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उद्योगपतियों से क्यों मिले आडवाणी?


२० नवंबर की शाम आडवाणी के घर के बाहर भारी गहमा-गहमी थी. दरवाजे के बाहर पत्रकारों की भारी भीड़ जमा थी. कैमरे और गनमाईक तैनात थी. शाम के पांच बजते ही सारे मीडियाकर्मी हरकत में आने लगते हैं. एक-एक कर उद्योगपतियों की गाड़िया आडवाणी के घर के अंदर जाती हैं और बाहर पत्रकारों में उस उद्योगपति को पहचानने की बुझौवल शुरू हो जाती है. पंद्रह बीस मिनट के अंदर देश के कोई १५ शीर्ष उद्योगति आडवाणी के घर पहुंच चुके थे. पहुंचनेवाले लोगों में दोनो अंबानी बंधु भी शामिल थे. मुकेश अंबानी पहले आ गये थे, अनिल बाद में आये.


मुकेश और अनिल अंबानी के अलावा और जो उद्योगपति इस शाम को आडवाणी के घर पहुंचे उनमें तीनों प्रमुख उद्योग व्यापार संघों के अध्यक्ष (सीआईआई के अध्यक्ष केवी कामथ, एसोचेम के अध्यक्ष सज्जन जिंदल और फिक्की के अध्यक्ष राजीव चंद्रशेखर) के अलावा जेपी ग्रुप के मुखिया जयप्रकाश गौड़, भारती समूह के अध्यक्ष सुनील भारती मित्तल, जीएमआर के मुखिया जीएम राव, भारत फोर्ज के बाबा कल्याणी, जी समूह के सुभाष चंद्र गोयल, बजाज आटो के राहुल बजाज, विडियोकान के राजकुमार धूत सहित १५ शीर्ष उद्योगपति पहुंचे थे. अंदर से सूचना आयी कि आना सोलह को था लेकिन एक नहीं आया. वह एक कौन नहीं आया पता नहीं. आडवाणी की ओर से इस बैठक में लालकृष्ण आडवाणी के अलावा अरूण शौरी, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, बलबीर पुंज और राजीव प्रताप रूड़ी मौजूद थे. कोई ढाई घण्टे की मैराथन बैठक चली. शाम को पौने आठ बजे जसवंत सिंह और यशवंत सिंह दोनों बाहर आये और कहा गया कि भाजपा कार्यालय में इस मीटिंग की ब्रीफिंग होगी.
भाजपा कार्यालय की ब्रीफिंग में बोलते हुए यशवंत सिन्हा ने जो सबसे पहली बात कही वह यह कि "देश में विश्वास का संकट खड़ा हो गया है. यह विश्वास का संकट कितना गहरा है इसका अंदाज लगाना हो तो आप देखिए कि बैंक ही एक दूसरे को उधारी नहीं दे रहे हैं. आडवाणी जी की इस मीटिंग से विश्वास बहाली की दिशा में सफल और सार्थक कदम उठा है." यानी इससे उद्योगपतियों में विश्वास का वातावरण बनेगा. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या देश की राजनीति में नयी परंपरा डाली जा रही है कि अब नेता प्रतिपक्ष सत्ता संचालन के कार्य भी करने लगा है? जाहिर तौर यह देश के शीर्ष उद्योगपतियों के साथ यह बैठक केवल कुशल-क्षेम पूंछने के लिए तो नहीं बुलाई गयी थी. कोई सवाल खड़ा करता इसके पहले ही यशवंत सिन्हा ने बताया "वे देश के नेता प्रतिपक्ष हैं और देश के भावी प्रधानमंत्री. अगर वे अर्थव्यवस्था पर चिंतित नहीं होंगे तो कौन होगा?" पूरक के रूप में जसवंत सिंह ने बताया कि आडवाणी के साथ देश के शीर्ष उद्योगपतियों की यह बैठक इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा कि देश की अर्थव्यवस्था के सामने इस समय जो चुनौतियां हैं उसको अवसर में कैसे बदला जाए."
यह चुनौती क्या है? यशवंत सिन्हा ने बताया कि आज अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती आम आदमी के सामने है. यह बात सही है. कुछ इसी तरह की बात आडवाणी भी कहते हैं "मुझे इस बात से बहुत चिंता है कि अर्थव्यवस्था में आयी गिरावट से गरीब आदमी किस तरह प्रभावित हो रहा है. देशभर में अपने दौरों के दौरान जब मैं देखता हूं कि आधी अधूरी निर्माण परियोजनाओं के बीच काम रूक गया है तो मुझे उन गरीब मजदूरों की चिंता होती है जिनका रोजगार चला गया है. इनमें अधिकांश मजदूर प्रवासी मजदूर होते हैं और वे देश के निर्धनत हिस्सों से आते हैं. वे लौटकर अपने गांव जा नहीं सकते और शहर उन्हें काम दे नहीं पाता." आडवाणी अपनी इस चिंता को दूर करने करने के लिए औद्योगिक समूहों से अल्पकालिक और दीर्घकालिक उपायों के बारे में कहते हैं. उद्योगपतियों के साथ बैठक की प्रस्तावना में उन्होंने जो पेपर सर्कुलेट किया उसमें उन्होंने लिखा है" मित्रों, इस वर्तमान आर्थिक संकट से उबरने और उसके पश्चात अर्थव्यवस्था का पुनरूद्धार निश्चित रूप से एक लंबी प्रक्रिया है. इसलिए भारत को दोनों, अल्पकालिक और दीर्घकालिक संदर्भों में इससे निपटने की जरूरत है. मैं इन दोनों पर आपके विचारों को सुनना चाहता हूं."
आडवाणी की इस प्रस्तावना पर औद्योगिक समूहों का क्या रूख है इसे देख लीजिए. इस मौके पर फिक्की ने अपना नजरिया पेश करते हुए अल्पकालिक और दीर्घकालिक सुझाव दिये हैं. अल्पकालिक सुझाव में सबसे अहम है कि सीआरआर अभी एक प्रतिशत और घटाकर ४.५ तक नीचे लाया जाए. यानी, बैंकों के हाथ में उधारी बांटने और बाजार में दौड़ाने के लिए ज्यादा नकद आये. और जब यह नकद बैंकों के पास आ जाए तो वह पैसा उठाकर वे कंपनियों को दें. बैंक निरंतर कंपनियों के लिए पूंजी प्रवाह का स्रोत बनी रहें इसके लिए ऐसी व्यवस्था की जाए कि बैंक कंपनियों को मुक्तहस्त से धन मुहैया कराती रहें. एफडीआई को आकर्षित करने के लिए विशेष प्रयास किये जाएं. निवेश पर टैक्स की रियायतें दी जाएं, मुद्रास्फीति को नीचे लाने के लिए जो कस्मट ड्यूटी घटायी गयी थी उसे फिर से बढ़ा दी जाए ताकि बाहर से सस्ते माल का आयात कम हो और भारत से निर्यात को बढ़ावा मिले. कंपनियों की प्रतिनिधि संस्था फिक्की मानती है कि ये तो छोटी अवधि के उपाय हैं. नेता प्रतिपक्ष कुछ लंबी अवधि के उपायों की तरफ की ध्यान दें.
इन लंबी अवधि के उपायों की ध्वनि वही है जो आडवाणी की प्रस्तावना में है. लंबी अवधि के उपायों फिक्की का प्रमुख सुझाव यह है कि आधारभूत ढांचा का विकास ही सबसे बड़ी समस्या है. इस कमी को पूरा करने के लिए १००,००० करोड़ रूपये सालाना निवेश की जरूरत है. यानी, यह सौ हजार करोड़ रूपये सालाना अगर आधारभूत ढांचे पर खर्च किया जाए तो भारत में मंदी से उबरा जा सकता है. यहां पहले आप यह समझ लें कि कंपनियां आधारभूत ढांचे की मजबूती का इतना राग क्यों अलापती हैं. इसका दोहरा फायदा है. एक, आधारभूत ढांचे के विकास के दौरान यह १०० हजार करोड़ रूपया किसी न किसी रूप में कंपनियों के लिए ही व्यापार का रास्ता तैयार करती हैं. इस रास्ते से जैसा विकास आता है वह इन कंपनियों के लिए आगे के रास्ते खोलती है. इससे उस आम आदमी का कहीं कुछ लेना-देना अगर होता है तो सिर्फ इतना कि वह अपनी ही संपत्ति गंवाकर इन परियोजनाओं के किनारे सस्ती मजदूरी करता है. अगर यह भी न हो तो उसे उस सस्ती मजदूरी से भी हाथ धोना पड़ता है. जैसा कि आडवाणी जी का तर्क है"इस (मंदी) का प्रभाव न केवल एयरलाईनों पर पड़ा है बल्कि उन शहर के आटोरिक्शा चालकों पर भी पड़ा है जिन्हें कम सवारियां मिल रही हैं. जब आटोवालों की आमदनी पर असर पड़ता है तो वे अपने गांव में बहुत कम पैसा भेज पाते हैं, जहां अनेक परिवार उनके मनीआर्डर पर निर्भर रहते हैं." क्या तर्क है! इस तर्क का संदेश यह है कि अगर गांव के गरीब परिवार को मनीआर्डर मिलते रहना है तो शहर के फ्लाईटों को निरंतर अपनी उड़ान जारी रखनी होगी. अगर वे उड़ने में अक्षम हों तो सरकार का फर्ज बनता है कि वह एयरलाईनों में उड़नेवाले क्लास को सब्सिडी देती रहे. वे जो मांग करें वह उनकी मांग पूरी करती रहे. फिर वह मांग जायज हो या कि नाजायज.
ऐसे ऐसे फद्दू सोचवाले लोग की यह अर्थव्यवस्था आनेवाले कई दशकों तक देश को और निर्धन ही बनाएगी. ऊपर अमीरी की सब्सिडी बांटकर उसका छीजन नीचे लाभ के रूप में पहुंचाने की आडवाणी और उनके मंडली की यह दकियानूसी सोच कहीं से भी नयी सोच नहीं है. यह वही सोच है जिसकी शिकार आज की सरकार है. आज की सरकार में फिर भी इतनी समझ है कि वह उद्योगपतियों के आगे भी पूरी तरह से झुकने की बजाय क्रमिक रूप से कदम उठा रही है. प्रेस काँफ्रेस में यशवंत सिन्हा ने कहा कि वे टुकड़ों-टुकड़ों में राहत देने की बजाय एकमुश्त पैकेज देने के पक्षधर हैं. यानी, उद्योगपतियों की जायज-नाजायज मांगों के सामने घुटने टेकने की बजाय वे लेटने के िहमायती हैं. और उन्हें तथा उनके नेता को लगता है कि यही देश की अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने की दिशा में एकमात्र सही कदम होगा.
मुझे उम्मीद थी कि नेता प्रतिपक्ष की यह बहुप्रचारित बैठक उद्योगपतियों को कोई नसीहत होगी कि वे अपने फायदे की बजाय देश के हित में काम करने की आदत डालें. लेकिन बैठक के बाद जिस प्रकार नतीजों की चर्चा की गयी उससे साफ हो गया कि इस बैठक का मकसद कुछ और ही रहा होगा. इस बैठक के जरिए उस प्रयास को बल दिया गया जो आडवाणी को राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित करने के लिए किया जा रहा है. क्योंकि इस बैठक का उपयोग सिर्फ आडवाणी के व्यक्तित्व को थोड़ा और पालिश लगाने के अलावा और कोई मकसद दिखता भी नहीं है. इस मौके पर एक पुस्तिका वितरित की गयी जो फिक्की, सीआईआई और एसोचेम में उनके द्वारा दिये गये भाषणों का संकलन है. देश के ताकतवर उद्योगपतियों की ये शीर्ष तीन संस्थाएं देश की अर्थव्यवस्था को ही नियंत्रित नहीं करती बल्कि देश की राजनीति और प्रशासन व्यवस्था को भी निर्देशित करने लगी हैं. आडवाणी ने इस बैठक में अपनी ओर से कोई नयी बात कहने की बजाय वहीं बातें कहीं जिनमें से अधिकांश फिक्की द्वारा जारी किये गये प्रेस नोट से मेल खाती है. क्या इस बैठक के असली मकसद को समझने के लिए कोई और प्रमाण चाहिए?

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