कलम का सिपाही कविता प्रतियोगिता के अंतर्गत अब हम जो कविता प्रकाशित करने जा रहे है उसे अपने अल्फाजों और भावनाओं से सजाया है ''फकीर मोहम्मद घोसी जी '' ने !फकीर मोहम्मद घोसी जी विजय नगर, फालना स्टेशन, जिला-पाली (राजस्थान) से बास्ता रखते है ,उनकी रचना में देश प्रेम .भाषा प्रेम देखा गया है ! उनकी आज की रचना भी कुछ ऐसी ही है ''''गर भाषा न होती''!
हम आपको याद दिला दे की शीर्ष पाँच की यह अन्तिम कविता है ,इसके बाद सम्मानित पाँच कविताओं का सफर यही थम जाएगा ! और इसके बाद हम ९ सराहनीय कविताएँ आपके सामने प्रस्तुत करेंगे ! तो फकीर मोहम्मद घोसी जी को शीर्ष पाँच में आने के लिए हमारी ओर से बधाई हम उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते है ,आप से आग्रह है की अपनी राय देकर उनके प्रोत्साहन को ऊँचा करें!
न स्कूल होती, न भारी बस्ता
न होती हालत खस्ता
गर भाषा न होती
शिक्षा होती न संस्कृति होती
कलम-किताब न होती
कविता होती न काव्य होता,
अनपढ़ शिक्षित मे दीवार न होती
गर भाषा न होती
विज्ञान न टेक्नोलाॅजी होती
न दुनिया पर विनाश की काली छाया होती,
मोटर, जहाज न रेल होती
और न कैदियो के लिए जेल होती
बस जिसकी लाठी उसकी भैंस होती।
गर भाषा न होती
कोई अपना होता न पराया
गाड़ी होती न लगता किराया
जाति न पांति होती
न दुनिया की मारा-मारी होती
क्रिकेट का बैट होता
न फुटबाल की बाॅल होती
न कुश्ती मे घोती खुलती
गर भाषा न होती
मंडे की ड्यूटी न सण्डे की छुट्टी होती
न बच्चे के लिए जन्म-घुट्टी होती
चाय होती न काॅफी बनती
और न खीर-पूरी हमारे पांति आती
न हमे खाने को मिलती मिठाई
न हम जान-पाते कैसी होती है खटाई।
गर भाषा न होती
न कागज होता न पैन होती
न गैस होती न जलते-चूल्हे
बाग होता न लगते झूले
और न हम समाते फूले।
न काम होता न देर होती
न तोते की टेर होती
और न मुन्ने की नानी के हाथो खेर होती
गर भाषा न होती
न दिया होता न जलती बाती
न काम करता खाती
न लता मंगेश्कर गाती।
गर भाषा न होती
दाम होता न दमड़ी होती
हर किसी को पेट की पड़ी होती
कोई किसी के लिए क्यू रोता ?
किसान-अनाज क्यू बोता ?
दादा होता न पोती रोती
न फ्लेट होता न हवेली होती
बस घरती की फर्श और आसमान की छत होती।
गर भाषा न होती
न दिल्ली होती न देर होती
न पपीहे की टेर होती
जाति होती न पांति होती
न झूठी आरक्षण की राजनीति होती
मजहब होता न मजहर होता
न सामप्रदायिकता का बोलबाला होता
न भाई-भाई लड़ते आपस में
न खून-खराबा होता
गर भाषा न होती
जैक होता न चैक की जरूरत पड़ती
गुलाम होते न बेड़िया कम पड़ती
रिश्वत मे न भरे हुए बैग देने पड़ते
न कालाबाजारी के आलू सड़ते
अंघा कानून होता
न उसको सच करने के लिए झूठा वकील
डाॅक्टर होता न देनी पड़ती फीस
न ही हम खरीदते पेंट पीस
गर भाषा न होती
दगाबाजी की शतरंज जमती
न भ्रष्टाचार की चाले चलती
न नेता रूपी मोहरे होते
न उनके बंगलो पे सैनिको के पहरे होते
गर भाषा न होती
राजनीति होती न जनता मे फूट के बीज बोती
और न जनता यूं आंठ-आंठ आसूं रोती
न पोथी बंचती न पंचाग काम आता
गर भाषा न होती
कसम से देश होता न भेष होता
न देशवासी होते, हम न जाने कहाँ ?
अपनी -अपनी कुटिया मे खर्राटे ले रहे होते ?
गर भाषा न होती।
आगे पढ़ें के आगे यहाँ
हम आपको याद दिला दे की शीर्ष पाँच की यह अन्तिम कविता है ,इसके बाद सम्मानित पाँच कविताओं का सफर यही थम जाएगा ! और इसके बाद हम ९ सराहनीय कविताएँ आपके सामने प्रस्तुत करेंगे ! तो फकीर मोहम्मद घोसी जी को शीर्ष पाँच में आने के लिए हमारी ओर से बधाई हम उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते है ,आप से आग्रह है की अपनी राय देकर उनके प्रोत्साहन को ऊँचा करें!
न स्कूल होती, न भारी बस्ता
न होती हालत खस्ता
गर भाषा न होती
शिक्षा होती न संस्कृति होती
कलम-किताब न होती
कविता होती न काव्य होता,
अनपढ़ शिक्षित मे दीवार न होती
गर भाषा न होती
विज्ञान न टेक्नोलाॅजी होती
न दुनिया पर विनाश की काली छाया होती,
मोटर, जहाज न रेल होती
और न कैदियो के लिए जेल होती
बस जिसकी लाठी उसकी भैंस होती।
गर भाषा न होती
कोई अपना होता न पराया
गाड़ी होती न लगता किराया
जाति न पांति होती
न दुनिया की मारा-मारी होती
क्रिकेट का बैट होता
न फुटबाल की बाॅल होती
न कुश्ती मे घोती खुलती
गर भाषा न होती
मंडे की ड्यूटी न सण्डे की छुट्टी होती
न बच्चे के लिए जन्म-घुट्टी होती
चाय होती न काॅफी बनती
और न खीर-पूरी हमारे पांति आती
न हमे खाने को मिलती मिठाई
न हम जान-पाते कैसी होती है खटाई।
गर भाषा न होती
न कागज होता न पैन होती
न गैस होती न जलते-चूल्हे
बाग होता न लगते झूले
और न हम समाते फूले।
न काम होता न देर होती
न तोते की टेर होती
और न मुन्ने की नानी के हाथो खेर होती
गर भाषा न होती
न दिया होता न जलती बाती
न काम करता खाती
न लता मंगेश्कर गाती।
गर भाषा न होती
दाम होता न दमड़ी होती
हर किसी को पेट की पड़ी होती
कोई किसी के लिए क्यू रोता ?
किसान-अनाज क्यू बोता ?
दादा होता न पोती रोती
न फ्लेट होता न हवेली होती
बस घरती की फर्श और आसमान की छत होती।
गर भाषा न होती
न दिल्ली होती न देर होती
न पपीहे की टेर होती
जाति होती न पांति होती
न झूठी आरक्षण की राजनीति होती
मजहब होता न मजहर होता
न सामप्रदायिकता का बोलबाला होता
न भाई-भाई लड़ते आपस में
न खून-खराबा होता
गर भाषा न होती
जैक होता न चैक की जरूरत पड़ती
गुलाम होते न बेड़िया कम पड़ती
रिश्वत मे न भरे हुए बैग देने पड़ते
न कालाबाजारी के आलू सड़ते
अंघा कानून होता
न उसको सच करने के लिए झूठा वकील
डाॅक्टर होता न देनी पड़ती फीस
न ही हम खरीदते पेंट पीस
गर भाषा न होती
दगाबाजी की शतरंज जमती
न भ्रष्टाचार की चाले चलती
न नेता रूपी मोहरे होते
न उनके बंगलो पे सैनिको के पहरे होते
गर भाषा न होती
राजनीति होती न जनता मे फूट के बीज बोती
और न जनता यूं आंठ-आंठ आसूं रोती
न पोथी बंचती न पंचाग काम आता
गर भाषा न होती
कसम से देश होता न भेष होता
न देशवासी होते, हम न जाने कहाँ ?
अपनी -अपनी कुटिया मे खर्राटे ले रहे होते ?
गर भाषा न होती।
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घोषी जी आपको हार्दिक बधाई !
ReplyDeleteसुन्दर रचना !!
आप इसी तरह अपना सहयोग कायम रखें!
गर भाषा न होती तो मैं कमेंट्स कैसे करता
ReplyDeleteहा हा हा
अच्छा लिखा है पर छापा गलत है
अच्छी रचना बस जरा सी लम्बी हो गयी
ReplyDeleteअच्छी नज्म है खूबसूरती दिखी!
ReplyDeleteमुझे काफी पसंद आई