Skip to main content


भविष्य की कृषि खतरे में .....
सभ्यता के आरभ से ही " कृषि " मानव की तीन जीवनदायनी आधारभूत आवश्यकताओं में से एक -भोजन की आपूर्ति के लिए अपरिहार्य बना हुआ है । कृषि के अलावा ज्ञान-विज्ञान , अध्यात्म ,चिकित्सा आदि -इत्यादि मानवीय जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में हर दिन नव चेतना फ़ैल रही है , हर दिन कुछ नई बातें सामने आ रहीं हैं। ऐसा नही की ये सब एक दिन में हो गया बल्कि ऐसा होने में सदियाँ बीत गई । जीवन जीने की जद्दोजहद में पशुवत मांसभक्षण करने वाला मनुष्य कब शाकाहारी हो गया इसका ठीक- ठीक अनुमान लगना मुश्किल है।कालांतर में धीरे-धीरे कंदमूल खाकर भरण -पोषण करने वाला आदिमानव खेती करने लगा । सैकडों -हजारों वर्षों के मेहनत के बाद आज खेती -बड़ी अर्थात कृषि का ये उन्नत रूप हमारे समक्ष है।लेकिन आज के इस वैज्ञानिक -बाजारवादी युग में जब समूची दुनिया को एक बाज़ार बनाने की तयारी रही है , कृषि का भविष्य खतरे में दीखता है । भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहाँ ७० %आबादी खेती के सहारे जीवन गुजरा करती है, वहां सरकारी उदासीनता के कारणआज सार्वजनिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण व्यवस्था कृषि और अन्य असंगठित रोजगारों के कामगारों की बदहाली किसी से छुपी नही । एक कलावती का नाम लेकर हमारे तथाकथित युवराज श्रीमान राहुल गाँधी और उनकी सरकार अपने कर्तव्यों से मुक्ति चाहती है। ये संभव नही । न जाने कितनी कलावती और कितने हल्कू पूस की रात में ठिठुर कर मर रहे होंगे ? पशुओं का चारा तक निगल जाने वाले नेताओ की सरकार से उम्मीद ही बेकार है। जिस पर देश की अर्तव्यवस्था टिकी है उस सार्वजनिक क्षेत्र को बहल करने को लेकर भला ये कैसे इमानदार हो सकते हैं !सरकारी उदासीनता , विज्ञान के दुरूपयोग और ज्यादा मुनाफाखोरी की आदत ने भविष्य की खेती को दावपर लगा दिया है । संवर्धित बीजों और रासायनिक उर्वरको के मध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनिया किसानो को नजदीक के फायदे का सपना दिखाकर बरगला रही हैं। परंपरागत खेती में किसान अपने ही खेत के बीजो का इस्तेमाल करते थे अब अधिक पैदावार के लोभ में बाजार से ख़रीदे संवर्धित बीजो से एक बार ही खेती की जा सकती है , हालाँकि अभी भारत में ये चलन कम है । परन्तु गरीब -अनपढ़ किसानो को अभी से इस बिज के बारे में जानलेना चाहिए ताकि भविष्य में सतर्क रहा जा सके । कभी हरित-क्रांति को जन्म देने वाली वैगुय्यानिक पद्धति आज कृषकों और कृषि का विनाश करने पर उतारू है । पिछले ५० सालों में कृषि का जो विकास हुआ वो शयद २००० सालों में भी नही हुआ था । इस विकास का मुख्या आधार विज्ञान के ज्ञान का प्रयोग है। नई तकनीक के कारण खेती के स्वरुप में अपेक्षित बदलाव तो आया पर बाजार के बढ़ते प्रभाव ने यहाँ भी प्रतिकूल असर डाला । अपनी-अपनी दुकान चलने में न तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को और न ही देश के कर्णधार नेताओं को इसकी चिंता है । ऊपर से जनसँख्या का बढ़ता दवाब से कृषियोग्य भूमि पर कंक्रीट का जाल बढ़ताही जा रहा है । भूमि कम पड़ रही है ,उपज बढ़ने के दवाब में किसान अधिक से अधिक रासायनिक उर्वरको का अँधा-धुंध उपयोग करते हैं ।हमारे देश में सन ५७ में मुश्किल से दो हजार तन रासायनिकखादों और कीटनाशकों कि खपत थी जो कि बढ़ कर दो लाख तन का आंकडा छुने वाला है । परिणाम स्वरुप जमिंकी उर्वरा शक्ति नगण्य होती जा रही है ।घनी खेती कि वजह से पैदावार में वृद्धि तो होती है पर कई बड़ी मुश्किलें भी खड़ी है । इस समय भारत में करीब १४०० लाख हेक्टेयर धरती पर खेती हो रही है । बहुत कोशिश करने पर इसमे ४०० लाख हेक्टेयर भूमि जोड़ी जा सकती है । परन्तु इसके लिए हमें जंगलो को काटना पड़ेगा।और ऐसा करना व्यावहारिक नही है। भूमि उसर होती जा रही है, भूमिगत जलस्तर घटता जा रहा है ,वायुमंडल दूषित हो रहा है, कुल मिलकर संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कृषि का संकट(या मानवीय जीवन पर खतरा ) गहराता जा रहा है और जिसे कोई समझने को तैयार नही । भविष्य में ऐसे यत्नों की जरुरत है जिनके द्वारा कृषि के भविष्य पर मंडराते बादलों को टला जा सके ।नई राहें खोजी जाए कि उपज भी बढे अर्थात जनसँख्या के सामने अन्ना का संकट न हो और ऊपर बतलाई गई मुश्किलें भी ख़सुरक्षित हो ।त्म हो सके और इसके लिए तीन महत्वपूर्ण क़दमों को उठाने पर सरकार को विचार करना चाहिए । प्रथम, संवर्धित बीजों के व्यापार अथवा प्रयोग पर प्रतिबन्ध । दूसरा , रासायनिक उर्वरको और घटक कीटनाशकों के बरक्स नए विकल्पों जैसे जैविक खाद आदि को लेकर किसानो को जागरूक करना । तीसरा , अधिक से अधिक खेती लायक जमीं को बनाये रखना और ऐसा उपाय खोजना जिससे प्रति इकाई उपज को बढाया जा सके लेकिन वो उपाय सुरक्षित हो ।

Comments

Post a Comment

आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

Popular posts from this blog

डॉ.प्रभुनाथ सिंह भोजपुरी के अनन्य वक्ता थे -केदारनाथ सिंह

डॉ.प्रभुनाथ सिंह के स्वर्गवास का समाचार मुझे अभी चार घंटा पहले प्रख्यात कवि डॉ.केदारनाथ सिंह से मिला। वे हावड़ा में अपनी बहन के यहां आये हुए हैं। उन्हीं से जाना भोजपुरी में उनके अनन्य योगदान के सम्बंध में। गत बीस सालों से वे अखिल भारतीय भोजपुरी सम्मेलन नाम की संस्था चला रहे थे जिसके अधिवेशन में भोजपुरी को 8वीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव पारित हुआ था तथा उसी की पहल पर यह प्रस्ताव संसद में रखा गया और उस पर सहमति भी बन गयी है तथा सिद्धांत रूप में इस प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लिया गया है। केदार जी ने बताया कि डॉ.प्रभुनाथ सिंह का भोजपुरी में निबंध संग्रह प्रकाशित हुआ है और कविताएं भी उन्होंने लिखी हैं हालांकि उनका संग्रह नहीं आया है। कुछ कविताएं अच्छी हैं। केदार जी के अनुसार भोजपुरी के प्रति ऐसा समर्पित व्यक्ति और भोजपुरी के एक बड़े वक्ता थे। संभवतः अपने समय के भोजपुरी के सबसे बड़े वक्ता थे। बिहार में महाविद्यालयों को अंगीकृत कालेज की मान्यता दी गयी तो उसमें डॉ.प्रभुनाथ सिंह की बड़ी भूमिका थी। वे उस समय बिहार सरकार में वित्तमंत्री थे। मृत्यु के एक घंटे पहले ही उनसे फोन से बातें हुई ...

ग़ज़ल

गज़ब का हुस्नो शबाब देखा ज़मीन पर माहताब देखा खिजां रसीदा चमन में अक्सर खिला-खिला सा गुलाब देखा किसी के रुख पर परीशान गेसू किसी के रुख पर नकाब देखा वो आए मिलने यकीन कर लूँ की मेरी आँखों ने खवाब देखा न देखू रोजे हिसाब या रब ज़मीन पर जितना अजाब देखा मिलेगा इन्साफ कैसे " अलीम" सदकतों पर नकाब देखा