ढहते किलों के बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया को नया मंत्र मिल गया है. वह मंत्र है- आतंकवाद. आतंकवाद से इस लड़ाई में मीडिया सीधे जनता के साथ मिलकर मोर्चेबंदी कर रहा है. यह मोर्चेबंदी अनायास नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि अचानक ही इलेक्ट्रानिक मीिडया नैतिक रूप से बहुत जिम्मेदार हो गया है. कारण दूसरे हैं जो कि उसकी व्यावसायिक मजबूरियो से जोड़ते हैं. वैश्विक मंदी के इस दौर में आतंकवाद ही एक ऐसा मंत्र है जो ज्यादा देर तक दर्शकों को बुद्धूबक्से से जोड़कर रख सकता है. इलेक्ट्रानिक मीडिया इस मौके को किसी कीमत पर नहीं चूकना चाहता.
अगर आप पिछले साल भर का डाटा उठाकर देख लें तो इलेक्ट्रानिक मीडिया ने हमेशा छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ बनाया है. अभी हाल में मुंबई में राज ठाकरे का आतंक टीवी पर खूब बिका. राज ठाकरे के गुण्डों ने जो कुछ किया वह शर्मनाक था लेकिन इतना भी नहीं था जितना इलेक्ट्रानिक मीडिया ने हौवा बनाया. टीवी पर आयी खबरों को देखकर हमने अपने एक मित्र को फोन किया कि आपको इस बारे में कुछ लिखना चाहिए. उन्होंने छूटते ही जवाब दिया ऐसा कुछ है ही नहीं जैसा टीवी में दिखाया जा रहा है तो इसमें लिखने जैसा क्या है. उनका कहना था टीवी जो कुछ दिखा रहा है उससे आगे बहुत कुछ हो सकता है. और वही हुआ. इस घटना के पहले दिल्ली में विस्फोट हुआ था. कोई पंद्रह दिन तक लगातार इलेक्ट्रानिक मीडिया जांचकर्ता बनने का नाटक करता रहा. हिन्दी के एक चैनल आज तक ने बाकायदा दिल्ली में प्रचार अभियान चलाया, किराये पर बड़े-बड़े होर्डिंग लगवाये जिसमें लिखा गया था कि आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में हमारा साथ दीजिए. लोगों ने कितना साथ दिया मालूम नहीं लेकिन उस प्रचार अभियान को देखकर लगा कि इलेक्ट्रानिक चैनल खबर दिखाने के अलावा भी बहुत कुछ कर सकते हैं. दिल्ली-मुंबई में हई आतंकी घटनाओं से थोड़ा और पहले जाए तो आरूषि हत्याकाण्ड मीडिया के लिए संजीवनी का काम कर रहा था. आरूषि और आतंकवाद के बीच राम की रामायण और रावण की लंका ने भी कुछ दिनों तक इलेक्ट्रानिक मीडिया की टीआरपी बनाये रखी.
आम आदमी को यह सब क्यों बुरा लगे? अगर मीडिया उसके हक और हित की बात करता है तो उसको खुश होना लाजिमी है. कुछ हद तक संतुलित प्रिंट मीडिया भी कई बार इलेक्ट्रानिक मीडिया की इस बाढ़ में उसके साथ बह जाता है. इस बार मुंबई में आतंकी हमले के बाद प्रिंट जहां संतुलित व्यवहार कर रहा है वही इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने स्वभाव के अनुसार एक बार फिर अपनी ही धारा में बह निकला है. ६२ घण्टों तक लाईव मैराथन कवरेज दिखाने के बाद जब पत्रकार बिरादरी अपने स्टूडियो लौटी तो उसने देश के राजनीतिज्ञों को निशाने पर ले लिया है. मीडिया इतना तुर्श है कि उसके हाथ में गनमाईक की जगह अगर गन हो तो वह खुद फैसले करना शुरू कर दे और अपना राज स्थापित कर दे. मसलन हर एंकर बोलते समय इस बात का जरा भी ध्यान नहीं रखता कि वह क्या बोल रहा है. सरकार के तलवे चाटनेवाले उसके संपादकों और मालिकों की बात अभी छोड़ देते हैं जिसकी दी गयी सैलेरी पर पत्रकार अपना परिवार पालता है. उनकी ही बात करते हैं जो गनमाईक लिए स्टूडियो से लेकर बाहर मैदान तक एक बाईट के लिए भागते रहते हैं वे आखिर किस रणनीति के तहत आतंकवाद को भयानक समस्या बता रहे हैं? वे राजनीतिक प्रक्रिया, प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठाने की बजाय उसे खारिज क्यों कर रहे हैं? वे ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं मानों वे ही देश के लोकतांत्रिक ढांचे में चुनकर वहां तक पहुंचे है?
एनडीटीवी का उदाहरण लीजिए. कोई शक नहीं कि इनके कोई आधा दर्जन पत्रकारों ने मुंबई जाकर लाईव रिपोर्टिंग की और 'पल-पल' की खबरें हम तक पहुंचाकर बहुत महान काम किया है. लेकिन अब वह क्या कर रहा है? आतंकवाद और आम आदमी के बीच वह एक पक्ष बन गया है. लगता है एनडीटीवी को ऐसा एहसास हो गया है कि वह चुनाव लड़े तो ज्यादा बेहतर सरकार दे सकता है. इसलिए वह एक मीडिया घराने की बजाय किसी राजनीतिक दल की तरह व्यवहार कर रहा है और सवाल उठाने की बजाय निर्णय सुनाने के काम में लग गया है. आज शाम भाजपा के नेता अरूण जेटली ने कहा भी कि बेहतर हो कि "आप (एनडीटीवी) पत्रकारिता ही करें और आतंकवाद के खिलाफ मीडिया की भूमिका में ही रहे." लेकिन एनडीटीवी भला ऐसा क्यों करेगा? इस समय उन्माद का माहौल है. जो आतंकवादी घटना हुई है उससे पूरा देश सकते में है.(हालांकि यह बात मैं पूरे यकीन से नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि मेरी लोगों से फीडबैक अलग है) फिर भी मीडिया ने इतनी सनसनी तो पैदा कर ही दी है ६२ घण्टों का लाईव कवरेज भारत के शहरों में चर्चा का विषय बन गया है. आज टाईम्स आफ इंडिया ने लिखा है मुंबई कल दिनभर केवल आतंकी मुटभेड़ की ही बातें करती रही. मुंबई ही क्यों, यहां दिल्ली में भी लोग दिन-रात टीवी से चिपके रहे. इसलिए नहीं कि उनकी बड़ी सहानुभूति थी बल्कि इसलिए कि अधिकांश लोग क्लाईमेक्स जानना चाहते थे.
यह इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए बहुत अनुकूल माहौल होता है जब मिनट-दर-मिनट लोग उससे बंधने को मजबूर हों. फिर मौका चाहे जो हो. या तो कोई बच्चा खड्ड में गिर जाए या फिर आतंकवादियों के खिलाफ एक लंबी मुटभेड़ चल जाए. लाईव फुटेज और कवरेज के ऐसे स्रोत इन मौकों पर फूटते हैं जो इलेक्ट्रानिक मीडिया को अनिवार्य जरूरत बना देते है. यहां तक तो हुई जरूरत की बात. अब यहां से इलेक्ट्रानिक मीडिया व्यवसाय जगत में प्रवेश कर जाता है.
अगर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो बीच में विज्ञापनों का ब्रेक न चलाता. अगर आतंकवाद के खिलाफ इलेक्ट्रानिक मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो चिल्ला-चिल्लाकर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने की दुहाई न देता. अगर असल मुद्दा आतंकवाद है तो फिर चैनलों के ब्राण्डों पर असली पत्रकारिता की अलाप क्यों लगायी जाती है? क्यों टीवी के नौसिखिए लड़के/लड़कियां हमेशा अपने ब्राण्ड द्वारा ही सच्ची पत्रकारिता करने की दुहाई देते रहते हैं? क्यों टीवी वाले यह बताते हैं कि उन्हें इस मुद्दे पर इतने एसएमएस मिले हैं जबकि एक एसएमएस भेजने के लिए उपभोक्ता की जेब से जो पैसा निकलता है उसका एक हिस्सा टीवी चैनलों को भी पहुंचता है. इन सारे सवालों का जवाब यही है कि आखिरकार टीवी न्यूज बहुत संवेदनशाली धंधा है. और जिन पर इस बार हमला हुआ है वे भी धंधेवाले लोग हैं. एक धंधेबाज दूसरे धंधेबाज के लिए गला फाड़कर नहीं चिल्लाएगा तो क्या करेगा? आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के उनके मंसूबे तब दगा देने लगते हैं जब पता चलता है कि जिस चैनल की टीआरपी बढ़ी उसने अपनी विज्ञापन दर बढ़ा दी. है कोई चैनलवाला जो इस बात से इंकार कर दे?
एनडीटीवी का उदाहरण लीजिए. कोई शक नहीं कि इनके कोई आधा दर्जन पत्रकारों ने मुंबई जाकर लाईव रिपोर्टिंग की और 'पल-पल' की खबरें हम तक पहुंचाकर बहुत महान काम किया है. लेकिन अब वह क्या कर रहा है? आतंकवाद और आम आदमी के बीच वह एक पक्ष बन गया है. लगता है एनडीटीवी को ऐसा एहसास हो गया है कि वह चुनाव लड़े तो ज्यादा बेहतर सरकार दे सकता है. इसलिए वह एक मीडिया घराने की बजाय किसी राजनीतिक दल की तरह व्यवहार कर रहा है और सवाल उठाने की बजाय निर्णय सुनाने के काम में लग गया है. आज शाम भाजपा के नेता अरूण जेटली ने कहा भी कि बेहतर हो कि "आप (एनडीटीवी) पत्रकारिता ही करें और आतंकवाद के खिलाफ मीडिया की भूमिका में ही रहे." लेकिन एनडीटीवी भला ऐसा क्यों करेगा? इस समय उन्माद का माहौल है. जो आतंकवादी घटना हुई है उससे पूरा देश सकते में है.(हालांकि यह बात मैं पूरे यकीन से नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि मेरी लोगों से फीडबैक अलग है) फिर भी मीडिया ने इतनी सनसनी तो पैदा कर ही दी है ६२ घण्टों का लाईव कवरेज भारत के शहरों में चर्चा का विषय बन गया है. आज टाईम्स आफ इंडिया ने लिखा है मुंबई कल दिनभर केवल आतंकी मुटभेड़ की ही बातें करती रही. मुंबई ही क्यों, यहां दिल्ली में भी लोग दिन-रात टीवी से चिपके रहे. इसलिए नहीं कि उनकी बड़ी सहानुभूति थी बल्कि इसलिए कि अधिकांश लोग क्लाईमेक्स जानना चाहते थे.
यह इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए बहुत अनुकूल माहौल होता है जब मिनट-दर-मिनट लोग उससे बंधने को मजबूर हों. फिर मौका चाहे जो हो. या तो कोई बच्चा खड्ड में गिर जाए या फिर आतंकवादियों के खिलाफ एक लंबी मुटभेड़ चल जाए. लाईव फुटेज और कवरेज के ऐसे स्रोत इन मौकों पर फूटते हैं जो इलेक्ट्रानिक मीडिया को अनिवार्य जरूरत बना देते है. यहां तक तो हुई जरूरत की बात. अब यहां से इलेक्ट्रानिक मीडिया व्यवसाय जगत में प्रवेश कर जाता है.
अगर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो बीच में विज्ञापनों का ब्रेक न चलाता. अगर आतंकवाद के खिलाफ इलेक्ट्रानिक मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो चिल्ला-चिल्लाकर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने की दुहाई न देता. अगर असल मुद्दा आतंकवाद है तो फिर चैनलों के ब्राण्डों पर असली पत्रकारिता की अलाप क्यों लगायी जाती है? क्यों टीवी के नौसिखिए लड़के/लड़कियां हमेशा अपने ब्राण्ड द्वारा ही सच्ची पत्रकारिता करने की दुहाई देते रहते हैं? क्यों टीवी वाले यह बताते हैं कि उन्हें इस मुद्दे पर इतने एसएमएस मिले हैं जबकि एक एसएमएस भेजने के लिए उपभोक्ता की जेब से जो पैसा निकलता है उसका एक हिस्सा टीवी चैनलों को भी पहुंचता है. इन सारे सवालों का जवाब यही है कि आखिरकार टीवी न्यूज बहुत संवेदनशाली धंधा है. और जिन पर इस बार हमला हुआ है वे भी धंधेवाले लोग हैं. एक धंधेबाज दूसरे धंधेबाज के लिए गला फाड़कर नहीं चिल्लाएगा तो क्या करेगा? आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के उनके मंसूबे तब दगा देने लगते हैं जब पता चलता है कि जिस चैनल की टीआरपी बढ़ी उसने अपनी विज्ञापन दर बढ़ा दी. है कोई चैनलवाला जो इस बात से इंकार कर दे?
sanjay ji accha lga aapka zazba...bnayen rakhen...subhkamnayen!
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