♦ राहुल कुमार
बीसीसीआई की भूमिका आईसीसी में वही है, जो संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की। यूएन अमेरिका को ईराक में बम गिराते देखकर जैसे मूकदर्शक बना रहता है, वैसे ही आईसीसी बीसीसीआई के हस्तक्षेपों पर मुहर लगाता रहता है। फिर चाहे मामला स्टीव बकनर को अंपायरिंग से हटा दिये जाने का हो, हरभजन सिंह द्वारा एंड्रयू सायमंड्स को गाली देने का हो, रिव्यू सिस्टम पर टांग अड़ाने का हो या आईसीएल में अपने तो अपने, दूसरे देशों के खिलाड़ियों को जाने से रुकवा देना हो।
इसी शक्ति की वजह से जब भारत ऑस्ट्रेलिया का दौरा बीच में रद्द करने की धमकी देता है तो वह गिड़गिड़ाने लगता है और यही शक्ति है, जो 26/11 जैसी भयावह घटना के बावजूद इंगलैंड को दोबारा अपना दौरा बहाल करने पर मजबूर करती है। बीसीसीआई पूरी दुनिया की सबसे ताकतवर क्रिकेट बोर्ड है, जिसकी बात या तो मन से या मन मारकर आखिरकार सभी को सुननी पड़ती है। आप इसे बीसीसीआई की मनमानी कह सकते हैं, तानाशाही भी कह सकते हैं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि भारतीय क्रिकेट ने मनमानी का यह हक कमाया है।
आज इंगलैंड के पूर्व टेस्ट क्रिकेटर टॉनी ग्रेग बीसीसीआई के खिलाफ बोलने की वजह से जितने मशहूर हुए हैं, उतना अपने खेल की वजह से भी नहीं हुए होंगे। लेकिन उन्हें वह वक्त भी याद करना चाहिए, जब विश्व क्रिकेट में इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका की ठसक थी और आईसीसी के नियम-कानून यही देश तय करते थे। आईसीसी के गठन (1909) के 84 वर्ष बाद 1993 में (तब तक इसका विस्तार बहुत सारे देशों में हो चुका था तो स्पष्ट रूप से ऊपर के इन तीनों मुल्कों की चलती खत्म होने लगी थी) इन देशों का वीटो पावर खत्म किया गया था। सवाल यह है कि उनके विश्व क्रिकेट पर 84 वर्ष के इस राज में एक संस्था के रूप में आईसीसी कितनी मजबूत हुई? कितनी संपन्न हुई? क्या टॉनी इसका भी जवाब देंगे?
लेकिन बीसीसीआई के पास इसका जवाब है। कभी क्रिकेट की एक असरहीन टीम, जो बस हार टालने के लिए खेलती थी, किसी तुक्के से याचक से शासक नहीं बनी। जगमोहन डालमिया जब 1997 में आईसीसी के अध्यक्ष बने थे, तब महज 16 हजार पौंड की पूंजी वाली इस संस्था को 16 मिलियन पौंड तक पहुंचाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। बीसीसीआई ने सिर्फ खुद को ही खड़ा नहीं किया बल्कि अपनी मजबूती के साथ-साथ आईसीसी को भी उसके पैरों पर खड़ा किया है।
एक वक्त था, जब भारत में ही क्रिकेट मैच दिखाने के लिए बीसीसीआई प्रसार भारती को पैसे देता था। 1993 तक। तब भारत एक बार विश्वकप जीत चुका था। क्रिकेट भारतीयों के जेहन में रचने-बसने लगा था और तभी सचिन के साथ-साथ कुछ नये युवा खिलाड़ी टीम में आये, जिन्होंने अपने शानदार खेल की बदौलत देश और दुनिया में फतह के झंडे गाड़े। बीसीसीआई ने लोगों की नब्ज पढ़ी थी। क्रिकेट के चढ़ते बुखार को समझा था और उसने प्रसार भारती को पैसे देने के बजाय उल्टे प्रसारण अधिकार बेचने की घोषणा की। इस एक फैसले ने बीसीसीआई को करोड़ों-अरबों रुपये दिये। दुनिया भर के टीवी चैनल देश की बढ़ती अर्थ-शक्ति को देख-समझ रहे थे, जिसे भुनाने में भारतीय क्रिकेट बोर्ड कामयाब रहा।
कभी क्रिकेट पर इंगलैंड का राज इसलिए था कि वे इस खेल के जन्मदाता थे, वेस्टइंडीज का इसलिए रहा कि वे विवियन रिचर्ड्स और माइकल होल्डिंग जैसे खिलाड़ियों से लैस थे, ऑस्ट्रेलिया का राज भी क्रिकेट पर उनके शानदार खेल की वजह से ही रहा। भारतीय क्रिकेट का राज इसलिए है कि उसके पास अकूत दौलत है, क्रिकेट का बड़ा बाजार है, गजब की प्रशासन क्षमता है और वह दुनिया की बेहतरीन टीमों में से एक है। भारतीय क्रिकेट पिछले आकाओं की तरह किसी एक वजह से राजा नहीं है।
बीसीसीआई का प्रतिरोध करने वाले वे लोग हैं, जिनके बोलने से न तो क्रिकेट की दिशा तय होने वाली है, न ही दशा। और जो इसका भविष्य बनाने वाले हैं, वे आईपीएल की वजह से इतने करोड़ रुपये कमाएंगे या कमा चुके हैं कि उनकी बोलती यूं भी बंद ही रहेगी। आईपीएल से यह भी याद आया कि जब से यह लीग शुरू हुआ है, तब से अपने बोर्ड के साथ बगावत की कई मिसालें भी दिखी हैं। क्रिस गेल का मामला सबसे ताजा है। इससे पहले सायमंड्स ने भी क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ बयानबाजी की थी। ऐसे में क्रिकेट की दुनिया पर बीसीसीआई का जो एकछत्र राज है, वह लंबा चलेगा, इतना तो तय है।
बेशक बीसीसीआई अपनी शक्ति का कई बार दुरुपयोग करता है, लेकिन यह याद रखना होगा कि इसी शक्ति ने पश्चिम देशों के क्रिकेटीय साम्राज्य को एशियन उपमहाद्वीप की तरफ लाने का काम किया है।
(राहुल कुमार। युवा पत्रकार। इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन से बैचलर डिग्री। तहलका से जुड़े थे। फिलहाल मुंबई में हैं और एक वेबसाइट के लिए अनुवाद का काम करते हैं। चकल्लस नाम का ब्लॉग। onlyrahulkumar@gmail.com पर संपर्क करें।)
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--- संजय सेन सागर