अभी कुछ दिनों पहले एक स्कूल में रिपोर्टिंग के लिए जाने का मौका मिला.बहुत ही भव्य उस स्कूल में बास्केटबाल कोर्ट में टहल रहा था। अचानक देखा तो एक छोटी टेकरी पर बने प्राथनाघर में से नन्हे बच्चे बाहरआ रहे है। एक लाइन में चलते उन सुंदर बच्चो को देखकर मै जैसे अपने उन दिनों मे लौट गया जब मै ख़ुद एक अदद बच्चा हुआ करता था। बचपन के उन्मुक्त सुरक्षित समय को कौन भुला सकता है भला, सुरक्षित इसलिए क्यो कि मंद मंद बयार मे मैदान मे खेलते आपको मंदी का कोई भुत नही सताता। ना ही तितलियों को पकड़ते वक्त मालूम होता है कि हमारे पिता हमारे लिए बाहरी दुनिया से जूझ रहे है। मांगते समय हम ये भी नही देखते कि निर्दयी कैलंडर के सीने पर आखरी तारीख पापा का मुह चिडा रही होती है। बड़े होते जाना और बचपन को खोते जाना हर किसी की तक़दीर का फ़ैसला है। वो सुनहरे पल हमेशा के लिए यादो की किताब के हर्फ़ बन जाते है और हमारी उंगलिया उन्हें तभी टटोलती है जब हम जिन्दगी की किताब के आखरी बचे चंद पन्नो को हलकी होती स्याही से लिख रहे होते है। कभी सोचता हु की क्यो हम जीवन के आखरी दिनों मे बच्चे बन जाते है। किसी को मालूम है क्या.
केहि कारण पान फुलात नही॥? केहि कारण पीपल डोलत पाती॥? केहि कारण गुलर गुप्त फूले ॥? केहि कारण धूल उडावत हाथी॥? मुनि श्राप से पान फुलात नही॥ मुनि वास से पीपल डोलत पाती॥ धन लोभ से गुलर गुप्त फूले ॥ हरी के पग को है ढुधत हाथी..
विपुल भाई सही कहा आपने! वो बचपन की यादें बहुत खूबसूरत होती हैं. अब इसे इत्तेफाक़ कहिये कि मैं इसी हफ्ते अपने गाँव गया था लगभग 10 साल बाद. वहां मैंने अपने बचपन या यों कहें किशोरावस्था के दोस्तों से मुलाक़ात हुई और कुछ ऐसे भी लोगों से जिनको देख कर कुछ कुछ-कुछ होता था, खैर, तो बात थी बचपन की, एक मशहूर ग़ज़ल अर्ज़ है :
ReplyDeleteये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो आगाज़ की कश्ती वो बारिश का पानी
मुहल्ले की सबसे निशानी पुरानी
वो बुढिया जिसे बच्चे कहते थे नानी
वो नानी की बातों में परियों का डेरा
वो चहरे की झुरिर्यों में सदियों का फेरा
भुलाए नहीं भूल सकता है कोई
वो छोटी सी रातें वो लम्बी कहानी
कड़ी धूप में अपने घर से निकलना
वो चिडिया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना
वो गुडिया की शादी में लड़ना झगड़ना
वो झूलों से गिरना वो गिर के संभालना
वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफे
वो टूटी हुई चूडियों की निशानी
कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना
घरौंदे बनाना बनाके मिटाना
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
न दुनिया का गम था न रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी!
बेहद भाबुक लेखन
ReplyDeleteबहुत खूब!!