल नहीं सुझाया, अंत दर्शकों को सोचना है।
फिल्म के अंत में उन्होंने उस बच्चे का क्लोजअप के जरिये चेहरा दिखाया है, जो अपने पिता को ढूँढ रहा है। उसकी आँखों में ढेर सारे प्रश्न तैर रहे हैं। उसका क्या भविष्य होगा इसकी कल्पना की जा सकती है। आँखों में बच्चे का चेहरा लिए दर्शक जब सिनेमाघर छोड़ता है तो उसके दिमाग में भी कई सवाल कौंधते हैं।
फिल्म में कुछ कमियाँ भी हैं। नसीर का किरदार अचानक सकारात्मक हो जाता है। परेश रावल के किरदार को भी ठीक से विकसित नहीं किया गया है। कुछ युवकों द्वारा बंदूक हासिल करने वाले दृश्य विशेष प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। बच्चे को हर कहानी से भी जोड़ा जा सकता था। फिल्म में गुजराती, हिंदी और अँग्रेजी संवादों का घालमेल है, जिसे समझने में कुछ दर्शकों को तकलीफ हो सकती है।
सभी कलाकारों ने अपने पात्रों को बखूबी जिया है। ऐसा लगता ही नहीं कि कोई अभिनय कर रहा है। रवि के. चन्द्रन की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है।
‘फिराक’ उन फिल्मों में से है, जो सोचने पर मजबूर करती है।
nasruddin जी का मैं बहुत बड़ा फेन हूँ अभी आपने a वेद्नेस्दय देखि होगी जो बेहद अच्छी फिल्म रही इसका भी मुझे इंतज़ार है !
ReplyDeletea wednesday ki baat kar raha tha
ReplyDeletemaine dekhi hai......... bahut hi umda aur sandeshparak film thi......a wed
ReplyDeletekala ke lihaj se umda par jo sandesh nikalta hai wo galat hai .....................
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