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काश, हमारा ऑफिस गांव में होता…

काश, हमारा ऑफिस आज गांव में होता…
तो हम आज सुबह उठते, छोटे से ट्रांजिस्टर पर आकाशवाणी से समाचार सुनते कि मुम्बई में पेट्रोल नहीं मिलने से लोगों को भारी दिक्कत हो रही है, और आश्चर्य करते कि पेट्रोल की इतनी क्या जरूरत है।
फिर नाश्ता करके घर से निकलते और खरामा- खरामा टहलते हुए ऑफिस पहुंच जाते जो कि घर से दस कदम की दूरी पर होता।
रास्ते में साइकिल से शहर जाते स्कूल के गुरु जी से दुआ- सलाम भी कर लेते।
ऑफिस जाकर कुर्सी- टेबल बाहर निकालते और नीम पेड़ के नीचे, गुनगुनी धूप में काम करने बैठ जाते।
पास की गुमटी से चूल्हे में लकड़ी जला कर बनाई गई दस पैसे की अदरकवाली चाय भी आ जाती। चाय आती तो साथी भी आ जाते, अखबार भी ले आते।
फिर अखबार में छपी दुनिया भर की खबरों पर चर्चा की जाती, सुबह सुने समाचार को “ब्रेकिंग न्यूज” की तरह पेश किया जाता और मुम्बई के लोगों की हंसी उड़ाई जाती कि बेचारे बिना पेट्रोल के ऑफिस नहीं जा पा रहे हैं।
फिर चर्चा की जाती कि मुम्बई के लोगों को ऎसी मुसीबत से बचने के लिए क्या करना चाहिए। आधे लोग आश्चर्य करते कि मुम्बई वाले चीन की तरह साइकिल पर क्यों नहीं चलते, बाकी आधे आश्चर्य करते कि पेट्रोल नहीं है तो छुट्टी क्यों नहीं ले लेते मुम्बई वाले, ऑफिस जाने की क्या जरूरत है?
और फिर सब दोपहर का खाना खा कर एक झपकी लेने अपने- अपने घर चले जाते…
लेकिन ऑफिस तो हमारा है मुम्बई में.. इसलिए तेल कर्मचारियों की हड़ताल का असर झेल रहे हैं, भीड़ से खचाखच भरी लोकल ट्रेनों और बसों में सफर कर ऑफिस पहुंच रहे हैं और बंद ऑफिस में बिना एसी के बैठे यह चिंता कर रहे हैं कि हड़ताल खत्म नहीं हुई तो शाम तक बसें भी बंद हो जाएंगी फिर घर कैसे जाएंगे, 20-22 किलोमीटर दूर घर है- पैदल चल कर कैसे जाएंगे, रसोई गैस भी नहीं मिली तो खाना कैसे पकेगा, शहर में खाने –पीने के सामान की किल्लत हो जाएगी…
काश, हमारा ऑफिस आज गांव में होता…

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Comments

  1. सच संजय जी आपने गावं की याद दिला दी बहुत खूब !
    इस शहर की भागदौड से अब नफरत सी होने लगी है !

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  2. कुछ नहीं होता हमे इंटरनेट चलाने मे दिक्कत जाती

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  3. अरे भैया यह तो एक सपना है घबराने की जरुरत नहीं हियो !

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  4. आप ने तो मुझे मेरे गाँव की याद ताज़ा कर दी | काश ऐसा होता ! बहार हाल अभीच तो हम शहर में रह रहें हैं और अपने गाँव और खेतों से दूर रह रहें हैं...... मैं कई बार एक ग़ज़ल सुनता हूँ और यदा कदा आँखें नम भी हो जाती हैं........सुनाऊं ? तो सुनिए


    अब मैं राशन की कतारों में नज़र आता हूँ
    अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाटा हूँ

    इतनी मंहगाई के बाज़ार से कुछ लाता हूँ
    अपने बच्चों में उसे बाँट के शर्माता हूँ

    अपने नींदों का लहू पूछ ने की कोशिश में
    जागते जागते थक जाता हूँ सो जाता हूँ

    कोई चादर समझ के खींच न ले फिर से "खलील"
    मैं कफन ओढ़ के फुटपाथ पे सो जाता हूँ |

    ReplyDelete
  5. सर जी, यह लेख शायद पहले पढ़ा था..
    बहुत तलाशने पर आज मिला
    लिंक है..
    http://www.garamchai.in/?p=671

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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

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