संवाद का एक बड़ा आंदोलन चलाओ, आतंकवाद खत्म हो जाएगा
हिंसा की आंधी हर स्तर पर चारों ओर उठ रही है जो मनुष्य के अंदर जितनी तरह की कमजोरियां हैं, उसको उभारने में लगी हैं. सिर्फ किसी को मारने-पीटने भर का सवाल नहीं है, इस हिंसा का दायरा बहुत बड़ा है. एक तरह से पूरे समाज का पाशवीकरण करने की कोशिश हो रही है ताकि समाज में कोई मूल्य ऐसा बचे नहीं जिसपर पांव टिकाकर समाज खड़ा हो सके. इस तरह की एक फिसलन वाली जमीन तैयार करने की कोशिश की जा रही है कि आदमी कहीं अपना पांव टिका ही न सके.
मैं आपसे कह सकता हूं कि इस कोशिश के पीछे बहुत सोची समझी रणनीति है. क्योंकि जिस तरह की सांप्रदायिकता फैलायी जा रही है और पूंजी को आराध्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है उसको मानने के लिए एक पाशविक समाज का होना जरूरी है. उसके बगैर आप ये कर नहीं पाओगे. इसलिए मनुष्य के अंदर हर स्तर पर जो कमजोरियां है उसको उभरने का मौका कैसे मिले इसकी कोशिश की जा रही है. खादी का प्रचार करना है इसलिए रैंप पर फैशन शो होना चाहिए. हो रहा है. लोग देखने जाते हैं. खादी के ड्रेस डिजाईनर्स हैं जिनके एक-एक कपड़े दो-दो, चार-चार हजार के बनते हैं. अब मैं आपसे पूछता हूं कि गांधी की खादी और इस खादी में मेल क्या रहा? अगर ब्राण्ड का ही मामला है तो गांधी ब्राण्ड बीड़ी भी बिकेगी. सवाल तो यह है कि सर्वभक्षी औद्योगीकरण के सामने खादी कैसे पांव टिकाकर रूके? गांधी की खादी उस समय टिककर खड़ी हो सकती थी लेकिन आज खड़ी नहीं हो सकती क्योंकि उसके पांव टिकाने की जमीन हटा दी गयी है. इतने बड़े दायरे में ये बातें घूम रही हैं, इसलिए मैंने आपसे ये बात कही.
आज आप देखिए पश्चिम के पूंजीवाद का सबसे अच्छा तालमेल विकासशील देशों के तानाशाहों से बैठता है. दुनियाभर में लोकतंत्र की रक्षा की स्वघोषित जिम्मेदारी लेनेवाला अमेरिका सबसे ज्यादा दोस्ती दुनिया के तानाशाहों से रखता है. ये गठजोड़ आप समझ सकते हैं. खरबों अरब डालर अमेरिकी संसद ने बेलआउट के लिए स्वीकृत कर दिया. एक बार इंकार किया फिर स्वीकार किया. सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि राष्ट्र पर आया संकट. राष्ट्रपति का काम ही है राष्ट्र को बचाना. लेकिन जरा इस खबर के अंदर उतरकर देखिए कि आखिर हुआ क्या है? सारे जुआरी, सटोरिये, शेयर मार्केटियर, कृतिम रूप से अभाव बनाकर पैसा खींचनेवाले, लोगों की नसों से खून निकाल लेनेवाले, ऐसे लोगों की तिकड़म का चरम होकर जब विस्फोट हुआ है और अमेरिका के खरबों डालर डूब गये हैं तो अमेरिका के सामान्य करदाता के जेब से निकाले हुए पैसे से आप उनको बेल आउट कर रहे हो? किसको बचा रहे हो? और यही अमेरिका है जो कहता है कि आप अपने किसानों को सब्सिडी मत दीजिए, यही अमेरिका अपने यहां के जुआरियों को बचाने के लिए खरबों डालर खर्च करता है. फिर भी हम कहते हैं कि अमेरिका ने कितना अच्छा किया. अपने यहां को भी बचा लिया और हमारी अर्थव्यवस्था को भी बचा लिया. आपको जवाब चाहिए तो जरा उस पतली सी किताब के पन्ने उलटिये जिसे हिन्द स्वराज कहते हैं. वे लिखते हैं कि पश्चिम का यही खेल जारी रहा तो वेश्याओं की गलियां होगी, लुटेरों का राज होगा. कब लिख रहे हैं? जिस जमाने में इस तरह के संकट की कोई कल्पना भी नहीं रही होगी? जब गांधी यह बात लिख रहे थे उस समय औद्योगिक क्रांति का सूर्य चमक रहा था.
हिंसा का सवाल सामान्य मारकाट का सवाल नहीं है. ये तो अपनी जगह पर है. गांधी ने हिंसा-अहिंसा के सवाल को यहां तक पहुंचा दिया था कि समाज परिवर्तन की कौन सी शक्ति होगी. बहस यह होती थी कि आजादी मिलने के रास्ते क्या होंगे? समाज परिवर्तन में कौनसी ताकत काम देती है. लेकिन पान की दुकान पर लड़ाई होगी. अखाबर, चैनल देखिए इन सबकी यही कोशिश दिखती है कि कैसे समाज के मन में हिंसा को भर दिया जाए. ऐसा लगे कि मानों चारों ओर सिर्फ झंझावात की आंधी ही बह रही है. हम इसकी कोशिश में लगे हुए हैं. ऐसे में कुछ लोग खड़े होते हैं और विश्वासमत हासिल कर लेते हैं. जिन लोगों के ऊपर किसी का भी विश्वास नहीं है उनको विश्वासमत मिलता है. जिनको धर्म और धार्मिकता का फर्क नहीं पता वो धर्म का ध्वज उठाये दौड़ रहे हैं. जिनते तरह की कुरीतियां, अंधविश्वास जिन्हें हम पीछे छोड़कर आगे निकलने की कोशिश में लगे थे उन पर चैनलों में कार्यक्रम आ रहा है. समाचार कहां चला गया पता ही नहीं चलता. आप इनकी जड़ खोजेंगे तो पायेंगे कि इनकी जड़ें भी उसी पूंजीवाले के पास है जो समाज में पूंजी के खेल को आगे बढ़ाने में लगा हुआ है इसलिए वे अपने सारे हथियार इस्तेमाल कर रहा है. जब मैं सिंगूर, नंदीग्राम और नरेन्द्र मोदी को समझने की कोशिश करता हूं तो मुझे इनमें और जलियांवाला बाग में कोई फर्क समझ में नहीं आता. आपको आता हो तो मुझे बताईयेगा. जलियावालां काण्ड की जो रिपोर्ट है उसमें गांधी जी ने डायरिज्म शब्द का प्रयोग किया गया है. क्या ये डायरिज्म नहीं है? अब आप सोचकर मुझे बताईये कि एक जलियावालां काण्ड करनेवाले हत्यारे को मारने के लिए हमारे लोग इग्लैण्ड तक गये, वहां जाकर गोली चलायी कि उसे जीने नहीं देंगे और यहां चारों ओर जलियावांला काण्ड हो रहे हैं क्या उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए? हम अपने जनरल डायर को एक ऊंचे पद पर स्थापित करके रखें, रोज उसका महिमामण्डन करें तो क्या उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी? नहीं होनी चाहिए? अगर हममें से किसी के मन में ऐसी कल्पना हो तो मानना चाहिए कि उसने मनुष्य मन के बनावट को समझा नहीं है. मैं समर्थन नहीं कर रहा, लेकिन उसको समझना पड़ेगा. तब आपको रोज फूटते बम और आतंकवादी घटनाओं का मतलब समझ में आने लगेगा और आप समझ सकेंगे कि ये घटनाएं क्यों घट रही हैं? अब तो देखिए कि जिनती आप सख्ती बढ़ाते जा रहे हो उतनी ही दिवाली के पटाखों की तरह बम फट रहे हैं.
लोग कहते हैं कि सख्त कानून बनाने की जरूरत है, साफ्ट स्टेट से नहीं चलेगा. कोई कहता है कि पोटा आना चाहिए तो मैं अवाक् सुनता रहता हूं कि इतने समय में इतना भी नहीं सीखा. गांधी को किनारे करो परिस्थिति को तो देखो कि क्या हो रहा है? अभी एक सज्जन अमेरिका से लौटे हैं. वो मुझसे कह रहे थे कि आप लोगों से बात करने का कोई फायदा नहीं है, आप लोग पता नहीं किस दुनिया में रहते हो, लेकिन आप देखो ९/११ के बाद अमेरिका में आतंकवाद की एक भी कार्रवाई नहीं हुई है. आप लोगों को बुश की यह उपलब्धि दिखाई नही देती? उन्होंने बताया कि हर जगह इस तरह की सुरक्षा है आप जहां भी हैं, सरकार की नजर आप पर है. मैं कुछ नहीं बोला, चुपचाप उन्हें सुन ही रहा था. थोड़ी देर बाद वे खुद ही कहने लगे कि एक बात जरूर है कि सिविल लाईफ जैसी कोई चीज नहीं रह गयी है अमेरिका में. मैंने कहा बस इतना ही तो मैं आपसे सुनना चाहता था. आप आतंकवादियों से बचने के लिए अगर अपनी सिविल लाईफ से समझौता करने के लिए तैयार हैं, तो हमारे और आपके बीच एग्रीमेन्ट का प्वांईंट यहीं पर खत्म होता है. मैं तो आतंकवादियों का बम झेलने को तैयार हूं, लेकिन सिविल लाईफ को बचाने की कोशिश करना चाहता हूं, क्योंकि एक स्वस्थ नागरिक जीवन अपने आप में एक मूल्य है जिसको बचाने की जरूरत है. अगर उसको खत्म करके आतंकवाद से बचोगे तो एक प्रकार के स्टेट टेररिज्म के भीतर रहोगे. और इससे अधिक क्या कह सकते हैं?
दोस्तों, सख्त स्टेट आतंकवाद को खत्म नहीं करता, पैदा करता है. सरल समाज चाहिए. एक दूसरे से बात करनेवाला समाज चाहिए. उनसे खासतौर पर बात करनेवाला समाज चाहिए जिनको कारण-अकारण, सही-गलत चाहे जैसे चोट लगी है. आज मैं समझता हूं कि जय प्रकाश नारायण जैसा पागल आदमी क्यों दिन रात भागता रहता था. कश्मीर से कन्याकुमारी तक जहां कुछ होता था वे पहुंचते थे. तो मैं सोचता था कि इस आदमी को कोई काम ही नहीं है. लोकसभा में आचार्य कृपलानी ने कहा था कि हमारे देश में एक समानांतर सरकार भी चल रही है जो स्टेट के मामले में, और विदेश नीति पर भी बयान देता रहता है. देश के हर कोने में मौजूद रहता है. दोस्तों, वह समानांतर सरकार नहीं थी, लोकतंत्र की जड़ों को सींचने की किसी पागल आदमी कोशिश थी. जिसके मन में कुछ भी गर्ज है, शिकायत है दौड़कर उसके पास पहुंचते थे. एक संवाद का बड़ा आंदोलन चलाओ, आतंकवाद खत्म हो जाएगा. बात तो करो, सुनो तो. अगर कोई नागरिक की सरकार है तो उससे बात करने में सरकार का अपमान कैसे हो सकता है? नागरिक की नहीं है तो अलग बात है. पूरा नागालैण्ड का इतिहास पढ़िये. जयप्रकाश जी ने प्रभावती के साथ एक-एक झोपड़ी में जाकर बात की थी तो आज नागालैण्ड टिका हुआ है भारत के साथ, अपनी बहुत सारी मूर्खताओं के बावजूद भी. तो क्या कश्मीरियों से बात नहीं हो सकती? उन कश्मीरियों से जो भारतीय सेना के पहुंचने से पहले पाकिस्तान के हमलावरों से निपटने के लिए हाकी की स्टिक लेकर मैदान में उतर पड़े थे.
सवाल है कि आज जो सार्वत्रिक हिंसा का आलम खड़ा किया जा रहा है उस परिस्थिति का मुकाबला कौन करेगा? हम लोग दबी जबान में कहते हैं कि अहिंसा से इसका मुकाबला होगा. तो क्या सिर्फ अहिंसा बोलने से मुकाबला हो जाएगा? अगर आप गांधी जी के जीवन को देखें तो पायेंगे कि उन्होंने जितने अभियान छेड़े उसमें सबसे खतरे के बिन्दु पर वे खुद खड़े होते थे. सबसे आगे की कतार में. अहिंसक नेतृत्व और हिंसक नेतृत्व में यही बहुत बड़ा फर्क है. हिंसा का कमाण्डर दिल्ली में बैठकर नक्शे पर बताता है कि जवानों को यहां से यहां भेज देना. अहिंसा का कमाण्डर खुद उस जगह खड़ा होकर कहता है कि यहां आकर लड़ो. मेरे साथ आओ. अहिंसक वीरता और अहिंसा दो अलग-अलग चीजें हैं. अहिंसा की पूरी सोच में यह गांधी का योगदान है जिसे समझने में हम लोग भूल कर रहे हैं. मैं इसमें एक शब्द और जोड़ देता हूं- सक्रिय अहिंसक वीरता. जो भागकर मोर्चे पर पहुंचती है, क्या होगा यह नहीं सोचता है. वह सोचता है पहले मोर्चे पर पहुंचो, जो होगा वह देखा जाएगा. तब मैं शांतिसेना में आया ही था. फोन पर खबर आयी कि जमशेदपुर में दंगा हुआ है. जेपी ने कहा तुरंत जमशेदपुर पहुंचो. कभी जमशेदपुर नहीं गया था. किसी को जानते नहीं थे. लेकिन जमशेदपुर पहुंच गये. फिर समझ में आया कि पहुंचने का मतलब क्या होता है? हमारा ७४ का आंदोलन छिड़ा और आंदोलन में पहली गोली गया में चली. पहला लड़का मारा गया. उस दिन जेपी पटना से बाहर मीटिंग करने गये. पहुंचना था वहां. खतरे के बीच जाकर खड़ा होना था. उस दिन मुझे समझ में आया कि अहिंसक प्रक्रिया चलती किस तरह से है.
दोस्तों आज जो चल रहा है उसके सामने खड़े होने की हिम्मत सिर्फ सक्रिय अहिंसक वीरता ही दे सकती है. गांधी का यही रूप बचेगा और बचायेगा. ये बात मेरी गांठ बांध लीजिए. या तो एटम बम की पाशविक कायरता के सामने आप सर झुकाकर खड़े रहे, या गांधी की सक्रिय अहिंसक वीरता के रास्ते पर आगे बढ़ें इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है. चुनना अपने को है कि अपने को किस तरफ चलना है.
मैं आपसे कह सकता हूं कि इस कोशिश के पीछे बहुत सोची समझी रणनीति है. क्योंकि जिस तरह की सांप्रदायिकता फैलायी जा रही है और पूंजी को आराध्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है उसको मानने के लिए एक पाशविक समाज का होना जरूरी है. उसके बगैर आप ये कर नहीं पाओगे. इसलिए मनुष्य के अंदर हर स्तर पर जो कमजोरियां है उसको उभरने का मौका कैसे मिले इसकी कोशिश की जा रही है. खादी का प्रचार करना है इसलिए रैंप पर फैशन शो होना चाहिए. हो रहा है. लोग देखने जाते हैं. खादी के ड्रेस डिजाईनर्स हैं जिनके एक-एक कपड़े दो-दो, चार-चार हजार के बनते हैं. अब मैं आपसे पूछता हूं कि गांधी की खादी और इस खादी में मेल क्या रहा? अगर ब्राण्ड का ही मामला है तो गांधी ब्राण्ड बीड़ी भी बिकेगी. सवाल तो यह है कि सर्वभक्षी औद्योगीकरण के सामने खादी कैसे पांव टिकाकर रूके? गांधी की खादी उस समय टिककर खड़ी हो सकती थी लेकिन आज खड़ी नहीं हो सकती क्योंकि उसके पांव टिकाने की जमीन हटा दी गयी है. इतने बड़े दायरे में ये बातें घूम रही हैं, इसलिए मैंने आपसे ये बात कही.
आज आप देखिए पश्चिम के पूंजीवाद का सबसे अच्छा तालमेल विकासशील देशों के तानाशाहों से बैठता है. दुनियाभर में लोकतंत्र की रक्षा की स्वघोषित जिम्मेदारी लेनेवाला अमेरिका सबसे ज्यादा दोस्ती दुनिया के तानाशाहों से रखता है. ये गठजोड़ आप समझ सकते हैं. खरबों अरब डालर अमेरिकी संसद ने बेलआउट के लिए स्वीकृत कर दिया. एक बार इंकार किया फिर स्वीकार किया. सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि राष्ट्र पर आया संकट. राष्ट्रपति का काम ही है राष्ट्र को बचाना. लेकिन जरा इस खबर के अंदर उतरकर देखिए कि आखिर हुआ क्या है? सारे जुआरी, सटोरिये, शेयर मार्केटियर, कृतिम रूप से अभाव बनाकर पैसा खींचनेवाले, लोगों की नसों से खून निकाल लेनेवाले, ऐसे लोगों की तिकड़म का चरम होकर जब विस्फोट हुआ है और अमेरिका के खरबों डालर डूब गये हैं तो अमेरिका के सामान्य करदाता के जेब से निकाले हुए पैसे से आप उनको बेल आउट कर रहे हो? किसको बचा रहे हो? और यही अमेरिका है जो कहता है कि आप अपने किसानों को सब्सिडी मत दीजिए, यही अमेरिका अपने यहां के जुआरियों को बचाने के लिए खरबों डालर खर्च करता है. फिर भी हम कहते हैं कि अमेरिका ने कितना अच्छा किया. अपने यहां को भी बचा लिया और हमारी अर्थव्यवस्था को भी बचा लिया. आपको जवाब चाहिए तो जरा उस पतली सी किताब के पन्ने उलटिये जिसे हिन्द स्वराज कहते हैं. वे लिखते हैं कि पश्चिम का यही खेल जारी रहा तो वेश्याओं की गलियां होगी, लुटेरों का राज होगा. कब लिख रहे हैं? जिस जमाने में इस तरह के संकट की कोई कल्पना भी नहीं रही होगी? जब गांधी यह बात लिख रहे थे उस समय औद्योगिक क्रांति का सूर्य चमक रहा था.
हिंसा का सवाल सामान्य मारकाट का सवाल नहीं है. ये तो अपनी जगह पर है. गांधी ने हिंसा-अहिंसा के सवाल को यहां तक पहुंचा दिया था कि समाज परिवर्तन की कौन सी शक्ति होगी. बहस यह होती थी कि आजादी मिलने के रास्ते क्या होंगे? समाज परिवर्तन में कौनसी ताकत काम देती है. लेकिन पान की दुकान पर लड़ाई होगी. अखाबर, चैनल देखिए इन सबकी यही कोशिश दिखती है कि कैसे समाज के मन में हिंसा को भर दिया जाए. ऐसा लगे कि मानों चारों ओर सिर्फ झंझावात की आंधी ही बह रही है. हम इसकी कोशिश में लगे हुए हैं. ऐसे में कुछ लोग खड़े होते हैं और विश्वासमत हासिल कर लेते हैं. जिन लोगों के ऊपर किसी का भी विश्वास नहीं है उनको विश्वासमत मिलता है. जिनको धर्म और धार्मिकता का फर्क नहीं पता वो धर्म का ध्वज उठाये दौड़ रहे हैं. जिनते तरह की कुरीतियां, अंधविश्वास जिन्हें हम पीछे छोड़कर आगे निकलने की कोशिश में लगे थे उन पर चैनलों में कार्यक्रम आ रहा है. समाचार कहां चला गया पता ही नहीं चलता. आप इनकी जड़ खोजेंगे तो पायेंगे कि इनकी जड़ें भी उसी पूंजीवाले के पास है जो समाज में पूंजी के खेल को आगे बढ़ाने में लगा हुआ है इसलिए वे अपने सारे हथियार इस्तेमाल कर रहा है. जब मैं सिंगूर, नंदीग्राम और नरेन्द्र मोदी को समझने की कोशिश करता हूं तो मुझे इनमें और जलियांवाला बाग में कोई फर्क समझ में नहीं आता. आपको आता हो तो मुझे बताईयेगा. जलियावालां काण्ड की जो रिपोर्ट है उसमें गांधी जी ने डायरिज्म शब्द का प्रयोग किया गया है. क्या ये डायरिज्म नहीं है? अब आप सोचकर मुझे बताईये कि एक जलियावालां काण्ड करनेवाले हत्यारे को मारने के लिए हमारे लोग इग्लैण्ड तक गये, वहां जाकर गोली चलायी कि उसे जीने नहीं देंगे और यहां चारों ओर जलियावांला काण्ड हो रहे हैं क्या उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए? हम अपने जनरल डायर को एक ऊंचे पद पर स्थापित करके रखें, रोज उसका महिमामण्डन करें तो क्या उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी? नहीं होनी चाहिए? अगर हममें से किसी के मन में ऐसी कल्पना हो तो मानना चाहिए कि उसने मनुष्य मन के बनावट को समझा नहीं है. मैं समर्थन नहीं कर रहा, लेकिन उसको समझना पड़ेगा. तब आपको रोज फूटते बम और आतंकवादी घटनाओं का मतलब समझ में आने लगेगा और आप समझ सकेंगे कि ये घटनाएं क्यों घट रही हैं? अब तो देखिए कि जिनती आप सख्ती बढ़ाते जा रहे हो उतनी ही दिवाली के पटाखों की तरह बम फट रहे हैं.
लोग कहते हैं कि सख्त कानून बनाने की जरूरत है, साफ्ट स्टेट से नहीं चलेगा. कोई कहता है कि पोटा आना चाहिए तो मैं अवाक् सुनता रहता हूं कि इतने समय में इतना भी नहीं सीखा. गांधी को किनारे करो परिस्थिति को तो देखो कि क्या हो रहा है? अभी एक सज्जन अमेरिका से लौटे हैं. वो मुझसे कह रहे थे कि आप लोगों से बात करने का कोई फायदा नहीं है, आप लोग पता नहीं किस दुनिया में रहते हो, लेकिन आप देखो ९/११ के बाद अमेरिका में आतंकवाद की एक भी कार्रवाई नहीं हुई है. आप लोगों को बुश की यह उपलब्धि दिखाई नही देती? उन्होंने बताया कि हर जगह इस तरह की सुरक्षा है आप जहां भी हैं, सरकार की नजर आप पर है. मैं कुछ नहीं बोला, चुपचाप उन्हें सुन ही रहा था. थोड़ी देर बाद वे खुद ही कहने लगे कि एक बात जरूर है कि सिविल लाईफ जैसी कोई चीज नहीं रह गयी है अमेरिका में. मैंने कहा बस इतना ही तो मैं आपसे सुनना चाहता था. आप आतंकवादियों से बचने के लिए अगर अपनी सिविल लाईफ से समझौता करने के लिए तैयार हैं, तो हमारे और आपके बीच एग्रीमेन्ट का प्वांईंट यहीं पर खत्म होता है. मैं तो आतंकवादियों का बम झेलने को तैयार हूं, लेकिन सिविल लाईफ को बचाने की कोशिश करना चाहता हूं, क्योंकि एक स्वस्थ नागरिक जीवन अपने आप में एक मूल्य है जिसको बचाने की जरूरत है. अगर उसको खत्म करके आतंकवाद से बचोगे तो एक प्रकार के स्टेट टेररिज्म के भीतर रहोगे. और इससे अधिक क्या कह सकते हैं?
दोस्तों, सख्त स्टेट आतंकवाद को खत्म नहीं करता, पैदा करता है. सरल समाज चाहिए. एक दूसरे से बात करनेवाला समाज चाहिए. उनसे खासतौर पर बात करनेवाला समाज चाहिए जिनको कारण-अकारण, सही-गलत चाहे जैसे चोट लगी है. आज मैं समझता हूं कि जय प्रकाश नारायण जैसा पागल आदमी क्यों दिन रात भागता रहता था. कश्मीर से कन्याकुमारी तक जहां कुछ होता था वे पहुंचते थे. तो मैं सोचता था कि इस आदमी को कोई काम ही नहीं है. लोकसभा में आचार्य कृपलानी ने कहा था कि हमारे देश में एक समानांतर सरकार भी चल रही है जो स्टेट के मामले में, और विदेश नीति पर भी बयान देता रहता है. देश के हर कोने में मौजूद रहता है. दोस्तों, वह समानांतर सरकार नहीं थी, लोकतंत्र की जड़ों को सींचने की किसी पागल आदमी कोशिश थी. जिसके मन में कुछ भी गर्ज है, शिकायत है दौड़कर उसके पास पहुंचते थे. एक संवाद का बड़ा आंदोलन चलाओ, आतंकवाद खत्म हो जाएगा. बात तो करो, सुनो तो. अगर कोई नागरिक की सरकार है तो उससे बात करने में सरकार का अपमान कैसे हो सकता है? नागरिक की नहीं है तो अलग बात है. पूरा नागालैण्ड का इतिहास पढ़िये. जयप्रकाश जी ने प्रभावती के साथ एक-एक झोपड़ी में जाकर बात की थी तो आज नागालैण्ड टिका हुआ है भारत के साथ, अपनी बहुत सारी मूर्खताओं के बावजूद भी. तो क्या कश्मीरियों से बात नहीं हो सकती? उन कश्मीरियों से जो भारतीय सेना के पहुंचने से पहले पाकिस्तान के हमलावरों से निपटने के लिए हाकी की स्टिक लेकर मैदान में उतर पड़े थे.
सवाल है कि आज जो सार्वत्रिक हिंसा का आलम खड़ा किया जा रहा है उस परिस्थिति का मुकाबला कौन करेगा? हम लोग दबी जबान में कहते हैं कि अहिंसा से इसका मुकाबला होगा. तो क्या सिर्फ अहिंसा बोलने से मुकाबला हो जाएगा? अगर आप गांधी जी के जीवन को देखें तो पायेंगे कि उन्होंने जितने अभियान छेड़े उसमें सबसे खतरे के बिन्दु पर वे खुद खड़े होते थे. सबसे आगे की कतार में. अहिंसक नेतृत्व और हिंसक नेतृत्व में यही बहुत बड़ा फर्क है. हिंसा का कमाण्डर दिल्ली में बैठकर नक्शे पर बताता है कि जवानों को यहां से यहां भेज देना. अहिंसा का कमाण्डर खुद उस जगह खड़ा होकर कहता है कि यहां आकर लड़ो. मेरे साथ आओ. अहिंसक वीरता और अहिंसा दो अलग-अलग चीजें हैं. अहिंसा की पूरी सोच में यह गांधी का योगदान है जिसे समझने में हम लोग भूल कर रहे हैं. मैं इसमें एक शब्द और जोड़ देता हूं- सक्रिय अहिंसक वीरता. जो भागकर मोर्चे पर पहुंचती है, क्या होगा यह नहीं सोचता है. वह सोचता है पहले मोर्चे पर पहुंचो, जो होगा वह देखा जाएगा. तब मैं शांतिसेना में आया ही था. फोन पर खबर आयी कि जमशेदपुर में दंगा हुआ है. जेपी ने कहा तुरंत जमशेदपुर पहुंचो. कभी जमशेदपुर नहीं गया था. किसी को जानते नहीं थे. लेकिन जमशेदपुर पहुंच गये. फिर समझ में आया कि पहुंचने का मतलब क्या होता है? हमारा ७४ का आंदोलन छिड़ा और आंदोलन में पहली गोली गया में चली. पहला लड़का मारा गया. उस दिन जेपी पटना से बाहर मीटिंग करने गये. पहुंचना था वहां. खतरे के बीच जाकर खड़ा होना था. उस दिन मुझे समझ में आया कि अहिंसक प्रक्रिया चलती किस तरह से है.
दोस्तों आज जो चल रहा है उसके सामने खड़े होने की हिम्मत सिर्फ सक्रिय अहिंसक वीरता ही दे सकती है. गांधी का यही रूप बचेगा और बचायेगा. ये बात मेरी गांठ बांध लीजिए. या तो एटम बम की पाशविक कायरता के सामने आप सर झुकाकर खड़े रहे, या गांधी की सक्रिय अहिंसक वीरता के रास्ते पर आगे बढ़ें इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है. चुनना अपने को है कि अपने को किस तरफ चलना है.
बिंदास लिखा दोस्त बहुत अच्छे!!
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