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लावारिस नहीं है कोई लाश

शव, शवयात्रा, कफन और दाह संस्कार ऐसे शब्द हैं जिनका प्रयोग कोई आपके सामने करे तो सारा माहौल भारी हो जाएगा. मगर आज हम चंडीगढ़ की जिस महिला समाजसेवी का परिचय आपसे करवाने जा रहे हैं ये शब्द और उनसे जुड़ी हुई क्रियाएं उनकी रोजमर्रा की जिंदगी हैं. अमरजीत कौर ढिल्लों चंडीगढ़ में रहती हैं और मृत देह का कफन-दफन उनके जीवन का अनिवार्य हिस्सा है. आप कभी भी उनके घर में जाईये, वहां आपको कुछ कफन के टुकड़े हमेशा धरे मिल जाएंगे.
लावारिश लाशों की इस तारणहार को आप बड़ी आसानी से पीजीआई, चंडीगढ़ में ढूंढ़ सकते हैं. उनका मानना है कि ज्यादातर जरूरतमंद और गरीब लोग पीजीआई में ही आते हैं इसी वजह से वे यहां मौजूद रहती हैं, ताकि जिसे भी उनकी जरूरत हों वे समय पर उसके लिए वहां मौजूद रह सकें.
वे पीजीआई में आये गरीबों की हर तरह से मदद करती हैं. जिनके पास इलाज के लिए पैसों की कमी है उसके लिए पैसों की व्यवस्था करवाना. कई लोग ऐसे भी आते हैं जो इलाज कराने में ही इतना चुक जाते हैं कि वापस लौटने का किराया तक नहीं बचता. वे घर तक पहुंच सकें, इसकी चिंता भी वे करती हैं. शायद अपने इन्हीं परोपकारी कार्यों की वजह से वे पीजीआई में डाक्टरों से ज्यादा आशाभरी नजरों से देखी जाती हैं. वे यहां आये हारे लोगों के लिए हरिनाम हैं. सम्मान तो निश्चित रूप से उनका यहां के डाक्टरों से अधिक है ही.
लेकिन यह सब भी उनको असाधारण महिला नबीं बनाता. जो बात उन्हें असाधारण बनाती है वह है- उन लावारिश लाशों को यथायोग्य अंतिम संस्कार करवाना जिससे उन देहों को सद्गति मिल सके. जिस समाज में शवयात्रा में भी महिलाओं का जाना वर्जित हो वह अमरजीत कौर का यह साहस कि वे शवों का दाह संस्कार खुद अपने हाथों से करें, निश्चित रूप से उन्हें असाधारण की श्रेणी में स्थान दिलाता है. अब तक 200 से भी अधिक लावारिश लाशों को उनके हाथों से सद्गति मिल चुकी है. अमरजीत इस बात का खास ख्याल रखती हैं कि शब जिस जाति धर्म से ताल्लुक रखता है संस्कार उसी की रिति-रिवाज से किया जाए. अगर आप उनसे पूछे कि महिला होकर आप दाह-संस्कार जैसा कर्म करती हैं? वे बड़ी बेबाकी से जवाब देती हैं- "सिक्खों के दसवें गुरू, गुरू गोविन्द सिंह ने चमकौर साहिब से वापस आते हुए बीबी चरणजीत कौर को आदेश दिया था कि वे शहीदों का अंतिम संस्कार करें. उन महिलाओं को स्वयं ऐसा आदेश गुरू गोविन्द सिंह ने दिया था फिर इसका धर्म के नाम पर कोई विरोध कैसे कर सकता है?"
अमरजीत कौर की एमए तक की पढ़ाई पटियाला में हुई है. उन्होंने पढ़ाई पूरी करने के बाद 1980 में पंजाब एण्ड सिन्ध बैंक में बतौर क्लर्क नौकरी शुरू कर दी. उनके सामाजिक जीवन की शुरूआत भी यहीं से हुई. इसी बैंक के एक गनमैन को अपने बेटे भूपेन्द्र के किडनी ट्रांसप्लांट के लिए लाखों रूपये की जरूरत थी. वह तो हिम्मत हार ही चुका था. लेकिन अमरजीत ने काफी भागदौड़ करके यहां-वहां झोली फैलाकर पैसे इकट्ठा किया. बच्चे का इलाज हुआ और वह पूरी तरह से ठीक हो गया. इस काम से अमरजीत को बड़ा आत्मसंतोष मिला. इसी प्रकार जब वह पीजीआई में अपने परिचित के साथ एक गरीब रोगी को देखने गयीं, तो वहां पहुंचकर पता चला कि उस गरीब की मौत हो गयी है. अभी तक लाश को ठिकाने नहीं लगाया था. पुलिस आयी और उस लाश को लावारिश लाश में दर्ज करके लाश को अपने चार्ज में ले लिया.
अमरजीत को यह अच्छा नहीं लगा. उनके मन में यह बात कचोट रही थी कि एक लाश का अंतिम संस्कार लावारिश लाश के तौर पर किया जाए. उन्होंने फौरन पुलिसवालों से कहा कि यह लाश लावारिश नहीं है. पुलिस ने पूछा कि आपका इस आदमी से क्या रिश्ता था तो उन्होंने कहा कि वही जो एक इंसान का दूसरे इंसान से होना चाहिए. पुलिस ने लाश उन्हें सुपुर्द कर दी. उन्होंने उस लाश का विधि-विधान से अंतिम संस्कार किया. इसके बाद तो सिलसिला ही चल पड़ा. साल 2000 में उन्होंने बैंक की नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली. अब उनका सारा जीवन सामाजिक कार्य के लिए समर्पित है.
सामाजिक कार्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का फैसला किया है. अपने इस काम के लिए वे किसी भी प्रकार की सरकारी मदद या संस्था से पैसे की मदद नहीं लेतीं. वे समाज के कुछ जागरूक लोगों और अपनी जमां-पूंजी से यह काम कर रही हैं. जैसे ही कोई लाश लावारिश की श्रेणी में डाली जाती है अमरजीत श्मशान के रजिस्टर में लावारिश लाश को एक नाम देकर उससे पवित्रतम मानवीय रिश्ता कायम कर लेती हैं.रिश्ते के कालम में अमरजीत अपना नाम भरती हैं. अब आप ही बताईये इसके बाद लाश लावारिश कहां रही

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