फ़िल्म समीक्षा
शुक्रवार प्रर्दशित फिराक के बारे में कुछ कहने की फिराक में था, मैंने सोचा चलो हिंदुस्तान का दर्द से ही फ़िल्म समीक्षा की शुरुआत कर दी जाए। इस फ़िल्म कहानी सन २००२ के गुजरात दंगो पर आधारित है। अगर फिराक की निर्देशिका नंदिता दास की मान ली जाए तो उन दंगो में हिंदू गुजरातियों ने मुसलमानों पर बहुत जुल्म किए, उनके मकान ढहा दिए गए, औरतो की अस्मत लुटी गई। यह सभी दिखाया गया है फ़िल्म में। क्या आप लोग सहमत होंगे की फ़िल्म में एक भी बार किसी हिंदू नागरिक को मरते ख़ुद को लुटवाते नही दिखाया गया है। निर्देशिका भूल गई की दंगो की भयावह आग यह देखकर नही जलती की कौनसा दमन हिंदू का है और कौनसा मुस्लमान का। इस देश में ऐसा कौनसा दंगा हुआ जिसमे केवल मुसलमान ही मरे हो हिंदू नही, जिस भीड़ का कोई चेहरा नही होता उसे जबरन चेहरा पहनाने की कोशिश की गई है। नंदिता किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित दिखती है। पुलिस से बच रहा एक मुस्लिम पनाह खोजते हुए एक हिंदू नागरिक के हाथो मारे जाने वाला द्रश्य बहुत वीभत्स है। यह काल्पनिक सीन निर्देशिका के पूर्वाग्रह को और बलवती बनाता है।नसीरूदीन शाह का मार्मिक अभिनय कहानी को पकड़ कर रखता है। उनके कहे एक संवाद की बानगी पेश है, रघुवीर यादव नसीर से पूछते है की बहार इतने मुसलमानों को मारा जा रहा है तुम्हे गुस्सा नही आता। नसीर का जवाब होता है की इंसान इंसान को मार रहा है मजहब बीच में कहा से आया। कलाकारों का काम अच्छा है और तकनीकी रूप से भी फ़िल्म बेहतर है लेकिन एक समुदाय विशेष पर नुकीली ऊँगली उठती है। मैंने पढ़ा था की पकिस्तान में यह फ़िल्म बहुत पसंद की गई थी, जो दर्शक फिराक देखेगा उसे समझ आ जाएगा की इसकी वजह क्या है। सिर्फ़ नसीर की दिलकश अदाकारी के कारन फ़िल्म को २ सितारे देने चाहिए।
भाई जान , अब तक तो हिन्दू ही मारे जाते थे. गुजरात में हिन्दुओ ने आपना वचाव किया तो इतना हल्ला मच गया की .......
ReplyDeleteपिक्चर बन गयी.
हिन्दू तो बना ही मरने के लिए.