आज एक लेख पड़ा तो लगा राजनीति के नाम पर हिन्दू लगातार मुस्लिमो का शोषण कर रहे है,याकि नहीं आता तो आपका यह लेख पद लेना ही बेहतर है,जिसमे मुस्लिमों की सिसकियाँ भरी हुई है!हिन्दुओं कब तक चलेगा तुम्हारा यह अत्याचार..
चुनाव का मौसम आते ही मुस्लिम वोटों के लिए मारामारी शुरू हो जाती है। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनैतिक दल अपने आपको मुसलमानों का सच्चा हितैषी और हमदर्द बताने लगते हैं। मुस्लिम वोटर इस देश की लोकसभा की कम से कम सौ सीटों पर निर्णायक सिद्ध होते हैं। मुस्लिम वोटों की महत्ता को इसी बात से समझा जा सकता है कि भाजपा भी अक्सर मुसलमानों को रिझाने में जुट जाती है। अपने आपको सेकुलर कहने वाले राजनैतिक दल मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाकर उन्हें अपने पाले में करने की कोशिश करते हैं। लेकिन कड़वा सच यह है कि सभी दलों ने मुसलमानों को केवल सब्जबाग दिखाकर छला है। मुसलमानों की आर्थिक व शैक्षिक तरक्की के लिए कोई ईमानदार और ठोस पहल आज तक नहीं हुई है।
मुस्लिम वोटर राजनैतिक दलों के लिए भेड़ की तरह हैं, जिसके बाल उतारकर फिर से जंगलों में चरने के लिए छोड़ दिया जाता है। सच्चर समिति की रिपोर्ट आयी लेकिन वह केवल बहस में उलझ कर रह गयी। मुस्लिम वोटों से संसद में पहुंचने वाले सांसद भी चुनाव के बाद मुसलमानों से किनारा कर लेते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आबादी का 20-22 प्रतिशत होने के बावजूद संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधत्व कभी भी साढ़े आठ प्रतिशत से अधिक नहीं रहा। केवल 1980 में 46 मुस्लिम सांसद जीतकर संसद पहुंचे। इस कम प्रतिशत का एक महज कारण राजनैतिक दलों की बेईमानी है। ये दल मुसलमानों को वहां से चुनाव लड़वाते हैं, जहां मुसलमानों की आबादी कम होती है। आजादी के बाद से मुसलमान कांग्रेस का परम्परागत वोटर रहा था। 1977 में इमरजेंसी में नसबंदी के सवाल पर मुसलमानों ने जनता पार्टी का साथ दिया।
1980 के मध्यावधि में मुसलमान फिर से कांग्रेस के पाले में आ गए। लेकिन 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद देश में खासतौर से उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी द्वारा चलाया गये राम मंदिर आन्दोलन के कारण उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिक दंगों का प्रदेश बन गया। केन्द्र और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार के दौरान मुसलमानों पर खूब अत्याचार हुए। इसी नाराजगी के चलते 1989 के चुनाव में मुसलमानों ने जनता दल का समर्थन किया। उत्तर प्रदेश में जनता दल के मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने। अक्टूबर 1989 में कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद को गिराने की कोशिश की तो मुलायम सिंह ने कार सेवकों पर गोली चलवाकर कारसेवकों का मंसूबा विफल कर दिया। बस यहीं से मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के मसीहा के रूप में उभरे। मुसलमानों ने लगातार समाजवादी पार्टी का समर्थन किया। 1991 के मध्यावधि चुनाव के दूसरे चरण के दौरान राजीव गांधी की हत्या के बाद उमड़ी सहानुभूति के चलते कांग्रेस दोबारा सत्ता में आ गयी। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुसलमान कांग्रेस से बिल्कुल अलग हो गया।
आगे पढ़ें के आगे यहाँ कांग्रेस से छिटके मुस्लिम वोटर ने अपना भविष्य क्षेत्रीय दलों में देखना शुरु कर दिया। उप्र में वह समाजवादी पार्टी, लोकदल और बसपा के साथ रहा तो बिहार में राजद और लोजपा को अपना हमदर्द बनाया। आंध्र प्रदेश में वह तेदेपा से जुड़ा तो पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों को वोट देता रहा। लेकिन कुछ क्षेत्रीय दलों ने भी सत्ता की खातिर मुसलमानों को ठगा। तेदेपा, जनता दल (यू), डीएमके, तृणमूल कांगेस, बसपा, लोजपा और नेशनल कांन्फरेन्स जैसे क्षेत्रीय दलों ने 1999 में भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी की। 2002 में गुजरात दंगों के दौरान ये दल मूकदर्शक बने रहे।
पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने भी नन्दीग्राम और सिंगूर में मुस्लिम विरोधी चेहरा दिखा दिया। उत्तर प्रदेश में तो मायावती ने तीन-तीन बार भाजपा के साथ सरकार बनायी। मायावती ने तो तब हद कर दी, जब उन्होंने गुजरात में मोदी के पक्ष में प्रचार किया। मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए वोट करते रहे और उनके वोटों के बल पर क्षेत्रीय दल सत्ता का सुख भोगते रहे।
अब, जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है तो मुस्लिम वोटों की चाहत में ये क्षेत्रीय दल एक बार फिर भाजपा का भय दिखाकर मुसलमानों को बरगलाने में लगे हैं। सवाल यह है कि मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए ही कब तक वोट करता रहेगा ? अपने हक के लिए वह कब जागेगा ? इधर कुछ ऐसे मुस्लिम संगठन, जो किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं, जगह-जगह मुस्लिम कन्वेंशन करके मुसलमानों को गुमराह कर हैं। ये मुस्लिम संगठन पूरे पांच साल तक गुम रहते हैं। कुछ ऐसे मुस्लिम नेताओं ने पार्टियां बना ली हैं, जिन्हें किसी वजह से पार्टी ने टिकट नहीं दिया और जिनका वजूद एक जिले में भी नहीं है। अब वक्त आ गया है कि मुसलमान अपने वोटों का बिखराव न करके संसद में ऐसे प्रत्याशियों को चुनकर भेजें, जो वास्तव में दिल और दिमाग से धर्मनिरपेक्ष हों और मुसलमानों का आर्थिक व शैक्षिक पिछड़ापन दूर करने की इच्छा रखते हों।
प्रधानजी से साभार
चुनाव का मौसम आते ही मुस्लिम वोटों के लिए मारामारी शुरू हो जाती है। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनैतिक दल अपने आपको मुसलमानों का सच्चा हितैषी और हमदर्द बताने लगते हैं। मुस्लिम वोटर इस देश की लोकसभा की कम से कम सौ सीटों पर निर्णायक सिद्ध होते हैं। मुस्लिम वोटों की महत्ता को इसी बात से समझा जा सकता है कि भाजपा भी अक्सर मुसलमानों को रिझाने में जुट जाती है। अपने आपको सेकुलर कहने वाले राजनैतिक दल मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाकर उन्हें अपने पाले में करने की कोशिश करते हैं। लेकिन कड़वा सच यह है कि सभी दलों ने मुसलमानों को केवल सब्जबाग दिखाकर छला है। मुसलमानों की आर्थिक व शैक्षिक तरक्की के लिए कोई ईमानदार और ठोस पहल आज तक नहीं हुई है।
मुस्लिम वोटर राजनैतिक दलों के लिए भेड़ की तरह हैं, जिसके बाल उतारकर फिर से जंगलों में चरने के लिए छोड़ दिया जाता है। सच्चर समिति की रिपोर्ट आयी लेकिन वह केवल बहस में उलझ कर रह गयी। मुस्लिम वोटों से संसद में पहुंचने वाले सांसद भी चुनाव के बाद मुसलमानों से किनारा कर लेते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आबादी का 20-22 प्रतिशत होने के बावजूद संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधत्व कभी भी साढ़े आठ प्रतिशत से अधिक नहीं रहा। केवल 1980 में 46 मुस्लिम सांसद जीतकर संसद पहुंचे। इस कम प्रतिशत का एक महज कारण राजनैतिक दलों की बेईमानी है। ये दल मुसलमानों को वहां से चुनाव लड़वाते हैं, जहां मुसलमानों की आबादी कम होती है। आजादी के बाद से मुसलमान कांग्रेस का परम्परागत वोटर रहा था। 1977 में इमरजेंसी में नसबंदी के सवाल पर मुसलमानों ने जनता पार्टी का साथ दिया।
1980 के मध्यावधि में मुसलमान फिर से कांग्रेस के पाले में आ गए। लेकिन 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद देश में खासतौर से उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी द्वारा चलाया गये राम मंदिर आन्दोलन के कारण उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिक दंगों का प्रदेश बन गया। केन्द्र और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार के दौरान मुसलमानों पर खूब अत्याचार हुए। इसी नाराजगी के चलते 1989 के चुनाव में मुसलमानों ने जनता दल का समर्थन किया। उत्तर प्रदेश में जनता दल के मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने। अक्टूबर 1989 में कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद को गिराने की कोशिश की तो मुलायम सिंह ने कार सेवकों पर गोली चलवाकर कारसेवकों का मंसूबा विफल कर दिया। बस यहीं से मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के मसीहा के रूप में उभरे। मुसलमानों ने लगातार समाजवादी पार्टी का समर्थन किया। 1991 के मध्यावधि चुनाव के दूसरे चरण के दौरान राजीव गांधी की हत्या के बाद उमड़ी सहानुभूति के चलते कांग्रेस दोबारा सत्ता में आ गयी। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुसलमान कांग्रेस से बिल्कुल अलग हो गया।
आगे पढ़ें के आगे यहाँ कांग्रेस से छिटके मुस्लिम वोटर ने अपना भविष्य क्षेत्रीय दलों में देखना शुरु कर दिया। उप्र में वह समाजवादी पार्टी, लोकदल और बसपा के साथ रहा तो बिहार में राजद और लोजपा को अपना हमदर्द बनाया। आंध्र प्रदेश में वह तेदेपा से जुड़ा तो पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों को वोट देता रहा। लेकिन कुछ क्षेत्रीय दलों ने भी सत्ता की खातिर मुसलमानों को ठगा। तेदेपा, जनता दल (यू), डीएमके, तृणमूल कांगेस, बसपा, लोजपा और नेशनल कांन्फरेन्स जैसे क्षेत्रीय दलों ने 1999 में भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी की। 2002 में गुजरात दंगों के दौरान ये दल मूकदर्शक बने रहे।
पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने भी नन्दीग्राम और सिंगूर में मुस्लिम विरोधी चेहरा दिखा दिया। उत्तर प्रदेश में तो मायावती ने तीन-तीन बार भाजपा के साथ सरकार बनायी। मायावती ने तो तब हद कर दी, जब उन्होंने गुजरात में मोदी के पक्ष में प्रचार किया। मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए वोट करते रहे और उनके वोटों के बल पर क्षेत्रीय दल सत्ता का सुख भोगते रहे।
अब, जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है तो मुस्लिम वोटों की चाहत में ये क्षेत्रीय दल एक बार फिर भाजपा का भय दिखाकर मुसलमानों को बरगलाने में लगे हैं। सवाल यह है कि मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए ही कब तक वोट करता रहेगा ? अपने हक के लिए वह कब जागेगा ? इधर कुछ ऐसे मुस्लिम संगठन, जो किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं, जगह-जगह मुस्लिम कन्वेंशन करके मुसलमानों को गुमराह कर हैं। ये मुस्लिम संगठन पूरे पांच साल तक गुम रहते हैं। कुछ ऐसे मुस्लिम नेताओं ने पार्टियां बना ली हैं, जिन्हें किसी वजह से पार्टी ने टिकट नहीं दिया और जिनका वजूद एक जिले में भी नहीं है। अब वक्त आ गया है कि मुसलमान अपने वोटों का बिखराव न करके संसद में ऐसे प्रत्याशियों को चुनकर भेजें, जो वास्तव में दिल और दिमाग से धर्मनिरपेक्ष हों और मुसलमानों का आर्थिक व शैक्षिक पिछड़ापन दूर करने की इच्छा रखते हों।
प्रधानजी से साभार
ji bilkul sahi farmaya aapne election ke theek waqt par hi inhe minorties ka khyal aate hiadhumakhiyon ki trah bhin bhin ki madhur awaz ka alapana shuru kar dete hai, actually galti inki bhi sahiba ji galti hmare dharm guruon ki jo inke favour ke liye hum sabhi ke keemti voton division mahttav purn bhumika ada kar rahe hai aur unke ishare par monkeys ki trah naach rahe hain.....yeh ho aaya hai aur hota chala jayega...
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