चिठियो का लिखना बन्द-डाकिया पेट फुला रहे है- लाईफ हो गई झिन्गालाला- ब्लोगियो के फिगर मे इजाफा-बिना डाक-टिकिट, लेटरबॉक्स के चिट्ठे लिखे जा रहे है-
बिचारे कन्नु का तो कैइ बार ईन्टरनेटवा का कनैक्सन ही कट चुका है बिल नही भरने के चक्कर मे-"कॉफी विथ कुस" ठेले पर जाकर बिना शक्कर कि कॉफी पिकर आते है-झोला लटकाये जो खडा है वो कुशभाई है -ज्ञान बॉट रहे है वो ज्ञानदत्तजी पाण्डये है- अपने समीरलालाजी है-हॉ! यह अनुप शुक्ला जी है- भाई! ये अपने आपको हरियाणवी ताऊ कहता है,
भाई लोगो का ऐसा कहना , मेरे अकल को स्क्रीन पर कतई डिसप्ले नही होता कि मुए मोबाईल के आ जाने से चिट्ठियॉ लिखने का चलन चोपट हो गया है। ठीक है कि एस एम एस ने सक्षिप्त सन्देशो की ऐसी हेबिट डाल रखी है कि अब दिल के फेफडे खोलकर कोई अपनी खाली-पिली भन्कस नही करेगा। ताऊजी और शास्त्रीजी याद किजिये आपके समय मे जब भी खतवा लिखा जाता था तब भी तो यह वाला जुमला टॉक दिया जाता था-"थोडे लिखे को ज्यादा समझे।" यह सुत्र वाक्य भी आज एस एम एस का बीज मन्त्र है। कुछ भी चेन्ज नही हुऐला है बस लेटरवा लिखने का स्टाईल के मलिका शैरावत के छोटे होते कपडो के माफीक हो गएला है अपुन के खोपडे मे आज भी "सोस्ती सिरी सर्व उपमा जोग से आगाज करके अत्र कुशलम तत्रास्तु" पर विश्राम लेने वाले पत्रो की लिविग (living) यादे शेष बचेली है।
ताऊ कभी ताई को लव-लेटरवा लिखा कै नही ? अपुन तो आज भी अपनी कुवॉरी घरवाली कि चिट्ठई जिनकी गन्घ आज तक मेरे नथुनो मे बरकरार है इनमे लिखा होता था-"लगता है दाल जल रही है , इसलिये अब लेटर लिख्ना बन्द कर रही हु।" या फिर , आपको लेटरवॉ लिखने बैठी ही थी कि दरवाजे कि घन्टी बज गई, कही डैडी ना आ गये हो?, हाय!कहॉ छुपाऊ ?"
हम सबको एस एम एस नामक भुतनीका का थैन्कफुलवॉ होना मॉगता है, कम से कम इस तरह के सन्शययुक्त जुमलो के जास्ती भन्कस से मगज का दही नही होता। सचार क्रान्ति के जमाने मे बेचारे डाकिया बैठे बैठे अपने पेट फुला रहे है। बैचारो के साईकिल को हवा भरने वाला भी कोई नही मिल रहा है।
भाई, अब तो बुद्धू बक्से (कप्यूटर) घर घर मे पहुच गये है। {ग्रामीण क्षैत्रो को छोड) बुद्धू बक्से के सामने बैठकर अगले कि लाइफ के असख्य घन्टे किस रास्ते से निकल गये, यह स्वय उस ध्यानस्थ जीवनत्मा को पता नही चलता कि बैचारे कि लाईफ कब झिन्गालाला हो गई ली है। डेस्कटॉप,पॉमटॉप, और लैपटॉप के इस काल मे युवक युवतियो की गोन्दे तो सदा-सर्वदा भरी ही मिलती है। यह मैलिग क्या बला है मेरे ताऊ ? एक होता है मेल दुसरा होता है फिमेल,अरे भाई मेरे यहभी तो लेटरवा का ही नयानवेला भाई है जो बिना फेफडे का और खोपडी का धनचक्कर होता है।
शास्त्री जी सुना है आपके जमाने मे आप लेटरवा(पोस्टकार्ड} लिखने मे बडे ही आलसी हुआ करते थे ? एक दो लाइन लिखते लिखते उबासीयॉ लेने लगते थे ?ओर इस उम्र मे इन्टरनेटवा का प्रयोग करके नई आदतवा कि तरक्की कर डाली। वो जो छोटी-छोटी चिट्ठीयो के जवाब देने से कतराते थे वो आज कल बडे-बडे दनादन चिट्ठे लिखकर रोज लोगो का ब्लोगेरिया से भेजा फ्राई कर डाला है।
अरे भैईया! यह ब्लोगेरिया किस रोग का नाम है ? अपुनके खोपडी मे तुम्हारी बात घुस नही रेहेली है।
अरे बिटवा! बुद्धू बक्से (कप्यूटर) पर इन्टरनेटवा द्वारा लिखने वाले को चिठाकार कहा जाता है। अपने सिगापुर वाले बडे भाई राज भाटियॉ अपनी अग्रेजीयॉ भाषा मे ईसे ब्लोग कहते है। यह ब्लोग अपनी मुबईयॉ कि १० x १० कि खोलियो के माफिक होते है जहॉ दरवाजे तो होते है पर ताले नही होते। एक खोली मे दस दस लोग रहते है उसी तरह कही कही एक ब्लोग मे दस दस ऑखफोडु चिठाकार एक साथ लोगो के दिमाग का तेल निकालने को लगे हुये है।
अरे भाई! दस दस लोग एक साथ क्या घसिटते है ? खाली खोपडी के धनचक्कर, एक थकता है तो दुसरा आ जाता है अपनी घसिटने, ब्लोग लिखना सन्क्रामक बिमारी है यह ब्लोगटाइटिस भी। बतर्ज एक पुराने-से फिल्मी गाने के-लो बचो यारो, इसको तो ब्लोगेरिया हुआ>>>>>> ब्लोगेरिया हुआ,,,,,। इस रोग कि एक खासियत यह है कि यह हप्ते पन्द्राह दिनो मे ही क्रानिक हो जाता है। इसमे बहुत कुछ थोथा भी होता है, सहज ऐतबार ना हो तो अनामदासी पोथाकारो की साइटस पर जाइए।
अब तो हालत यह है कि अखबारो तक ने अपने पाठको के पन्नो वाली स्पेस को इन ब्लोगर्स के नाम आवन्टित कर रखे है। दिनोदिन ब्लोगियो के फिगर मे इजाफा हो रहा है। बिना डाक-टिकिट, लेटरबॉक्स के चिट्ठे लिखे जा रहे है। जवाब आ रहे है। अरे भाई फिर ये लोग कि तो चॉन्दी है, नोट छाप रहेले होगे? अपुन भी इस धन्दे मे घुसना मॉगता है अपनी ट्पोरी गिरी का लोगो को टिप देगा; और अपने ब्लोगिया का नाम भी एकदम धासु सोचेला है- "टपोरी-गुरु, " क्यो भाई है ना झकास ?
अरे करमठोक! भेजे के अन्धे, यह कुछ कमाते वमाते कुछ नही है ये तो अपने बाप दादा कि कमाई पे ऐस कर रहे है। यह तो अपना बडा भाई बच्चनवा ने इण्डियॉमा फैसनवा लाकर रख दिया है सभी बैरोजगारो को घन्घे पर बैठा दिया है बिना पगार के। बिचारे कन्नु का तो कैइ बार ईन्टरनेटवा का कनैक्सन ही कट चुका है बिल नही भरने के चक्कर मे।
अरे भाई। अपनी गली के नुकड पर सुना है आप भी ब्लोग लिख रहेले हो ? मेरे बाप! मेरी दिमाग कि वाट मत लगा, यह काम तो मेरे अकल(चाचा) एस एम एस के बिग ब्रदर बाबु ब्लोगानद कर रहे है और उनकी छत्र छाया से बबुआ लव लेटरलाल, चाचा चिट्ठानन्द और मेरे बाप पोथाप्रसाद समेत फैमेली के टोटल मेबर्स कि लाईफ सुरक्षित है,सो चिट्ठी बिटियॉ कि भी।
चल अब दिमाग चाटना बन्द कर और "कॉफी विथ कुस" ठेले पर जाकर बिना शक्कर कि कॉफी पिकर आते है।
(ठेले पर) भाऊ! यह कॉफी के ठेले पर ईतना लाईन क्यो लगेला है ?और वो गले मे थेला लटकाये वो कोन बैठेला है ? अरे मेरे काका! वो सभी ब्लोगान्दन जी के दत्तक पुत्र है- झोला लटकाये जो खडा है वो कुशभाई है जो काम धन्धा छोड लोगो को कॉफीवादन करवा रहे है।
देख वो लाईन मे सबसे आगे चशमा पहने लोगो का हाथ कि रेखा देख ज्ञान बॉट रहे है वो ज्ञानदत्तजी पाण्डये है- ये ब्लोगेरिया के जनक है। लोगो कि "मानसिक हलचल" का ईलाज करते करते खुद ईसकी चपेट मे आ गये है।
(लालाजी कुश के थेले कि कॉफी पिलाते हुये)
भाऊ! वो कोन है जो अन्धेरे मे भी रोशनी पैदा कर रहा है- अरे! छवनी के सिक्के! यह अपने समीरलालाजी है जो ठेठ विदेश सेउडन तस्तरी से उडकर कुश के ठेले पर आऐ है यह कुश के कॉफि-ठेले पर ब्लोगेरिया के कीटाणुओ का पाउडर सप्लाई करते है।
और जिनके आखो मे बडा सा चश्चमा पडा है वो furasatiyaajii है ये दोनो विदेश से भारत मे ब्लोगेरिया के कीटाणुओ का पाउडर सप्लाई करते है, बहुत बडे डिलर है।
अरे भाऊ! देख तो वो कोन सफेद कपडो मे लदा हेडमास्टर कि तरह फुरसत से चलता हुआ आ रहा है। बडा ही शर्मिला शान्त फुरसत वाला ईन्शान लगता है ? हॉ! यह अनुप शुक्ला जी है। हिन्दुस्थान मे ब्लोगेरिया के कीटाणुओ का पाउडर सप्लाई कि फुरसतियाjii की फुरसतिया नाम से बहुत बडी दुकान है जो पाचवे पायेदान पर है।
भाऊ-भाऊ ! देख महिला मडल भी यहा नारे लगा रही है हमे भी कॉफी पिलाओ, बराबरी का हक चाहिये नही तो यह ठेला नही चलने देगी।
लालबिन्दी वाली कलम वाली बाई रंजना [रंजू भाटिया] , जो टेशन मे सोच रहेली है वो चॉन्द से आई Parulजी, कविता वाचक्नवीजी,के लेख मे नही पढ सकता क्यो कि मै अभी नाबालिग हु। Neelimaजी और सुजाताजी, बात बात पर सडको पर मोर्चा लेकर आ जाती है ये दोनो हम शक्क्ल है (बहने है शायद ) ।
बात बात पर प्राण पखेरु उडाने मे माहीर सुनिताजी शानु भी खडी है कतार मे।
अरे भाई ये भैसे पर कोन बैठा है ?, भाई! ये अपने आपको हरियाणवी ताऊ कहता है, जो कुशके ठेले पर दुध कि सप्लाई करता है, और जो भैसे कि पुछ पकड रखी है वो शास्त्रीजी, रविरतलामी, चिपके हुये सुरेस चिपलुनकर,शिवकुमारजी मिश्रा, अविनाश, बैगाणी, दिनेशजी द्धिवेधी,सुरेश चन्द्र गुप्ताजी, है जो इस देसी ताऊ के खासम खास है।
आलोक
आलोक कुमार को किसी परिचय की जरूरत नहीं है। ये हिन्दी जाल जगत के आदि पुरूष कहलाते हैं। जी हाँ, ये वही हैं जिन्होंने हिन्दी का पहला चिट्ठा "नौ दो ग्यारह" २००३ में लिखना शुरू किया था, और ब्लॉग का नाम चिट्ठा दिया था। वर्षों से ये अपने जालस्थल " देवनागरी॰नेट" द्वारा दुनिया को अन्तर्जाल पर हिन्दी पढ़ना व लिखना सिखाते आ रहे हैं।
क्या बात है! झींगालाला अंदाज!
ReplyDeleteबड़ा ही सुन्दर लेख !!
ReplyDeleteआप लिखने की कला मुझे पसंद आई!!!
क्या बात है सर जी मजा आ गया.बहुत खूब लिखा है !!!
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख लिखा है आपने!!
ReplyDeleteहम ब्लागरों का कितना ख्याल रखते है आप !!
शुक्रिया