पाकिस्तान के मुरीदके में स्थित जमात-उद-दावा कैंप को लश्कर-ए-तोएबा का मुख्यालय भी कहा जाता है. इस अभेद्य किले में जाने वाली इकलौती भारतीय पत्रकार हरिंदर बवेजा धर्म और समाजसेवा के मुखौटे के पीछे का चेहरा कुछ ऐसा पाती हैं.
आप एक शैक्षणिक परिसर में हैं. मगर आप भारत से हैं और तहलका के लिए काम करती हैं तो आपको अपना नजरिया बदलने में कुछ वक्त लगेगा.
मैं अभी मुरीदके - जिसे सारी दुनिया लश्कर-ए-तोइबा का मुख्यालय मानती है - पहुंची ही थी कि ये बात अब्दुल्ला मुंतजिर (मेर गाइड और विदेशी मीडिया के प्रवक्ता) ने मुझसे कही. शायद ऐसा पहली बार था जब किसी भी भारतीय पत्रकार को लाहौर से 40 किलोमीटर दूर स्थित इस विशाल परिसर में घुसने की इजाजत दी गई थी. इस कांप्लेक्स के बाहर लगे बैरीकेड पर कड़ा पहरा रहता है और पहले से इजाजत लिए बगैर कोई भी इसके भीतर नहीं घुस सकता.
भीतर जाने पर मुझे 60 बिस्तरों वाला एक साफ-सुथरा अस्पताल, लड़कों और लड़कियों के लिए बने स्कूल, एक मदरसा, एक मस्जिद, एक विशाल स्विमिंग पूल और एक गेस्ट हाउस दिखाया जाता है. ऊंचे-ऊंचे पेड़ों और कांटेदार तारों से घिरे 75 एकड़ के इस परिसर में करीने से बनाए गए मखमली घास के मैदान, शलजम के खेत और मछली प्रजनन केंद्र है. स्कूल में पंजीकरण करवाने वाले छात्रों को फीस देनी होती है जबकि मदरसे में तालीम पाने वाले बच्चों के लिए इसकी कोई बाध्यता नहीं है. अंग्रेजी और अरबी सीखना अनिवार्य है और कंप्यूटर कोर्स भी पढ़ाई का एक अभिन्न हिस्सा है.
‘लश्कर-ए-तोएबा के मुख्यालय में आपका स्वागत है. क्या आपको लगता है कि किसी आतंकी संगठन का ऑफिस ग्रांड ट्रंक रोड जैसी मुख्य सड़क के किनार स्थित होगा?’ मुंतजिर मेरी तरफ दूसरा सवाल दागते हैं. साफ महसूस किया जा सकता है कि इस कांप्लेक्स को चलाने वाला संगठन यानी मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार माना जा रहा लश्कर की राजनीतिक इकाई जमात-उद-दावा, लश्कर से खुद को अलग करने के लिए भरसक प्रयास कर रहा है. मेरे आने से कुछ दिन पहले कुछ दूसरे विदेशी पत्रकारों को भी इस कांप्लेक्स के दौर यानी गाइडेड टुअर पर लाया था. पहले से तय इस दौरे में पत्रकारों ने कैमिस्ट्री और फिजिक्स की प्रयोगशालाओं में काम करते छात्र देखे जो तरह-तरह के वैज्ञानिक प्रयोगों में व्यस्त थे.
वैसे तो मैं भी ये सोचकर वहां नहीं गई थी कि इस ज्गाह पर बंदूकें चलाने का प्रशिक्षण लेते लश्कर के आतंकी देखने को मिलेंगे. मगर फिर भी ये दौरा अपने आप में आंखें खोलने वाला कहा जा सकता है. क्योंकि जब आप करीने से संवारे गए लॉन से होकर गुज्राते हुए अपने दाएं या बाएं आने वाले किसी हॉस्टल, मस्जिद या अस्पताल को देखने के लिए मुड़ते हैं तो इस दौरान हो रही बातचीत में अक्सर दहशतगर्दी, लश्कर और (मेर मामले में) कश्मीर जैसे शब्दों की भरमार सुनने को मिलती है. हालांकि मुरीदके पर लश्कर के ट्रेनिंग कैंप होने का ठप्पा हटाने के लिए पाकिस्तान की सुरक्षा एजेंसियों से हरी झंडी मिलने के बाद इस परिसर के दरवाजे तो खोल दिए गए हैं मगर यहां हो रही बातचीत में कहीं से भी स्कूल सिलेबस की झलक तक नहीं मिलती. ये पूरी तरह से इस बात पर केंद्रित होती है कि किस तरह से भारत एक दुश्मन देश है.
मुरीदके का दौरा करने के एक दिन बाद मैं एक परिवार से मिली जिसके एक रिश्तेदार का घर इस परिसर के बिल्कुल पड़ोस में ही है. इस परिवार के सदस्यों के मुताबिक ये ज्गाह एक ट्रेनिंग ग्राउंड है. यहां लाउडस्पीकर पर तेज आवाज में गूंजते जेहाद के नारे सुने जा सकते हैं और कभी-कभी फायरिंग की आवाज भी. कुध मैंने भी जो दो घंटे इस परिसर में बिताए उनमें भी जेहाद से संबंधित बातचीत कई बार सुनी जा सकती थी.
जांच अधिकारियों की मानें तो मुंबई हमले में जिंदा पकड़े गए अकेले आतंकेह्लादी कसाब ने यहीं पर पढ़ाई की थी. मैं मुंतजिर से सीधे-सीधे सवाल पूछती हूं.
तो क्या कसाब ने यहां पढ़ाई की. मुरीदके में?अगर उसने की भी है तो हम इस बात के लिए जिम्मेदार नहीं है कि कोई छात्र यहां से जाने के बाद क्या करता है.क्या आप लश्कर-ए-तोएबा का समर्थन करते हैं?हम किया करते थे.आप किया करते थे?हां, हमारी सोच एक थी मगर भारतीय संसद पर हमले के बाद भारतीय दुष्प्रचार के चलते इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया गया. जबकि ये हमला जैशे मोहम्मद ने किया था लश्कर ने नहीं. हम लश्कर के लिए पैसा इकट्ठा करते थे और उनके लिए प्रचार का काम देखते थे. क्या आपने उन्हें हथियार भी दिए?हमने उन्हें जो पैसा दिया था उससे उन्होंने हथियार ही खरीदे होंगे. उन्होंने इस पैसे का इस्तेमाल भारतीय सेना के लिए फूल खरीदने के लिए तो नहीं किया होगा.दिल्ली में लाल किले और श्रीनगर के हवाई अड्डे पर हुए हमले की जिम्मेदारी लश्कर ने ली थी.हम कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं मानते. ये पाकिस्तान का हिस्सा है. सुरक्षा बलों पर हमला करने वाले आतंकवादी नहीं बल्कि आजादी के सिपाही हैं.राष्ट्रपति मुशर्रफ ने कश्मीर पर अपने रुख से हटते हुए कश्मीर की आजादी या विलय के बजाय संयुक्त नियंत्रण की बात कही थी.उनकी कोई वैधता नहीं थी. उनका एसी पेशकश करने का कोई मतलब नहीं था.क्या आप भारत को दुश्मन मानते हैं?यकीनन. इस्लामाबाद के मैरिएट होटल और पेशोह्लर में हुए धमाके के लिए भारत जिम्मेदार है. सरबजीत सिंह को रा का एजेंट होने का दोषी पाया गया है. आपके आमिर, हाफिज सईद ने जेहाद का नारा दिया है.हम कश्मीर में आजादी के आंदोलन का समर्थन करते हैं. हमारी नजर में ये गलत नहीं. उन्हें आतंकवादी कहना बेतुकी बात है. भारत को कांटा भी चुभता है तो दुनिया खड़ी हो जाती है. कोडोंलीजा राइस ने गुजरात नरसंहार के बाद नरंद्र मोदी को सौंपने के लिए भारत पर दबाव क्यों नहीं बनाया?कश्मीर में विदेशी तत्व भी तो सक्रिय हैं. मौलाना मसूद अजहर जैसे विदेशी लड़ाकों को अनंतनाग से गिरफ्तार किया गया. वे पत्रकार थे और आज भी एक प्रेरणादायी लेखक हैं. यहां से कोई भी कश्मीर जा सकता है. हम इसे भारत के हिस्से के तौर पर नहीं देखते. क्या मुझे यहां लाने से पहले आपने इस जगह की ‘सफाई’ कर दी है?ये एक शैक्षणिक परिसर है और जमात-उद-दावा एक धर्मार्थ संस्था है. अगर आप यहां कम लोगों को देखकर ये बात कह रही हैं तो आपको बता दें कि एसा ईद की छुट्टी की वजह से है.क्या आईएसआई आपका समर्थन करती है?जवाब में मुंतजिर बस हंस देते हैं
जमात-उद-दावा जिस पर अमेरिका ने 2005 में लश्कर का फ्रंट होने के चलते प्रतिबंध लगा दिया था, को आईएसआई का संरक्षण प्राप्त है. और भले ही विदेशों में इस पर प्रतिबंध लग गया हो मगर पाकिस्तान में ये अभी तक निर्बाध रूप से चल रहा था. पूर देश में इसकी कई शाखाएं हैं और आतंकी गतिविधियों के लिए ये जितना कुख्यात है अपने सामाजिक कार्यों के लिए उतना ही विख्यात भी. ये संगठन की बजाय खुद को एक आंदोलन के तौर पर देखता है और ग्रामीण और शहरी इलाकों में इसकी अच्छी-खासी पैठ है. ज्बा आब्जर्वर नामक अखबार का एक संवाददाता भारतीय सीमा के पास बसे कसाब के गांव में गया तो लोगों ने उसे बताया कि कठमुल्ला इस इलाके के नौजवानों को जिहाद की पट्टी पढ़ा रहे हैं. लोगों का ये भी कहना था कि लश्कर के संस्थापक हाफिज सईद ने पास के ही एक कस्बे दीपलपुर का दौरा किया था. इस कस्बे में भी लश्कर का एक दफ्तर था मगर पिछले कुछ दिनों से इसे बंद कर दिया गया है. दीपलपुर और फरीदकोट में लश्कर का अखबार और दूसरी पत्रिकाएं नियमित रूप से बांटे जाते हैं.
जमात-उद-दावा की गतिविधियों का दायरा काफी व्यापक है. पाकिस्तान के अलग-अलग शहरों और कस्बों में ये संगठन 140 स्कूल और इस्लामी तालीम के 29 केंद्र चलाता है. जमात की वेबसाइट कहती है, ‘इस्लाम का मतलब सिर्फ नमाज पढ़ना, रोजे रखना, हज करना या जकात देना नहीं है बल्कि ये जीवन की एक संपूर्ण व्यवस्था है. यही वजह है कि जमात का संघर्ष जीवन के किसी एक पहूल तक सीमित नहीं है. बजाय इसके ये संगठन जीवन के हर पहूल को संबोधित करता है. जमात-उद-दावा एक आंदोलन है जिसका मकसद इस्लाम की सही शिक्षाओं का प्रसार करना और लोगों का चरित्र निर्माण कर एक शांतिपूर्ण समाज की स्थापना करना है.
इस संगठन का प्रभाव पढ़े-लिखे तबके में भी है. इसका अंदाजा यहां 2005 में आए भयानक भूकंप के बाद पाक अधिकृत कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद में बड़ी तादाद में इकट्ठा हुए डॉक्टरों से लगाया जा सकता है. तालिबान के उलट जमात का ढांचा फिलिस्तीनी आतंकी संगठन हमास से मिलता-जुलता है. यानी ये सिर्फ बंदूकधारियों की फौज नहीं बल्कि एक जटिल और सूक्ष्मता से बुना गया संगठन है जिसका अपना सामाजिक और राजनीतिक एजेंडा है. इसके अनुयायियों की तादाद अच्छी खासी है और बताया जाता है कि इसकी सालाना बैठक में, जिसमें हाफिज सईद जेहाद का आह्वान करता है, मुरीदके का विशाल मैदान करीब एक लाख लोगों की भीड़ से खचाखच भरा होता है.
जमात और जैशे मोहम्मद - जिसे कंधार में छोड़े जाने के बाद मौलाना मसूद अज्हार ने बनाया था - जैसे ये संगठन ही आज भारत और शायद पाकिस्तान के लिए भी सबसे बड़ा सरदर्द बन गए हैं.
9/11 के बाद पूरी तरह से यू टर्न लेते हुए जिस तरह जनरल मुशर्रफ ने जार्ज बुश को अपना समर्थन दे दिया उसने पाकिस्तान को एक एसी राह पर डाल दिया जिस पर चलते हुए ये मुल्क आज एक बेहद खतरनाक मुकाम पर पहुंच गया है. आतंक के खिलाफ बुश की इस लड़ाई में मुशर्रफ बुश के साथ और अपने लोगों से दूर हो गए. ये वही लोग थे जो बाद में सड़कों पर निकल आए और जिन्होंने मुशर्रफ की अमेरिकापस्ती का खुलकर विरोध किया. ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ 2007 में हुआ लाल मस्जिद ऑपरेशन जिसमें इस्लामाबाद की इस जानी-मानी मस्जिद पर पाकिस्तान की सेना ने ही गोलियां बरसाईं. मस्जिद में फंसे बेगुनाह लोगों पर मशीनगनें चलाए जाने की खबरों ने सेना और आईएसआई तक कइयों को झकझोर कर रख दिया. आईएसआई के पूर्व मुखिया असद दुर्रानी कहते हैं, ‘मस्जिद आईएसआई मुख्यालय की नाक के नीचे थी. एसा नहीं हो सकता कि आप पहले इसे एक किले में तब्दील होते देखते रहें और फिर आत्मसमर्पण के लिए तैयार लोगों पर गोलीबारी करें.’
लाल मस्जिद पर कार्रवाई कई मायनों में हद पार करने जैसी बात थी. अगर मसूद अजहर की रिहाई और उसके बाद जैशे मोहम्मद की स्थापना से कश्मीर में फिदायीन हमलों की शुरुआत हुई थी तो लाल मस्जिद में चले ऑपरेशन के बाद पाकिस्तान में आत्मघाती हमलों की बरसात होने लगी. इन हमलों का निशाना सिर्फ आम नागरिक नहीं बल्कि वर्दीधारी और बड़े लोग भी बन रहे थे. तथ्यों से पता चलता है कि 2007 की शुरुआत से तीन जुलाई की तारीख तक पाकिस्तान में 12 आत्मघाती हमले हुए जिनमें 75 लोगों ने जान गंवाई. मगर लाल मस्जिद में कार्रवाई के बाद तीन जुलाई से लेकर दिसंबर तक ऐसे 44 हमले हुए और इनमें साढ़े पांच सौ से ज्यादा पाकिस्तानी नागरिक मारे गए. इनमें ज्यादातर सेना और अर्धसैनिक बलों के लोग थे. दिसंबर में पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या से साफ हो गया कि आतंकवादियों ने अपने पूर्व आकाओं के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी है. इस्लामाबाद के हाईप्रोफाइल मैरिएट होटल पर हमले से भी इस बात की पुष्टि हुई कि आतंक अब अपनी मर्जी से किसी भी वक्त और किसी भी ज्गाह हमला बोल सकता है. इससे ये भी साबित हुआ कि आतंक अब सिर्फ पाकिस्तान के कबायली इलाकों तक ही सीमित नहीं है. यहां तक कि राष्ट्रपति मुशर्रफ पर भी तीन जानलेवा हमले हुए और इन दिनों वे बेहद कड़ी सुरक्षा के साए में रह रहे हैं. पाकिस्तान में आतंक का खौफ किस कदर है ये इस बात से भलीभांति समझा जा सकता है कि राष्ट्रपति आसिफ अली ज्रादारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने नौ दिसंबर को ईद के मौके पर अपने घर में ही नमाज पढ़ी. गौरतलब है कि एसा पाकिस्तान में पहली बार हुआ था.
पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आत्मघाती हमलों की लहर अल कायदा और तालिबान के फिर से बढ़ते प्रभाव की तरफ साफ इशारा करती है. जेहादी नेटवर्क पर कई किताबें लिखने वाले अहमद राशिद कहते हैं, ‘फ्रंटियर पर सेना इन तत्वों के साथ लड़ाई में उलझी हुई है और देश के एक-तिहाई हिस्से पर तो सरकार का नियंत्रण ही नहीं है. भारत के साथ लड़ाई का ये सही समय कतई नहीं है.’
मुंबई हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनोह्ल और दुश्मनी का बढ़ना एक अन्य खतरनाक दरार की तरफ इशारा करता है. आतंक के खिलाफ युद्ध में भले ही पाकिस्तान की सेना अमेरिका के साथ हो गई थी मगर इसने भारत के साथ लगती सीमा पर सक्रिय जेहादी नेटवर्क को समर्थन देना भी पूरी तरह से छोड़ा नहीं. लश्कर और ज्शौ पर प्रतिबंध लगने के बाद उनके बैंक अकाउंट फ्रीज नहीं किए गए न ही उनकी दूसरी गतिविधियों को ज्बारन बंद करने की कोई कोशिश हुई. सेना और आईएसआई ने जमात-उद-दावा जैसे संगठनों को समर्थन देना जारी रखा जो आतंकियों को सिर्फ हथियार देने का काम ही नहीं करते थे बल्कि लोगों के दिमाग में धर्मांधता का घोल भी भरते थे. जैसा कि राशिद कहते हैं, ‘पश्चिमी देशों को दिखाने के लिए भले ही मुशर्रफ हाफिज सईद और मसूद अजहर को नजरबंद कर देते थे मगर उनकी गतिविधियां बदस्तूर जारी रहीं.’ पूर्व आंतरिक सचिव तसनीम नूरानी इससे सहमति जताती हुई कहती हैं, ‘कट्टरपंथी तत्वो पर लगाम लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई.’ फरीदकोट के एक सुदूर गांव से मुंबई तक कसाब की यात्रा इसका उदाहरण है. और उसका ये इकबालिया बयान भी कि उसे किसी मेजर ने ट्रेनिंग दी थी.
राशिद कहते हैं, ‘आईएसआई के रिटायर्ड अफसर पाकिस्तानी तालिबान की मदद कर रहे हैं और ये लश्कर से ज्यादा खतरनाक हो गए हैं.’कई रणनीतिक विश्लेषक इस बात की पुष्टि करंगे कि आईएसआई के पूर्व अधिकारी अब भी काम कर रहे हैं और ये काम है लश्कर और जैश जैसे आतंकी संगठनों को परामर्श देने का. नाम न बताने की शर्त पर एसे ही एक विश्लेषक कहते हैं, ‘आपको बड़े-बड़े ट्रेनिंग ग्राउंड्स कीजरूरत ही नहीं है. रिटायर्ड अधिकारी अपने घरों के अहाते में ही हथियारों की ट्रेनिंग दे रहे हैं. अलग-अलग अधिकारी अलग-अलग संगठनों के साथ जुड़े हुए हैं.’
लश्कर-ए-तोएबा, मरकज-ए-तोएबा, जमात-उद-दावा..सिर्फ नाम का बदल जाना बताता है कि भारत के खिलाफ इस्तेमाल किए जा रहे रहे आतंकी संगठनों को व्यवस्था (यहां व्यवस्था का मतलब आईएसआई और सेना से है) का वरदहस्त मिला हुआ है. लंबे समय से व्यवस्था और भारत के खिलाफ जंग छेड़ने वाले आतंकियों के बीच बने इस संबंध पर अब दबाव बन गया है. मुंबई हमले के बाद अमेरिका का पाक को सीधा संदेश ये है कि इन संगठनों पर लगाम लगाई जाए. इससे न सिर्फ सेना द्वारा सावधानी के साथ आतंकी तत्वों को दिए जा रहे समर्थन की परीक्षा हो रही है बल्कि इसने एक और दरार पर भी दुनिया का ध्यान केंद्रित कर दिया है. ये है व्यवस्था और लोकतांत्रिक सरकार के बीच का समीकरण.
मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के शीर्ष लोकप्रतिनिधियों की फौरी प्रतिक्रिया काफी सकारात्मक रही थी.मगर बाद में वे यू टर्न लेते चले गए. ये असल में पाकिस्तान में वर्चस्व के लिए सेना-आईएसआई और लोकतांत्रिक नेतृत्व की अंदरूनी लड़ाई के बारे में काफी-कुछ कह देता है. खासकर राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों के संदर्भ में जिनके बारे में फैसले लेना सेना अपना ज्न्मासिद्ध अधिकार समझती है.
ऐसे में सवाल पैदा होता है कि दरअसल पाकिस्तान को कौन चला रहा है? कमान आखिर किसके हाथ में है?
जवाब आसान भी है और जटिल भी.फॉरेन अफेयर्स कमेटी ‘इन द सीनेट’ के चेयरमैन मुशाहिद हुसैन इसे लेकर किसी तरह के भ्रम में नहीं हैं, ‘आतंक के खिलाफ युद्ध, राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत, अफगानिस्तान और चीन के साथ संबंध सेना का अधिकार क्षेत्र है. भारत की वजह से सेना एक बार फिर सक्रिय हो गई है और हर तरफ युद्ध का बिगुल बज रहा है. पाकिस्तान को कोई एक व्यक्ति या संस्था नहीं चला रही. मुशर्रफ के समय कमान सिर्फ उनके हाथ में थी और सेना और आईएसआई उन्हें रिपोर्ट किया करती थी, मगर अब फैसले लेने की प्रक्रिया काफी अस्पष्ट है और इसकी वजह से असमंजस के हालात पैदा हो रहे हैं. फर्जी फोन कॉल और डीजी आईएसआई प्रकरण इसके लक्षण हैं.’
उदाहरण दूसरे भी हैं. कुछ ही महीने पहले जरदारी ने आईएसआई को आंतरिक मंत्रालय के तहत लाने की कोशिश की थी मगर फौरन ही उन्हें यू टर्न लेना पड़ा. मुंबई हमले के बाद के परिदृश्य पर भी गौर करं तो पाकिस्तान सरकार की प्रतिक्रिया में व्यवस्था(सेना और आईएसआई) की छाप साफ दिखती है. इसीलिए कहा जाता है कि भारत पहले ठोस सबूत पेश करे, इसीलिए जरदारी बयान देते हैं कि दोषी - अगर पाए गए तो - पाकिस्तानी जमीन पर कानून का सामना करंगे. और ये भी कि मोस्ट वांटेड लोग भारत को नहीं सौंपे जाएंगे. यहां तक कि स्थानीय अखबारों में सूत्रों के हवाले से छपी मसूद अजहर की नजरबंदी की खबरों के बावजूद प्रधानमंत्री गिलानी बयान देते हैं कि उन्हें इस तरह की खबरों की कोई जानकारी नहीं है.
अगर भारत को लगता है कि पाकिस्तान की प्रतिक्रिया लचर रही है तो ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां की सरकार के हाथ व्यवस्था और अपने ही लोगों से पड़ रहे दबाव ने बांध रखे हैं. यही वजह है कि इस पर भारत और अमेरिका से पड़ रहे दबाव का आसानी से असर पड़ता नहीं दीख रहा.
हालांकि कुछ फैसले तय लग रहे थे जैसे कि जमात-उद-दावा पर प्रतिबंध. मगर समस्या ये है कि लश्कर और जैश पर भी अतीत में प्रतिबंध लग चुका है मगर हालत वही ढाक के तीन पात जैसी रही. प्रधानमंत्री गिलानी ने वादा तो किया है कि पाकिस्तानी जमीन को आतंकी हमलों की तैयारी के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा मगर ऐसा ही वादा सात साल पहले भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद मुशर्रफ ने भी किया था.
अगर पाकिस्तान की छवि आतंक का घर वाली बन गई है तो इसकी वजह ये है कि सेना और आईएसआई अब भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं. सिर्फ भारत को लेकर ही नहीं बल्कि उन आतंकी तत्वों को लेकर भी जिन्हें वे पैदा कर रहे हैं और संरक्षण दे रहे हैं. जब तक इसमें बदलाव नहीं आता तब तक मुरीदके का विशाल परिसर अपना काम जारी रखेगा. आखिर प्रतिबंध लगने के बाद जमात-उद-दावा को सिर्फ नाम बदलने की जरूरत भर ही तो है.आगे पढ़ें के आगे यहाँ
आप एक शैक्षणिक परिसर में हैं. मगर आप भारत से हैं और तहलका के लिए काम करती हैं तो आपको अपना नजरिया बदलने में कुछ वक्त लगेगा.
हिन्दुस्तान का दर्द आपके सामने ला रहा है एक खुफिया सच जो देश के सत्ताधारी तो जानते है लेकिन वह जनता को बताना नहीं चाहते की जनता किस बारूद के ढेर पर बैठी है,तो हम बताएँगे की आखिर सच क्या है अगर आपको ये लेख पसंद आया हो तो अपनी राय जरुर दें !!!
मैं अभी मुरीदके - जिसे सारी दुनिया लश्कर-ए-तोइबा का मुख्यालय मानती है - पहुंची ही थी कि ये बात अब्दुल्ला मुंतजिर (मेर गाइड और विदेशी मीडिया के प्रवक्ता) ने मुझसे कही. शायद ऐसा पहली बार था जब किसी भी भारतीय पत्रकार को लाहौर से 40 किलोमीटर दूर स्थित इस विशाल परिसर में घुसने की इजाजत दी गई थी. इस कांप्लेक्स के बाहर लगे बैरीकेड पर कड़ा पहरा रहता है और पहले से इजाजत लिए बगैर कोई भी इसके भीतर नहीं घुस सकता.
भीतर जाने पर मुझे 60 बिस्तरों वाला एक साफ-सुथरा अस्पताल, लड़कों और लड़कियों के लिए बने स्कूल, एक मदरसा, एक मस्जिद, एक विशाल स्विमिंग पूल और एक गेस्ट हाउस दिखाया जाता है. ऊंचे-ऊंचे पेड़ों और कांटेदार तारों से घिरे 75 एकड़ के इस परिसर में करीने से बनाए गए मखमली घास के मैदान, शलजम के खेत और मछली प्रजनन केंद्र है. स्कूल में पंजीकरण करवाने वाले छात्रों को फीस देनी होती है जबकि मदरसे में तालीम पाने वाले बच्चों के लिए इसकी कोई बाध्यता नहीं है. अंग्रेजी और अरबी सीखना अनिवार्य है और कंप्यूटर कोर्स भी पढ़ाई का एक अभिन्न हिस्सा है.
‘लश्कर-ए-तोएबा के मुख्यालय में आपका स्वागत है. क्या आपको लगता है कि किसी आतंकी संगठन का ऑफिस ग्रांड ट्रंक रोड जैसी मुख्य सड़क के किनार स्थित होगा?’ मुंतजिर मेरी तरफ दूसरा सवाल दागते हैं. साफ महसूस किया जा सकता है कि इस कांप्लेक्स को चलाने वाला संगठन यानी मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार माना जा रहा लश्कर की राजनीतिक इकाई जमात-उद-दावा, लश्कर से खुद को अलग करने के लिए भरसक प्रयास कर रहा है. मेरे आने से कुछ दिन पहले कुछ दूसरे विदेशी पत्रकारों को भी इस कांप्लेक्स के दौर यानी गाइडेड टुअर पर लाया था. पहले से तय इस दौरे में पत्रकारों ने कैमिस्ट्री और फिजिक्स की प्रयोगशालाओं में काम करते छात्र देखे जो तरह-तरह के वैज्ञानिक प्रयोगों में व्यस्त थे.
मुंबई काण्ड ने जिस तरह से देश को दहला दिया वह बेहद खतरनाक मंजर था लेकिन अब इसके बाद भी क्या हिन्दुस्तान सतर्क हो चुका है! और क्या पकिस्तान यही पर रुकने वाला है नहीं अभी इस खून की खुनी दास्ताँ बांकी है !!!
वैसे तो मैं भी ये सोचकर वहां नहीं गई थी कि इस ज्गाह पर बंदूकें चलाने का प्रशिक्षण लेते लश्कर के आतंकी देखने को मिलेंगे. मगर फिर भी ये दौरा अपने आप में आंखें खोलने वाला कहा जा सकता है. क्योंकि जब आप करीने से संवारे गए लॉन से होकर गुज्राते हुए अपने दाएं या बाएं आने वाले किसी हॉस्टल, मस्जिद या अस्पताल को देखने के लिए मुड़ते हैं तो इस दौरान हो रही बातचीत में अक्सर दहशतगर्दी, लश्कर और (मेर मामले में) कश्मीर जैसे शब्दों की भरमार सुनने को मिलती है. हालांकि मुरीदके पर लश्कर के ट्रेनिंग कैंप होने का ठप्पा हटाने के लिए पाकिस्तान की सुरक्षा एजेंसियों से हरी झंडी मिलने के बाद इस परिसर के दरवाजे तो खोल दिए गए हैं मगर यहां हो रही बातचीत में कहीं से भी स्कूल सिलेबस की झलक तक नहीं मिलती. ये पूरी तरह से इस बात पर केंद्रित होती है कि किस तरह से भारत एक दुश्मन देश है.
मुरीदके का दौरा करने के एक दिन बाद मैं एक परिवार से मिली जिसके एक रिश्तेदार का घर इस परिसर के बिल्कुल पड़ोस में ही है. इस परिवार के सदस्यों के मुताबिक ये ज्गाह एक ट्रेनिंग ग्राउंड है. यहां लाउडस्पीकर पर तेज आवाज में गूंजते जेहाद के नारे सुने जा सकते हैं और कभी-कभी फायरिंग की आवाज भी. कुध मैंने भी जो दो घंटे इस परिसर में बिताए उनमें भी जेहाद से संबंधित बातचीत कई बार सुनी जा सकती थी.
जांच अधिकारियों की मानें तो मुंबई हमले में जिंदा पकड़े गए अकेले आतंकेह्लादी कसाब ने यहीं पर पढ़ाई की थी. मैं मुंतजिर से सीधे-सीधे सवाल पूछती हूं.
तो क्या कसाब ने यहां पढ़ाई की. मुरीदके में?अगर उसने की भी है तो हम इस बात के लिए जिम्मेदार नहीं है कि कोई छात्र यहां से जाने के बाद क्या करता है.क्या आप लश्कर-ए-तोएबा का समर्थन करते हैं?हम किया करते थे.आप किया करते थे?हां, हमारी सोच एक थी मगर भारतीय संसद पर हमले के बाद भारतीय दुष्प्रचार के चलते इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया गया. जबकि ये हमला जैशे मोहम्मद ने किया था लश्कर ने नहीं. हम लश्कर के लिए पैसा इकट्ठा करते थे और उनके लिए प्रचार का काम देखते थे. क्या आपने उन्हें हथियार भी दिए?हमने उन्हें जो पैसा दिया था उससे उन्होंने हथियार ही खरीदे होंगे. उन्होंने इस पैसे का इस्तेमाल भारतीय सेना के लिए फूल खरीदने के लिए तो नहीं किया होगा.दिल्ली में लाल किले और श्रीनगर के हवाई अड्डे पर हुए हमले की जिम्मेदारी लश्कर ने ली थी.हम कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं मानते. ये पाकिस्तान का हिस्सा है. सुरक्षा बलों पर हमला करने वाले आतंकवादी नहीं बल्कि आजादी के सिपाही हैं.राष्ट्रपति मुशर्रफ ने कश्मीर पर अपने रुख से हटते हुए कश्मीर की आजादी या विलय के बजाय संयुक्त नियंत्रण की बात कही थी.उनकी कोई वैधता नहीं थी. उनका एसी पेशकश करने का कोई मतलब नहीं था.क्या आप भारत को दुश्मन मानते हैं?यकीनन. इस्लामाबाद के मैरिएट होटल और पेशोह्लर में हुए धमाके के लिए भारत जिम्मेदार है. सरबजीत सिंह को रा का एजेंट होने का दोषी पाया गया है. आपके आमिर, हाफिज सईद ने जेहाद का नारा दिया है.हम कश्मीर में आजादी के आंदोलन का समर्थन करते हैं. हमारी नजर में ये गलत नहीं. उन्हें आतंकवादी कहना बेतुकी बात है. भारत को कांटा भी चुभता है तो दुनिया खड़ी हो जाती है. कोडोंलीजा राइस ने गुजरात नरसंहार के बाद नरंद्र मोदी को सौंपने के लिए भारत पर दबाव क्यों नहीं बनाया?कश्मीर में विदेशी तत्व भी तो सक्रिय हैं. मौलाना मसूद अजहर जैसे विदेशी लड़ाकों को अनंतनाग से गिरफ्तार किया गया. वे पत्रकार थे और आज भी एक प्रेरणादायी लेखक हैं. यहां से कोई भी कश्मीर जा सकता है. हम इसे भारत के हिस्से के तौर पर नहीं देखते. क्या मुझे यहां लाने से पहले आपने इस जगह की ‘सफाई’ कर दी है?ये एक शैक्षणिक परिसर है और जमात-उद-दावा एक धर्मार्थ संस्था है. अगर आप यहां कम लोगों को देखकर ये बात कह रही हैं तो आपको बता दें कि एसा ईद की छुट्टी की वजह से है.क्या आईएसआई आपका समर्थन करती है?जवाब में मुंतजिर बस हंस देते हैं
जमात-उद-दावा जिस पर अमेरिका ने 2005 में लश्कर का फ्रंट होने के चलते प्रतिबंध लगा दिया था, को आईएसआई का संरक्षण प्राप्त है. और भले ही विदेशों में इस पर प्रतिबंध लग गया हो मगर पाकिस्तान में ये अभी तक निर्बाध रूप से चल रहा था. पूर देश में इसकी कई शाखाएं हैं और आतंकी गतिविधियों के लिए ये जितना कुख्यात है अपने सामाजिक कार्यों के लिए उतना ही विख्यात भी. ये संगठन की बजाय खुद को एक आंदोलन के तौर पर देखता है और ग्रामीण और शहरी इलाकों में इसकी अच्छी-खासी पैठ है. ज्बा आब्जर्वर नामक अखबार का एक संवाददाता भारतीय सीमा के पास बसे कसाब के गांव में गया तो लोगों ने उसे बताया कि कठमुल्ला इस इलाके के नौजवानों को जिहाद की पट्टी पढ़ा रहे हैं. लोगों का ये भी कहना था कि लश्कर के संस्थापक हाफिज सईद ने पास के ही एक कस्बे दीपलपुर का दौरा किया था. इस कस्बे में भी लश्कर का एक दफ्तर था मगर पिछले कुछ दिनों से इसे बंद कर दिया गया है. दीपलपुर और फरीदकोट में लश्कर का अखबार और दूसरी पत्रिकाएं नियमित रूप से बांटे जाते हैं.
जमात-उद-दावा की गतिविधियों का दायरा काफी व्यापक है. पाकिस्तान के अलग-अलग शहरों और कस्बों में ये संगठन 140 स्कूल और इस्लामी तालीम के 29 केंद्र चलाता है. जमात की वेबसाइट कहती है, ‘इस्लाम का मतलब सिर्फ नमाज पढ़ना, रोजे रखना, हज करना या जकात देना नहीं है बल्कि ये जीवन की एक संपूर्ण व्यवस्था है. यही वजह है कि जमात का संघर्ष जीवन के किसी एक पहूल तक सीमित नहीं है. बजाय इसके ये संगठन जीवन के हर पहूल को संबोधित करता है. जमात-उद-दावा एक आंदोलन है जिसका मकसद इस्लाम की सही शिक्षाओं का प्रसार करना और लोगों का चरित्र निर्माण कर एक शांतिपूर्ण समाज की स्थापना करना है.
इस संगठन का प्रभाव पढ़े-लिखे तबके में भी है. इसका अंदाजा यहां 2005 में आए भयानक भूकंप के बाद पाक अधिकृत कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद में बड़ी तादाद में इकट्ठा हुए डॉक्टरों से लगाया जा सकता है. तालिबान के उलट जमात का ढांचा फिलिस्तीनी आतंकी संगठन हमास से मिलता-जुलता है. यानी ये सिर्फ बंदूकधारियों की फौज नहीं बल्कि एक जटिल और सूक्ष्मता से बुना गया संगठन है जिसका अपना सामाजिक और राजनीतिक एजेंडा है. इसके अनुयायियों की तादाद अच्छी खासी है और बताया जाता है कि इसकी सालाना बैठक में, जिसमें हाफिज सईद जेहाद का आह्वान करता है, मुरीदके का विशाल मैदान करीब एक लाख लोगों की भीड़ से खचाखच भरा होता है.
जमात और जैशे मोहम्मद - जिसे कंधार में छोड़े जाने के बाद मौलाना मसूद अज्हार ने बनाया था - जैसे ये संगठन ही आज भारत और शायद पाकिस्तान के लिए भी सबसे बड़ा सरदर्द बन गए हैं.
9/11 के बाद पूरी तरह से यू टर्न लेते हुए जिस तरह जनरल मुशर्रफ ने जार्ज बुश को अपना समर्थन दे दिया उसने पाकिस्तान को एक एसी राह पर डाल दिया जिस पर चलते हुए ये मुल्क आज एक बेहद खतरनाक मुकाम पर पहुंच गया है. आतंक के खिलाफ बुश की इस लड़ाई में मुशर्रफ बुश के साथ और अपने लोगों से दूर हो गए. ये वही लोग थे जो बाद में सड़कों पर निकल आए और जिन्होंने मुशर्रफ की अमेरिकापस्ती का खुलकर विरोध किया. ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ 2007 में हुआ लाल मस्जिद ऑपरेशन जिसमें इस्लामाबाद की इस जानी-मानी मस्जिद पर पाकिस्तान की सेना ने ही गोलियां बरसाईं. मस्जिद में फंसे बेगुनाह लोगों पर मशीनगनें चलाए जाने की खबरों ने सेना और आईएसआई तक कइयों को झकझोर कर रख दिया. आईएसआई के पूर्व मुखिया असद दुर्रानी कहते हैं, ‘मस्जिद आईएसआई मुख्यालय की नाक के नीचे थी. एसा नहीं हो सकता कि आप पहले इसे एक किले में तब्दील होते देखते रहें और फिर आत्मसमर्पण के लिए तैयार लोगों पर गोलीबारी करें.’
लाल मस्जिद पर कार्रवाई कई मायनों में हद पार करने जैसी बात थी. अगर मसूद अजहर की रिहाई और उसके बाद जैशे मोहम्मद की स्थापना से कश्मीर में फिदायीन हमलों की शुरुआत हुई थी तो लाल मस्जिद में चले ऑपरेशन के बाद पाकिस्तान में आत्मघाती हमलों की बरसात होने लगी. इन हमलों का निशाना सिर्फ आम नागरिक नहीं बल्कि वर्दीधारी और बड़े लोग भी बन रहे थे. तथ्यों से पता चलता है कि 2007 की शुरुआत से तीन जुलाई की तारीख तक पाकिस्तान में 12 आत्मघाती हमले हुए जिनमें 75 लोगों ने जान गंवाई. मगर लाल मस्जिद में कार्रवाई के बाद तीन जुलाई से लेकर दिसंबर तक ऐसे 44 हमले हुए और इनमें साढ़े पांच सौ से ज्यादा पाकिस्तानी नागरिक मारे गए. इनमें ज्यादातर सेना और अर्धसैनिक बलों के लोग थे. दिसंबर में पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या से साफ हो गया कि आतंकवादियों ने अपने पूर्व आकाओं के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी है. इस्लामाबाद के हाईप्रोफाइल मैरिएट होटल पर हमले से भी इस बात की पुष्टि हुई कि आतंक अब अपनी मर्जी से किसी भी वक्त और किसी भी ज्गाह हमला बोल सकता है. इससे ये भी साबित हुआ कि आतंक अब सिर्फ पाकिस्तान के कबायली इलाकों तक ही सीमित नहीं है. यहां तक कि राष्ट्रपति मुशर्रफ पर भी तीन जानलेवा हमले हुए और इन दिनों वे बेहद कड़ी सुरक्षा के साए में रह रहे हैं. पाकिस्तान में आतंक का खौफ किस कदर है ये इस बात से भलीभांति समझा जा सकता है कि राष्ट्रपति आसिफ अली ज्रादारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने नौ दिसंबर को ईद के मौके पर अपने घर में ही नमाज पढ़ी. गौरतलब है कि एसा पाकिस्तान में पहली बार हुआ था.
पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आत्मघाती हमलों की लहर अल कायदा और तालिबान के फिर से बढ़ते प्रभाव की तरफ साफ इशारा करती है. जेहादी नेटवर्क पर कई किताबें लिखने वाले अहमद राशिद कहते हैं, ‘फ्रंटियर पर सेना इन तत्वों के साथ लड़ाई में उलझी हुई है और देश के एक-तिहाई हिस्से पर तो सरकार का नियंत्रण ही नहीं है. भारत के साथ लड़ाई का ये सही समय कतई नहीं है.’
मुंबई हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनोह्ल और दुश्मनी का बढ़ना एक अन्य खतरनाक दरार की तरफ इशारा करता है. आतंक के खिलाफ युद्ध में भले ही पाकिस्तान की सेना अमेरिका के साथ हो गई थी मगर इसने भारत के साथ लगती सीमा पर सक्रिय जेहादी नेटवर्क को समर्थन देना भी पूरी तरह से छोड़ा नहीं. लश्कर और ज्शौ पर प्रतिबंध लगने के बाद उनके बैंक अकाउंट फ्रीज नहीं किए गए न ही उनकी दूसरी गतिविधियों को ज्बारन बंद करने की कोई कोशिश हुई. सेना और आईएसआई ने जमात-उद-दावा जैसे संगठनों को समर्थन देना जारी रखा जो आतंकियों को सिर्फ हथियार देने का काम ही नहीं करते थे बल्कि लोगों के दिमाग में धर्मांधता का घोल भी भरते थे. जैसा कि राशिद कहते हैं, ‘पश्चिमी देशों को दिखाने के लिए भले ही मुशर्रफ हाफिज सईद और मसूद अजहर को नजरबंद कर देते थे मगर उनकी गतिविधियां बदस्तूर जारी रहीं.’ पूर्व आंतरिक सचिव तसनीम नूरानी इससे सहमति जताती हुई कहती हैं, ‘कट्टरपंथी तत्वो पर लगाम लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई.’ फरीदकोट के एक सुदूर गांव से मुंबई तक कसाब की यात्रा इसका उदाहरण है. और उसका ये इकबालिया बयान भी कि उसे किसी मेजर ने ट्रेनिंग दी थी.
राशिद कहते हैं, ‘आईएसआई के रिटायर्ड अफसर पाकिस्तानी तालिबान की मदद कर रहे हैं और ये लश्कर से ज्यादा खतरनाक हो गए हैं.’कई रणनीतिक विश्लेषक इस बात की पुष्टि करंगे कि आईएसआई के पूर्व अधिकारी अब भी काम कर रहे हैं और ये काम है लश्कर और जैश जैसे आतंकी संगठनों को परामर्श देने का. नाम न बताने की शर्त पर एसे ही एक विश्लेषक कहते हैं, ‘आपको बड़े-बड़े ट्रेनिंग ग्राउंड्स कीजरूरत ही नहीं है. रिटायर्ड अधिकारी अपने घरों के अहाते में ही हथियारों की ट्रेनिंग दे रहे हैं. अलग-अलग अधिकारी अलग-अलग संगठनों के साथ जुड़े हुए हैं.’
लश्कर-ए-तोएबा, मरकज-ए-तोएबा, जमात-उद-दावा..सिर्फ नाम का बदल जाना बताता है कि भारत के खिलाफ इस्तेमाल किए जा रहे रहे आतंकी संगठनों को व्यवस्था (यहां व्यवस्था का मतलब आईएसआई और सेना से है) का वरदहस्त मिला हुआ है. लंबे समय से व्यवस्था और भारत के खिलाफ जंग छेड़ने वाले आतंकियों के बीच बने इस संबंध पर अब दबाव बन गया है. मुंबई हमले के बाद अमेरिका का पाक को सीधा संदेश ये है कि इन संगठनों पर लगाम लगाई जाए. इससे न सिर्फ सेना द्वारा सावधानी के साथ आतंकी तत्वों को दिए जा रहे समर्थन की परीक्षा हो रही है बल्कि इसने एक और दरार पर भी दुनिया का ध्यान केंद्रित कर दिया है. ये है व्यवस्था और लोकतांत्रिक सरकार के बीच का समीकरण.
मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के शीर्ष लोकप्रतिनिधियों की फौरी प्रतिक्रिया काफी सकारात्मक रही थी.मगर बाद में वे यू टर्न लेते चले गए. ये असल में पाकिस्तान में वर्चस्व के लिए सेना-आईएसआई और लोकतांत्रिक नेतृत्व की अंदरूनी लड़ाई के बारे में काफी-कुछ कह देता है. खासकर राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों के संदर्भ में जिनके बारे में फैसले लेना सेना अपना ज्न्मासिद्ध अधिकार समझती है.
ऐसे में सवाल पैदा होता है कि दरअसल पाकिस्तान को कौन चला रहा है? कमान आखिर किसके हाथ में है?
जवाब आसान भी है और जटिल भी.फॉरेन अफेयर्स कमेटी ‘इन द सीनेट’ के चेयरमैन मुशाहिद हुसैन इसे लेकर किसी तरह के भ्रम में नहीं हैं, ‘आतंक के खिलाफ युद्ध, राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत, अफगानिस्तान और चीन के साथ संबंध सेना का अधिकार क्षेत्र है. भारत की वजह से सेना एक बार फिर सक्रिय हो गई है और हर तरफ युद्ध का बिगुल बज रहा है. पाकिस्तान को कोई एक व्यक्ति या संस्था नहीं चला रही. मुशर्रफ के समय कमान सिर्फ उनके हाथ में थी और सेना और आईएसआई उन्हें रिपोर्ट किया करती थी, मगर अब फैसले लेने की प्रक्रिया काफी अस्पष्ट है और इसकी वजह से असमंजस के हालात पैदा हो रहे हैं. फर्जी फोन कॉल और डीजी आईएसआई प्रकरण इसके लक्षण हैं.’
उदाहरण दूसरे भी हैं. कुछ ही महीने पहले जरदारी ने आईएसआई को आंतरिक मंत्रालय के तहत लाने की कोशिश की थी मगर फौरन ही उन्हें यू टर्न लेना पड़ा. मुंबई हमले के बाद के परिदृश्य पर भी गौर करं तो पाकिस्तान सरकार की प्रतिक्रिया में व्यवस्था(सेना और आईएसआई) की छाप साफ दिखती है. इसीलिए कहा जाता है कि भारत पहले ठोस सबूत पेश करे, इसीलिए जरदारी बयान देते हैं कि दोषी - अगर पाए गए तो - पाकिस्तानी जमीन पर कानून का सामना करंगे. और ये भी कि मोस्ट वांटेड लोग भारत को नहीं सौंपे जाएंगे. यहां तक कि स्थानीय अखबारों में सूत्रों के हवाले से छपी मसूद अजहर की नजरबंदी की खबरों के बावजूद प्रधानमंत्री गिलानी बयान देते हैं कि उन्हें इस तरह की खबरों की कोई जानकारी नहीं है.
अगर भारत को लगता है कि पाकिस्तान की प्रतिक्रिया लचर रही है तो ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां की सरकार के हाथ व्यवस्था और अपने ही लोगों से पड़ रहे दबाव ने बांध रखे हैं. यही वजह है कि इस पर भारत और अमेरिका से पड़ रहे दबाव का आसानी से असर पड़ता नहीं दीख रहा.
हालांकि कुछ फैसले तय लग रहे थे जैसे कि जमात-उद-दावा पर प्रतिबंध. मगर समस्या ये है कि लश्कर और जैश पर भी अतीत में प्रतिबंध लग चुका है मगर हालत वही ढाक के तीन पात जैसी रही. प्रधानमंत्री गिलानी ने वादा तो किया है कि पाकिस्तानी जमीन को आतंकी हमलों की तैयारी के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा मगर ऐसा ही वादा सात साल पहले भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद मुशर्रफ ने भी किया था.
अगर पाकिस्तान की छवि आतंक का घर वाली बन गई है तो इसकी वजह ये है कि सेना और आईएसआई अब भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं. सिर्फ भारत को लेकर ही नहीं बल्कि उन आतंकी तत्वों को लेकर भी जिन्हें वे पैदा कर रहे हैं और संरक्षण दे रहे हैं. जब तक इसमें बदलाव नहीं आता तब तक मुरीदके का विशाल परिसर अपना काम जारी रखेगा. आखिर प्रतिबंध लगने के बाद जमात-उद-दावा को सिर्फ नाम बदलने की जरूरत भर ही तो है.आगे पढ़ें के आगे यहाँ
बहुत ही बढ़िया सोनिया जी,
ReplyDeleteऔर हमारे सहयोग के लिए शुक्रिया....सच कहा आपने पकिस्तान की हरकतों से सबक लेने के जगह हिन्दुस्तान समझोता करता नजर आ रहा है!
बहुत महत्वपूर्ण रिपोर्ट है। इसे पोस्ट करने के लिए सोनिया जी को बधाई। - विनय बिहारी सिंह
ReplyDeleteबहुत अच्छा रिपोर्ट सोनिया जी !!!
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने!!