पंकज श्रीवास्तव
एसोसिएट एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर
जिनके पास सामान्य ज्ञान बढ़ाने का एकमात्र जरिया समाचार चैनल रह गए हैं, उनका हैरान होना लाजिमी है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि ये कैसा पाकिस्तान है। सड़कों पर लाखों की भीड़। हवा में जम्हूरियत और आजादी के तराने। स्वात में शरिया लागू होने की गरमा-गरम खबरों की बीच अचानक आजाद न्यायप्रणाली के पक्ष में ये तूफान कैसे उठ गया! बिना खड्ग-बिना ढाल, बस जुल्फें लहराकर काले कोट वालों ने ये कैसा कमाल कर दिया। सेना खामोश रही। पुलिस भी कभी-कभार ही चिंहुकी...और इफ्तेखार चौधरी चीफ जस्टिस के पद पर बहाल हो गए!
पाकिस्तान के इतिहास को देखते हुए ये वाकई चमत्कार से कम नहीं। आम भारतीयों को इस आंदोलन की कामयाबी की जरा भी उम्मीद नहीं थी। सबको लग रहा था कि लॉंग मार्च बीच में ही दम तोड़ देगा। जरदारी जब चाहेंगे आंदोलनकारियों को जेल में ठूंस देंगे। 16 मार्च को इस्लामाबाद पहुंचना नामुमकिन होगा। ये भी बताया जा रहा था कि लांग मार्च में तालिबानी घुस आए हैं। कभी भी धमाका हो सकता है। लॉंग मार्च में मानव बम वाली खबर भी अरसे तक चीखती रही। लेकिन गिद्दों की उम्मीद पूरी नहीं हुई। पाक सरकार के गुरूर ने जरूर दम तोड़ दिया। प्रधानमंत्री गिलानी को टी.वी. पर अवतरित होकर मांगे मानने का एलान करना पड़ा। साथ में सफाई भी कि पहले मांगें क्यों नहीं मानी गईं।
इस तस्वीर ने साफ कर दिया कि पड़ोसी पाकिस्तान के बारे में हमारी जानकारी कितनी अधूरी है। सरकारों और समाचार माध्यमों को जरा भी रुचि नहीं कि वे पाकिस्तान की पूरी तस्वीर जनता के सामने रखें। उनके लिए तो स्वात पूरे पाकिस्तान की हकीकत है। जहां हर आदमी कंधे पर क्लाशनिकोव उठाए निजाम-ए-मुस्तफा लागू करने के लिए जिहाद में जुटा है। जहां औरतें हमेशा बुरके में रहती हैं। गाना-बजाना बंद हो चुका है। बच्चों को आधुनिक स्कूलों में भेजना मजहब के खिलाफ मान लिया गया है और साइंस और मडर्निटी की बात करना भी गुनाह है। बताया तो ये भी जा रहा था कि तालिबान लाहौर के इतने करीब हैं कि भारतीय सीमा पर भी खतरा बढ़ गया है। वे जब चाहेंगे कराची पर कब्जा कर लेंगे और इस्लामाबाद को रौंद डालेंगे। पाकिस्तान की ये तस्वीर बेचकर गल्ले को वोट और नोट से भरने का रास्ता मिल गया था।
लेकिन पूरे पाकिस्तान से इस्लामाबाद की ओर बढ़ने वाले कदम तालिबान के नहीं, उस सिविल सोसायटी के थे जो पाकिस्तान की तस्वीर बदलने के लिए अरसे से तड़प रही है। इनमें मर्द, औरत, बूढ़े, जवान, यहां तक कि बच्चे भी थे। न इन्हें बंदूकों का खौफ था न ही भीड़ के बीज फिदायीन के घुसने की आशंका। काले कोट पहने नौजवान वकला की भारी भीड़ हर तरफ से उमड़ी आ रही थी। इनमें बड़ी तादाद में महिला वकील भी थीं। पुरजोश और इंकलाबी अंदाज से भरी हुई। सब झूम-झूमकर नारे लगा रहे थे और भंगड़ा डाल रहे थे। अखबार और न्यूज चैनल के पत्रकारों का जोश देखकर लग रहा था गोया कोई जंग जीतने निकले हों। ये अहिंसक आंदोलन आजादी के पहले उस दौर की याद दिला रहा था जब लाहौर और कराची में करो या मरो और अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसे नारे गूंजते थे। न लाठियों का खौफ था और न गोलियों का। आज तालिबान का गढ़ माने जाने वाले सीमांत इलाके के पठान लाल कुर्ती पहनकर महात्मा गांधी की जय बोल रहे थे। जिन्हें हिंसक कबायली कहकर प्रचारित किया गया था उनके इस अहिंसक रूप को देखकर दुनिया को यकीन नहीं हो रहा था। तब वे खुदाई खिदमतगार कहलाते थे।
भारत में देश की व्यवस्था बदल देने का ऐसा जोश दशकों से देखने को नहीं मिला। 34 साल पहले इमरजेंसी के खिलाफ जनता ने अपने जौहर दिखाए थे। थोड़ी बहुत सुगबुगाहट वी.पी.सिंह ने भी पैदा की थी। लेकिन संपूर्ण क्रांति का नारा भ्रांति साबित हुआ और वी.पी.सिंह के सामाजिक न्याय का रथ जातिवादी कीच में धंसकर अपनी तेजस्विता खो बैठा। इसके बाद तो मनमोहनी अर्थशास्त्र ने ऐसा जादू चलाया कि राजनीति के हर रंग ने समर्पण कर दिया। इस जादू पर मुग्ध मध्यवर्ग देखते-देखते गले तक कर्ज में डूब गया। उसकी जिंदगी में किसी सपने के लिए जगह ही नहीं बची। इस खुमार के टूटने की शुरुआत अब हुई है जब मंदी का जिन्न दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।
ऐसे में, पाकिस्तान में जनउभार देखना वाकई सुखद था। इसने फिर साबित किया कि जनज्वार के सामने बड़ी से बड़ी सत्ता बेमानी हो जाती है। टी.वी.पर इन दृश्यों को देखकर न जाने कितनी बार मुट्ठियां भिचीं और नारे लगाने का मन हुआ। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि ये अपनी ही लड़ाई है। ये वो पाकिस्तान कतई नहीं है जिसके खिलाफ बचपन से जवानी तक घुट्टी पिलाई गई है। ये लोग जिस व्यवस्था के हक में खड़े हैं उसमें लड़कियों को पढ़ने की पूरी आजादी है, अल्पसंख्यकों और मानवाधिकार की सुरक्षा का वादा है, क्रिकेट और संगीत के लिए पूरी जगह है। फैज हैं, फराज हैं, मंटो हैं, नूरजहां हैं गुलाम अली हैं, मेहंदी हसन हैं। साइंस के इदारे है और मोहब्बत का जज्बा भी। हां गुस्सा भी है, अपने कठपुतली हाकिमों और उस अमेरिका के खिलाफ जिसने इस देश की संप्रभुता को तार-तार कर दिया है। (बची किसकी है?)
साफ है कि पाकिस्तान के हालात काफी जटिल हैं। एक तरफ वहां बार-बार सत्ता पलट करने वाली सेना है तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार से देश को खोखला करने वाले राजनेता। मजहबी राज बनाने में जुटे कठमुल्लाओं की जमात है तो पाकिस्तान को आधुनिक स्वरूप देने की जद्दोजहद में जुटी सिविल सोसायटी भी। इन सबके बीच जम्हूरियत का जज्बा लगातार मजबूत हो रहा है। इसीलिए जनरल कियानी ने तख्ता पलट की जुर्रत नहीं हुई। उलटा उन्होंने गिलानी और जरदारी को समझाया कि जनदबाव के आगे सिर झुकाएं। पाकिस्तान में हो रही इस नई सुबह को नए सिरे से समझने की जरूरत है।
इसमें क्या शक कि मुंबई में आकर मौत बरसाने वाले आतंकी पाकिस्तान की जमीन से आए थे। कसाब को छोड़कर सबको मार गिराया गया। पर रक्तबीज की तरह पाकिस्तान में इनकी तादाद न बढ़े इसकी गारंटी सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान की सिविल सोसायटी कर सकती है। और मार्च 2009 में उसने जो तेवर दिखाया, उससे साफ है कि उसके पास इसका माद्दा है। पाकिस्तानी न्यूज चैनलों ने जिस तरह पहले मुंबई हमले को लेकर कसाब की असलियत खोली और फिर लाहौर में श्रीलंका टीम पर हुए हमलावरों को बेनकाब किया, उसने इसे बार-बार साबित किया है। इसलिए जरूरत इस जज्बे को सराहने की है, सलाम करने की है। जम्हूरियत की मजबूती ही उपमहाद्वीप को आतंकवाद से मुक्त कर सकता है।
पढ़ें के आगे यहाँ
पंकज जी का लेख बहुत पसंद आया !
ReplyDelete