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जाग स्वयं में लीन कुलीन

ये समझने का वक्त आ गया है कि हर समाज के केंद्र में इसकी राजनीति होती है. अगर राजनीति घटिया दर्जे की होगी तो सामाजिक हालात के बढ़िया होने की उम्मीद करना बेमानी है.
रोहिंटन मालू को जिस वक्त गोली लगी उस वक्त वे वही कर रहे थे जो उन्हें जिंदगी में सबसे ज्यादा प्रिय था - बढ़िया खाने का लुत्फ उठाना और नये-नये विचार सुझाना. रोहिंटन, ओबेरॉय-ट्राइडेंट के कंधार रेस्टोरेंट में मौजूद उन 17 लोगों में से थे जिन्हें बंदूक की नोक पर सीढ़ियों पर इकट्ठा होने को कहा गया था. ऊपरी तौर पर तो आतंकवादी ये दिखा रहे थे कि वे इन लोगों को बंधक बनाने जा रहे हैं मगर उनका असल इरादा सौदेबाजी का था ही नहीं. उनके एक हाथ में एके-47 थी और दूसरे में मोबाइल फोन. आधुनिकता और मध्यकालीन कट्टरता के इस विरोधाभास का प्रदर्शन करते उन हत्यारों ने अपने आकाओं से पूछा, ‘उड़ा दें?’ सिर्फ मौत के आंकड़ों से सरोकार रखने वाले उनके आका उधर से बोले, ‘उड़ा दो.’
रोहिंटन को सात गोलियां लगीं. और जब उनकी लाश बरामद हुई तो उसकी हालत ऐसी थी कि उन्हें सिर्फ उनकी उंगली में मौजूद अंगूठी से ही पहचाना जा सकता था. 48 साल का ये शख्स अपने पीछे छोड़ गया दो किशोरवय बो और अनगिनत अधूरे सपने. इनमें से कुछ सपने तहलका के लिए भी थे जहां रोहिंटन पिछले दो सालों से बतौर स्ट्रैटेजिक एडवाइजर काम कर रहे थे. वे एक करिश्माई व्यक्तित्व थे और मीडिया मार्केटिंग में उनका करिअर सफलता की कहानियों से मिलकर बना था.
अगर मुंबई में मरने वालों में से ज्यादातर उससे ताल्लुक रखने वाले नहीं होते तो देश की ज्यादातर दौलत और सुविधाओं तक पहुंच रखने वाले अभिजात्य वर्ग को इसकी फिक्र तक न होती.
रोहिंटन की मृत्यु में एक गहरी विडंबना भी छिपी है. उनकी मौत की वजह वही रही जिसकी अहमियत उनकी नजर में ज्यादा नहीं थी. हमारे साथ हर बैठक में वे राजनीति को लेकर तहलका के जुनून पर बेहद अचंभे और असमंजस में पड़ जाते थे. उनका मानना था कि उनके या कहें कि हमारे वर्ग के किसी भी व्यक्ति की मुश्किल से ही राजनीति में दिलचस्पी होगी, भला इस काजल की कोठरी का हमारी जिंदगी से क्या वास्ता और अगर होगा भी तो इतना नहीं कि हम इस पर इतना ध्यान दें. हमारे कई सीधे और आड़े-तिरछे तर्कों के बाद रोहिंटन अनमने तरीके से ये तो मान लेते थे कि हम कुछ हद तक सही हो सकते हैं मगर ये मानने को जरा भी तैयार नहीं होते कि ऐसा करना हमारे लिए व्यावसायिक रूप से फायदे का सौदा होगा. उनका तर्क होता था कि हमारे वर्ग के पाठकों की दिलचस्पी उन विषयों में होती है जो उनकी जिंदगी से जुड़ी हुई हैं मसलन, खानपान, फिल्में, क्रिकेट, फैशन, टीवी, स्वास्थ्य वगैरह वगैरह. राजनीति से संबंधित लेख तो उन पाठकों को मजबूरन झेलने पड़ते हैं.
विडंबना देखिए कि आखिर में रोहिंटन और उन जसे सैकड़ों बेगुनाहों की मौत की वजह राजनीति ही रही. वही राजनीति जो इस देश में हर दिन गरीबी, भुखमरी और उपेक्षा से हो रही लाखों मौतों की जड़ में है. अगर मुंबई में मरने वालों में से ज्यादातर उससे ताल्लुक रखने वाले नहीं होते तो देश की ज्यादातर दौलत और सुविधाओं तक पहुंच रखने वाले अभिजात्य वर्ग को इसकी फिक्र तक न होती. मगर मुंबई की घटना पर आज अगर सबसे ज्यादा शोर देश का यही कुलीन वर्ग मचा रहा है तो वजह सिर्फ यही है कि आतंक का ये जानवर आज अचानक अपनी सभी हदें पार कर उन संगमरमरी चारदीवारियों के भीतर घुस आया है जिनमें आज तक ये वर्ग खुद को सुरक्षित महसूस किया करता था. द ताज और द ओबेरॉय जसी जगहों पर इसी कुलीन वर्ग के लोग ठहरते हैं और खाना खाते हैं. वे पूछ रहे हैं. क्या इस देश में अब कोई जगह महफूज नहीं रही?
जिस कड़वी हकीकत से भारत का कुलीन वर्ग पांचसितारा होटलों में नजर आ रहे मलबे के टुकड़ों को देखकर दो-चार हो रहा है उसी कडवे सच को करोड़ों आम भारतीय रोज ङोलने को मजबूर हैं. भुखमरी से मर रहे बच्चे, आत्महत्या कर रहे किसान, शोषण का शिकार हो रहे दलित, सैकड़ों साल पुराने बसेरों से खदेड़े जा रहे आदिवासी, कारखानों के लिए जमीनों से बेदखल हो रहे किसान, अलग-थलग पड़ रहे अल्पसंख्यक..वे जानते हैं कि कुछ ऐसा है जो बहुत गलत हो रहा है. वे जानते हैं कि व्यवस्था काम नहीं करती, ये क्रूर हो गई है, इसमें इंसाफ नहीं मिलता और ये बस उन्हीं के लिए है जो इसे चला रहे हैं. कुलीन वर्ग से ताल्लुक रखने वाले हम लोगों को समझना होगा कि हममें से ज्यादातर इस व्यवस्था से मिले हुए हैं. ज्यादा संभावना यही है कि हमारे पास जितनी ज्यादा सुविधाएं और पैसा है इस अन्यायी व्यवस्था को पनपाने में हमारी भूमिका उतनी ही बड़ी हो.
हम सबके ये समझने का वक्त आ गया है कि हर समाज के केंद्र में इसकी राजनीति होती है. अगर राजनीति घटिया दर्जे की होगी तो सामाजिक हालात के बढ़िया होने की उम्मीद करना बेमानी है. कई दशक से इस देश का अभिजात्य वर्ग देश की राजनीति से हाथ झड़ता रहा है. पीढ़ियां की पीढ़ियां इसे एक गंदी चीज मानते हुए बड़ी हुईं. लोकराजनीति के जरिए आधुनिक भारत के निर्माण का विचाररूपी बीज बोया जाना और उसका खिलना इस महाद्वीप में पिछले एक हजार साल में हुआ सबसे अनूठा और असाधारण प्रयोग था. मगर पिछले 40 सालों में इसकी महत्ता को मिटाने की कोई कसर हमने नहीं रख छोड़ी है. हमारे संदर्भ में ये दोष हमारे मां-बाप का और हमारे बच्चों के संदर्भ में ये दोष हमारा है कि हमने संगठित दूरदृष्टि, संगठित इच्छाशक्ति और संगठित कर्मों की उस विरासत को आगे नहीं बढ़ाया. एक शब्द में कहें तो उस राजनीति को आगे नहीं बढ़ाया जिसने अपने स्वर्णकाल में एक उदार और लोकतांत्रिक देश बनाने का करिश्मा कर दिखाया था. आज रसातल को पहुंची राजनीति से उसी देश के बिखर जाने का खतरा आसन्न है.
इस तरह से देखा जाए तो हम दो तरह से दोषी हैं. एक, उस सामूहिक प्रयास को विस्मृत करने के और दूसरा, जो हो रहा है उसको बिना विरोध किए स्वीकारने के. ऐसा हमारी स्वार्थी वृत्ति और उथली सोच के कारण हुआ है. शाइनिंग इंडिया में हम जैसे साधनसंपन्न लोगों की जिंदगी बेहतर होती जा रही है और हमें लग रहा है कि सब कुछ बढ़िया चल रहा है. हम इस आधे सच में जीकर खुश हैं और बाकी लोगों की मुश्किल जिंदगी को देखना ही नहीं चाहते. दूसरे समाजों के पतन का कारण बने कुलीन वर्ग की तरह हम भी अपनी ऊर्जा का ज्यादातर हिस्सा सोचने-विचारने की बजाय खूब कमाने और उसे उड़ाने पर खर्च कर रहे हैं. हम चटपटी गपबाजियों में वक्त बिता रहे हैं और उन चीजों की तरफ नहीं देख रहे जिनसे हम असहज महसूस करते हैं.
कई सालों से ये साफ दिखाई दे रहा है कि जिस समाज में हम रहते हैं वह भेदभाव, भ्रष्टाचार, कट्टरता, नाइंसाफी जसी बुराइयों के चलते खोखला होता जा रहा है. राजनीतिक नेतृत्व लगातार उन नीतियों पर चलता जा रहा है जो जाति, भाषा, धर्म, वर्ग, समुदाय और क्षेत्र जसी दरारों को चौड़ा कर समाज को बांटती जा रही हैं. दुनिया के सबसे जटिल समाज के अभिजात्य वर्ग के रूप में हम ये देखने में असफल रहे हैं कि हमारे जटिल तानेबाने के कई जोड़ अत्यधिक संवेदनशील हैं. यानी एक गलती हादसों की एक पूरी श्रंखला पैदा कर सकती है. कांग्रेस ने अकालियों की हवा निकालने के लिए जनरैल सिंह भिंडरावाले को पैदा किया, भिंडरावाले ने आतंकवाद को पैदा किया, इंदिरा गांधी ने आतंकवाद के खिलाफ मोर्चा खोला, आतंकवाद ने इंदिरा गांधी की जान ले ली और इंदिरा गांधी की मौत से हुई हिंसा हजारों बेगुनाह सिखों के नरसंहार की वजह बनी. इस एक दशक के दौरान अनगिनत बेगुनाह, उग्रवादी और सुरक्षाकर्मी मारे गए. इसी तरह मंडल की हवा निकालने के लिए भाजपा ने कमंडल का कार्ड खेला, उन्मादी कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद गिरा दी, दंगे भड़के, बदला लेने के लिए मुंबई धमाके हुए, दस साल बाद गुजरात में कार सेवकों से भरी एक बोगी जली, अगले कुछ दिनों में राज्य में 2000 मुसलमानों का नरसंहार हुआ, छह साल बाद आज भी इसकी प्रतिक्रिया में हिंसा जारी है.
एक और उदाहरण है. 1940 के दशक की शुरुआत में आजादी की लड़ाई के बीच में अचानक कुलीन मुस्लिम वर्ग एक अलग इस्लामी देश की मांग करने लगा, महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया, अंग्रेजों ने इसका समर्थन किया, बंटवारा हुआ, दंगों में दस लाख लोग मारे गए, दो देशों में चार लड़ाइयां हुईं, दोनों की ऊर्जा का बड़ा हिस्सा एक दूसरे के खिलाफ खर्च हुआ, परमाणु हथियारों का जखीरा बना, मुंबई पर हमला हुआ.
इन सभी श्रंखलाओं में एक बात समान है. इनकी शुरुआत कुलीन वर्ग द्वारा लिए गए फैसलों से हुई. अनिगिनत विविधताओं से गुंथकर बना भारत का ताना-बाना बेहद नाजुक और जटिल है. कुलीन वर्ग के लिए ये बहुत अहम है कि वह इस तानेबाने और उसमें अपनी भूमिका को समझे. पूंजी, प्रभाव और सुविधाएं उसके नियंत्रण में हैं. वह इस ताने-बाने की मरम्मत कर सकता है. उसके पास देने के लिए काफी कुछ है और उसे उदारता से देना ही होगा. आम जनता, जिसके पास कुछ भी नहीं है, का गुस्सा और क्षोभ इस तानेबाने को सिर्फ पूरी तरह से ढहा सकता है. और याद रखें कि ज्वालामुखी जब फटता है तो उसमें अमीर और गरीब सभी समान रूप से जल जाते हैं.
सवाल उठता है कि फिर हमें क्या करना चाहिए? नेताओं को गालियां देने को निश्चित रूप से राजनीतिक जागरूकता नहीं कहा जा सकता. और वातानुकूलित जिंदगी जीने वालों की पाकिस्तान पर बम गिराने और टैक्स न भरने की मांग को भी बेतुका ही कहा जाएगा. इस तरह के मूर्खतापूर्ण नाटक को दिखाने की बजाय मीडिया को इसकी उपेक्षा करनी चाहिए. दुनिया में दुश्मनी की पहले ही अति हो चुकी है. हमें इसे शांत करने की जरूरत है न कि भड़काने की. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है तो वह तो खुद ही गिरी हुई राजनीति की वजह से बर्बाद है. इसे बमों की बरसात की नहीं बल्कि मदद के हाथ की जरूरत है. याद रखना होगा कि जब संवेदनहीन नौकरशाह गुस्से में अपने दांत पीसते हैं तो इसका शिकार मासूम बच्चों को होना पड़ता है.
हमारे संदर्भ में ये दोष हमारे मां-बाप का और हमारे बच्चों के संदर्भ में ये दोष हमारा है कि हमने संगठित दूरदृष्टि, संगठित इच्छाशक्ति और संगठित कर्मों की उस विरासत को आगे नहीं बढ़ाया.
पिछले कुछ दिन से हो रहे प्रदर्शन और नारेबाजी सामूहिक तौर पर अपना गुस्सा निकालने से ज्यादा कुछ नहीं. सच पूछिए तो नेता भी वही कर रहे हैं जो हम कर रहे हैं. यानी सिर्फ अपने लिए सोचना, ज्यादा से ज्यादा कमाई करना और देश की बेहतरी के रास्ते में खड़ी चुनौतियों से मुंह मोड़ लेना. बस नेता की पहुंच ज्यादा है तो वह ये काम ज्यादा बेहतर तरीके से कर रहा है.
सबसे पहले हमें सच को ईमानदारी से स्वीकारने की जरूरत है. इस बात को मानने की जरूरत है कि हमने राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया की गाड़ी पटरी से उतार दी है. पांच करोड़ भारतीयों की समृद्धि से देश विकसित नहीं हो जाएगा, खासकर तब जब 50 करोड़ लोगों के लिए जिंदा रहना ही एक संघर्ष हो. आजादी के 60 साल बाद भी आसानी से कहा जा सकता है कि भारत के राजनीतिक नेतृत्व और कुलीन वर्ग ने देश के वंचितों को बुरी तरह निराश किया है. अगर आप देखने की जहमत उठाएं तो आज का भारत वो जगह है जहां नवजात बो मक्खियों की तरह मरते हैं और जहां समान अवसरों की बात एक क्रूर मृगतृष्णा से ज्यादा कुछ नहीं.
एक बात हमें साफ तौर पर जान लेनी चाहिए. हम पर संकट इसलिए नहीं है क्योंकि ताज में मौत का तांडव हुआ बल्कि इसलिए है कि गुजरात में 2000 मुसलमानों की हत्या के छह साल बाद भी इंसाफ का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं है. गैरबराबरी के बाद ये दूसरी बात है जिसे कुलीन वर्ग को समझना होगा. सभ्यता की शुरुआत से ही हर समाज की बुनियाद इंसाफ का पहिया रहा है. आप सिर्फ उन लोगों के लिए ही मोमबत्तियां कैसे जला सकते हैं जो आपके वर्ग से हों. आपको हर नागरिक के लिए आवाज उठानी होगी.
हमें नए कानूनों की जरूरत नहीं है. जरूरत है तो ऐसे लोगों की जो पहले से ही मौजूद कानूनों पर अमल सुनिश्चित कर सकें. आज हमारी सारी संस्थाएं और प्रक्रियाएं जर्जर हो रही हैं. हमने उन मूल्यों और दूरदृष्टि के साथ ही समझौता कर लिया है जिन्हें ध्यान में रखकर इन संस्थाओं की नींव रखी गई थी. अब हर संकट की घड़ी में क्षत बचाने के लिए हम साहस के चंदेक व्यक्तिगत उदाहरणों पर ज्यादा निर्भर रहते हैं. हमें ये याद रखना होगा कि महान व्यवस्थाएं और समाज ऐसे प्रेरणादायीकार्यों की एक समूची श्रंखला से बनते हैं जिनकी सोच निजी स्वार्थ के परे हो. अपने ऊपर से प्रेरणा पाकर लोग अपना सर्वोत्तम करने का प्रयास करते हैं. चारों तरफ नजर दौड़ाइए. कितने कांस्टेबल, हेड कांस्टेबल, सब इंस्पेक्टर ऐसे होंगे जो उन भ्रष्ट लोगों के लिए अपनी जान दांव पर लगाएंगे जिनकी सेवा में वे तैनात रहते हैं.
काश मुंबई में पिछले हफ्ते बरसे आतंक में रोहिंटन की जान बच जाती। एक पल में वे हमारा पक्ष समझ गए होते. आर्थिक और सामाजिक सुधारों से कहीं ज्यादा जरूरत आज राजनीति में आमूल-चूल बदलाव की है, उस शुचिता की, जिसने देश को आजादी दिलाई. भारत के कुलीन वर्ग को अपने हाथों के गंदे होने का डर छोड़ना होगा. तभी उसे एक साफ-सुथरा देश मिल सकेगा.


तरुण तेजपाल

यह लेख तहलका हिंदी से लिया गया है !!!
http://www.tehelkahindi.com/editorial/171.html

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