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''हिन्दुस्तानी की आवाज़''

''हिन्दुस्तानी की आवाज़''
देश की राजनीति को लग चुका है अभिशाप ,गुरु कर रहे है शिष्यों के साथ पाप,अस्पतालों मे हो रही है बच्चों की हेराफेरी,पुलिस को जीने के लिए जरुरी है घूसखोरी,खेलो मे खिलाडियों को रास आ रही है मैच फिक्सिंग , धार्मिक पत्रों के कलाकारों मे बढ रही है किसिंग !जनता से ख़रीदे जा रहे है वोट , संसद मे भी वोट के बदले नोट !देश के इसी तरह के गर्मागर्म मुद्दों पर आधारित बहस ''हिन्दुस्तानी की आवाज़''मे भाग लीजिये और जीतिए १००० रुपए का नगद इनाम!आपके विचार कम से कम २०० शब्दों मे अपनी एक फोटो के साथ भेज दीजिये!प्रकाशित पक्ष और विपक्ष दो विचारों को ५००-५०० रुपए का नगद इनाम भेजा जायेगा!आपके विचारों के साथ आपका पूरा परिचय,पता,और फ़ोन नंबर जरुर भेजे !यह कालम हर रविवार को प्रकाशित होगा !

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संजय सेन सागर
आदर्श नगर मकरोनिया चौराहा सागर मध्यप्रदेश
पिन ४७०००४ मोबाइल .०९९०७०४८४३८

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  1. पैसे के भीतर ही नंगापन है...जो पैसा आते ही पैसेवाले में दृष्टिगत होता है....बेशक यह सापेक्षिक है....मगर इस सच को झुठलाने की चेष्टा भी भला कितनों ने की है ....????पैसा एक ऐसी अथाह..असीम..
    ..अंतहीन...एकदम नंगी...यहाँ तक कि वीभत्सता की हद तक नंगी एक ऐसी वासना है, जिसके लिए आदमी जान तक दे सकता है...और हर पल दे भी रहा है..!!....सरोकार,जिस शब्द की हम जैसे टुच्चे,घटिया और सो कॉल्ड संवेदन-शील लोग दिन-रात ड्रमों आंसू बहते हैं...कलपते हैं...चीखते हैं...चिल्लाते हैं.... इस शब्द से पैसे वालों कोई "सरोकार" नहीं होता...बल्कि उन्हें तो पल्ले भी नहीं पड़ता कि हम जैसे लोग आख़िर कह क्या रहे हैं... या हमारी बातों का मर्म क्या है....अनेकानेक संत महात्मा इसी तरह चीखते-चिल्लाते स्वर्ग सिधार गए मगर आदमी आज तक वैसा-का- वैसा है....अकूत संपत्ति इकठ्ठा करने की उसकी प्यास बढती ही जाती है...भूखी दुनिया का दर्द उसे कतई नहीं सताता... शायद वो बुद्ध की भांति यह जान गया है कि दुनिया दुःख है...और जब बड़े-बड़े महात्मा इसका दुःख दूर नहीं कर पाये तो वह ख़ुद किस खेत की मूली है....सो वह अपनी नित्यप्रति की भूख को ना सिर्फ़ शांत करने की चेष्टा में सतत लगा रहता है...बल्कि उस भूख को और...और...और बढाता जाता है....बढाता ही जाता है..उसका नाम विश्व की बड़ी-बड़ी नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में छपता जाता है... हर देश की सरकार उन्हें स-सम्मान बुलाती है..उनकी आवभगत करती है....उन्हें तमाम तरह की छूट देती है..आप हमारे यहाँ आओ...आपको पन्द्रह-बीस साल तक सब कुछ मुआफ...चुनांचे आप यहाँ का सब कुछ लूट लेने को स्वतंत्र हो.....यह तो गनीमत है कि उनके सामने ये सरकारें अपनी पैंट नहीं उतार देतीं, कि लो......मारो....और तमाम देशो के तमाम अखबार-पत्रिकाए उनका नाम यों जपते हैं...जैसे वो उनके माई-बाप...भगवान् सब कुछ हों... इसकी तह में जाएँ तो इस बाबत भी कई खुलासे हो सकते हैं...कईयों की बाबत तो अपन को मालुम भी है...और थोड़ा-बहुत भी जानकारी रखनेवाले जानते हैं...कि यह सब क्या है...मगर क्या फर्क पड़ता है...क्योंकि पैसे-वाले का धर्म पैसा है... और वो पैसे से किसी को भी खरीद सकता है...इस मण्डी में हर कोई बिकने को तैयार है... यहाँ तक कि खरीदने वाला भी अपने बेचे जाने में ज्यादा लाभ देखे तो ख़ुद बिक जाने को तैयार है... वह भी दुनिया की नज़रों में उसका दुर्लभ गुण ही होगा....क्योंकि पैसे वाले का हर काम भी बुद्धिवाला ही तो होता है...पैसे वाले के पास जो बुद्धि है...वो किसी के पास नहीं है.... बिना पैसे वाला दुर्लभ-से-दुर्लभ बुद्धिवाला भी त्याज्य है...हेय है....उसका सम्मान भी दरअसल एक दिखावा ही है...जो समय-समय पर एक विद्वान को अपनी औकात के रूप में दिखायी पड़ता रहता है...तम्हारी औकात ही क्या है.... ये वाक्य ही बाकी की दुनिया के लिए एक पैसे-वाले का एक कूट मगर जहीन वाक्य है...........!!!!
    .......................राजीव थेपड़ा

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  2. पैसे के भीतर ही नंगापन है...जो पैसा आते ही पैसेवाले में दृष्टिगत होता है....बेशक यह सापेक्षिक है....मगर इस सच को झुठलाने की चेष्टा भी भला कितनों ने की है ....????पैसा एक ऐसी अथाह..असीम..
    ..अंतहीन...एकदम नंगी...यहाँ तक कि वीभत्सता की हद तक नंगी एक ऐसी वासना है, जिसके लिए आदमी जान तक दे सकता है...और हर पल दे भी रहा है..!!....सरोकार,जिस शब्द की हम जैसे टुच्चे,घटिया और सो कॉल्ड संवेदन-शील लोग दिन-रात ड्रमों आंसू बहते हैं...कलपते हैं...चीखते हैं...चिल्लाते हैं.... इस शब्द से पैसे वालों कोई "सरोकार" नहीं होता...बल्कि उन्हें तो पल्ले भी नहीं पड़ता कि हम जैसे लोग आख़िर कह क्या रहे हैं... या हमारी बातों का मर्म क्या है....अनेकानेक संत महात्मा इसी तरह चीखते-चिल्लाते स्वर्ग सिधार गए मगर आदमी आज तक वैसा-का- वैसा है....अकूत संपत्ति इकठ्ठा करने की उसकी प्यास बढती ही जाती है...भूखी दुनिया का दर्द उसे कतई नहीं सताता... शायद वो बुद्ध की भांति यह जान गया है कि दुनिया दुःख है...और जब बड़े-बड़े महात्मा इसका दुःख दूर नहीं कर पाये तो वह ख़ुद किस खेत की मूली है....सो वह अपनी नित्यप्रति की भूख को ना सिर्फ़ शांत करने की चेष्टा में सतत लगा रहता है...बल्कि उस भूख को और...और...और बढाता जाता है....बढाता ही जाता है..उसका नाम विश्व की बड़ी-बड़ी नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में छपता जाता है... हर देश की सरकार उन्हें स-सम्मान बुलाती है..उनकी आवभगत करती है....उन्हें तमाम तरह की छूट देती है..आप हमारे यहाँ आओ...आपको पन्द्रह-बीस साल तक सब कुछ मुआफ...चुनांचे आप यहाँ का सब कुछ लूट लेने को स्वतंत्र हो.....यह तो गनीमत है कि उनके सामने ये सरकारें अपनी पैंट नहीं उतार देतीं, कि लो......मारो....और तमाम देशो के तमाम अखबार-पत्रिकाए उनका नाम यों जपते हैं...जैसे वो उनके माई-बाप...भगवान् सब कुछ हों... इसकी तह में जाएँ तो इस बाबत भी कई खुलासे हो सकते हैं...कईयों की बाबत तो अपन को मालुम भी है...और थोड़ा-बहुत भी जानकारी रखनेवाले जानते हैं...कि यह सब क्या है...मगर क्या फर्क पड़ता है...क्योंकि पैसे-वाले का धर्म पैसा है... और वो पैसे से किसी को भी खरीद सकता है...इस मण्डी में हर कोई बिकने को तैयार है... यहाँ तक कि खरीदने वाला भी अपने बेचे जाने में ज्यादा लाभ देखे तो ख़ुद बिक जाने को तैयार है... वह भी दुनिया की नज़रों में उसका दुर्लभ गुण ही होगा....क्योंकि पैसे वाले का हर काम भी बुद्धिवाला ही तो होता है...पैसे वाले के पास जो बुद्धि है...वो किसी के पास नहीं है.... बिना पैसे वाला दुर्लभ-से-दुर्लभ बुद्धिवाला भी त्याज्य है...हेय है....उसका सम्मान भी दरअसल एक दिखावा ही है...जो समय-समय पर एक विद्वान को अपनी औकात के रूप में दिखायी पड़ता रहता है...तम्हारी औकात ही क्या है.... ये वाक्य ही बाकी की दुनिया के लिए एक पैसे-वाले का एक कूट मगर जहीन वाक्य है...........!!!!
    .......................राजीव थेपड़ा

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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

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