बंदर मामा
.-आचार्य संजीव 'सलिल'
बंदर मामा देख आइना काढ़ रहे थे बाल,
मामी बोली, छीन आइना- 'काटो यह जंजाल'।
मामी परी समझकर ख़ुद को, करने लगीं सिंगार.
मामा बोले- 'ख़ुद को छलना है बेग़म बेकार.
हुईं साठ की अब सोलह का व्यर्थ न देखो सपना'.
मामी झुंझलायीं-' बाहर हो, मुंह न दिखाओ अपना.
छीन-झपट में गिरा आइना, गया हाथ से छूट,
दोनों पछताते, कर मलते, गया आइना टूट.
गर न लडाई करते तो दोनों होते तैयार,
सैर-सपाटा कर लेते, दोनों जाकर बाज़ार.
मेल-जोल से हो जाते हैं 'सलिल' काम सब पूरे,
अगर न होगा मेल, रहेंगे सारे काम अधूरे.
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--- संजय सेन सागर