बिहारी अस्मिता का लालू'राग'
बिहार के नेता इन दिनों बड़े चिंतित हो रहे हैं. उनकी चिंता है कि महाराष्ट्र में गुण्डाराज स्थापित हो गया है. इस गुंडाराज के खिलाफ केन्द्र और राज्य की कांग्रेस सरकार कड़े कदम उठाने में विफल रही है. इसके विरोध में बिहार के अराजक युग के शिल्पकार लालू प्रसाद यादव ने सभी जनप्रतिनिधियों से अपना इस्तीफा देने का आह्वन किया है. लालू की ओर कोरी बिहारी अस्मिता की कवायद में वे भारी न पड़ जाएं इसलिए जद यू के पांच सांसदों ने अपने इस्तीफे लोकसभा महासचिव को सौंप भी दिये हैं. जिसमें प्रभुनाथ िसंह और जार्ज फर्नांडीज भी शामिल हैं.राजनीति में इस तरह ढकोसले होते ही रहते हैं. सवाल तो यह है कि क्या बिहार के सांसदों में सचमुच इतना नैतिक बल है कि वे महाराष्ट्र की कानून व्यवस्था पर सवाल पूछ सकें? यदि कानून और न्याय व्यवस्था के मापदण्ड पर कोई निष्पक्ष निर्णय लिया जाए तो बिहार में राष्ट्रपति शासन या मार्शल ला के अलावा कोई तीसरा विकल्प शेष ही नहीं रह जाता. महाराष्ट्र में अगर गुण्डाराज का प्रभाव छटांकभर है तो बिहार में पसेरी और मन के बटखरे के बिना तौल संभव ही नहीं है. पहले यह देख लीजिए कि राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो का रिकार्ड क्या कहता है. साल २००६ में देश में हुए कुल अपराध का ११.८ फीसदी बिहार में घटित हुआ. इसी साल देश में हत्या के कुल ३२,४८१ मामले दर्ज हुए जिनमें ३,२४९ मामले बिहार के थे. हत्या के प्रयास के कुल २७,२३० मामलों में ३३०३ मामले बिहार के थे. िपछड़ी जातियों पर हमले के २०४३ मामले बिहार में ही दर्ज किये गये. साल २००६ में जिस्मफरोशी के तस्करी की गयी लड़कियों की दर्ज संख्या ६७ है जिसमें ४२ लड़कियां बिहार की हैं. आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत पूरे देश में दर्ज होनेवाले अपराधों का औसत १०.९ है तो बिहार में यह प्रतिशत २४.१ है, जबकि महाराष्ट्र का औसत राष्ट्रीय औसत से भी नीचे १०.३ प्रतिशत है. अब प्रभुनाथ सिंह ही बताएं कि महाराष्ट्र वालों का भेजा खराब हुआ है या बिहार वालों का? प्रभुनाथ सिंह खुद संसद में कई बार आरोप लगा चुके हैं कि बिहार में अधिकांश आपराधिक मामले दर्ज ही नहीं किये जाते, अगर उन्हें भी इन आंकड़ों के साथ शामिल कर लिया जाए तो क्या तस्वीर उभरती है? इतने सबके बावजूद बिहार के नेता महाराष्ट्र की चिंता में क्यों दुबले हुए जा रहे हैं?हम जानते हैं कि चाराचोर लालू और लौंडा नाच के संरक्षक प्रभुनाथ सिंह को महाराष्ट्र में बसे बिहारवासियों की कतई चिंता नहीं है. अगर इन नेताओं ने चिंता ही की होती तो वहां के निवासी गंगा का किनारा छोड़कर वसई, माहिम, ठाणे की झुग्गियों में आकर नरकीय जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं होते. दरअसल बिहार के सारे नेताओं के समक्ष अपने राजनीतिक अस्तित्व को टिकाये रखने का संकट है. लालू प्रसाद को १९९० से २००४ तक लगातार चुनावीं सफलताएं मिलीं. उनकी इस जीत का राज क्या था? समाजशास्त्री शैवाल गुप्ता कहते हैं "लालू की सांस्कृतिक सब्सिडी ही उनकी राजनीतिक संजीवनी थी." ये सांस्कृति सब्सिडी क्या है? सांस्कृतिक सब्सिडी लालू के खांटी बिहारीपन, लोकजीवन के प्रति उत्साह और अभिजनों तथा कथित बौद्धिक वर्ग के प्रति उनकी अवमानना पर आधारित थी. लालू को इस सांस्कृतिक सब्सिडी पर इतना आत्मविश्वास था कि वे बिहार के बदलते हालातों से ही दूर हो गये. लालू के विपरीत वर्तमान मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने सामाजिक आधार को मजबूत करने के साथ ही विकास का एजंडा पेश कर चुनाव जीतने में सफलता पायी. पिछड़ी जातियों की सत्ता की आकांक्षा और अपनी पहचान अभिव्यक्त करने की चाह ने नब्बे के दशक में अधिकांश पिछड़ी जातियों में आर्थिक विकास की चाह को पीछे रखा. लालू ने अपने विरोधियों को हमेशा सवर्णवादी और सांप्रदायिक शक्तियों के हाथों की कठपुतली करार देकर अपने पक्ष में ध्रुवीकरण कराया. वे अपने शासनकाल में यह भूल गये कि हर जाति में अपना प्रतिनिधित्व दर्ज कराने और विकास संसाधनों तक अपनी पहुंच बनाने की होड़ हुआ करती है. नब्बे के दशक के अंत तक निम्न पिछड़ी जातियों ने इस संदर्भ में लालू की भूमिका की सीमाओं को परख लिया था. लालू पता नहीं यह क्यों नहीं भांप पाये कि हर व्यक्ति अपने आस-पास एक ऐसा माहौल चाहता है जिसमें उसकी आनेवाली पीढ़ियों को बेहतर भविष्य मिल सके. लालू-राबड़ी के पंद्रह वर्षों के शासनकाल में बिहारियों ने पाया कि विकास के लिए यादव परिवार का शासनकाल अनुकूल नहीं है. पिछली जातियां एक ऐसे नेता को तलाश रही थीं जो विकास करने का दावा करता हो, लेकिन जिसमें सामंतवादी सवर्ण जातियों का वर्चस्व न होने पाये. बिहार की ऊंची जातियां भी लालू के विकल्प के रूप में किसी ऐसे पिछड़े नेता को तलाश रही थीं जो सत्ता में उनको सहयोगी की भूमिका प्रदान कर सके. हर किसी को नीतिश कुमार में ऐसा व्यक्तित्व नजर आया, परिणामस्वरूप २००४ के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस-लोकजनशक्ति पार्टी और वाममोर्चे का समीकरण बैठाकर २२ लोकसभा सीटें जीतकर केन्द्रीय सत्ता के सशक्त भागीदार बननेवाले लालू अक्टूबर २००५ के विधानसभा चुनावों में नीतिश के समक्ष बौने साबित हुए. नीतिश कुमार की जद (यू) का मुख्य सामाजिक आधार कुर्मी कोईरी जातियां हैं. फरवरी २००५ में कुर्मी कोईरियों के ४७ फीसदी और सवर्णों के ५७ फीसदी वोट जद (यू) को मिले. अक्टूबर २००५ में कुर्मी कोईरियों में उनका आधार बढ़कर ५६ फीसदी हो गया. सवर्ण वोट भी बढ़कर ५९ फीसदी हो गये. फरवरी २००५ तक यादव लालू से पूरी तरह चमत्कृत था. आठ महीने के भीतर ही वह भी तेजी से नीतिश की ओर झुका. फरवरी में नीतिश को यादवों के केवल २ प्रतिशत वोट मिले थे जो अक्टूबर में बढ़कर ११ प्रतिशत हो गया. मुस्लिम वोट भी ४ प्रतिशत से बढ़कर ८ प्रतिशत हो गया. अन्य पिछड़ी जातियों में नीतिश का आधार २८ फीसदी से बढ़कर ४५ फीसदी हो गया. लालू ने पाया कि नीतिश ने उनकी सांस्कृतिक सब्सिडी को विकास के रोडमैप से परास्त कर दिया है. नीतिश ने विकास पुरूष की अपनी इमेज रेलमंत्री के कार्यकाल से प्राप्त कर ली थी. राम विलास पासवान भी १९९६ से १९९८ में रेलमंत्री रहने के दौरान दलित नेता बनकर उभरे थे. सो, लालू ने भी रेल मंत्रालय में अपनी इमेज सुधारने की कवायद करना उचित समझा. चरवाहा विद्यालय और हरवाहा शंकराचार्य की बात करनेवाले लालू अचानक ही आईआईएम में प्रबंधन के कौशल सिखाने लगे. हांलाकि नीतिश के सामने बड़ी चुनौती राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थापना थी लेकिन वे क्या करते जब उनकी ही पार्टी से सबसे ज्यादा अपराधी जीतकर विधानसभा में पहुंचे थे. लालू द्वारा अर्जित की गयी सामािजक ढांचे की पूंजी को सहेजने का व्यामोह नीतिश को सामाजिक अपराधीकरण की सफाई का सामर्थ्य नहीं देता. सो, बिहार पूरी तरह हिंसामुक्त नहीं हो सकता. असल में मुंबई में रेलभर्ती के दौरान छात्रों के साथ जो मारपीट हुई उसको बिहारी अस्मिता के नाम पर भुनाकर लालू, रामविलास जैसे नेता अपना नया वोटबैंक तराशना चाहते हैं. वे बिहारवाद के ईंधन से अपनी बुझती लालटेन जलाना चाहते हैं. बेशक वे ऐसा करें, लेकिन महाराष्ट्र के तेल से ...
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर