अब तक आपने पढ़ा....... मुझे कोई ग्लानी नही है .अरुंधती राय पर जूता फेंकने का .....जूता मरने का नैतिक आधार क्या है ?
जूता महिमा से प्रभावित सारे व्यक्ति अवश्य पढ़ें ....
आगे ....गाँधी , सुभाष ,अम्बेदकर, लोहिया, भगत सिंह के साथ कभी एसी हरकत नही हुई। विदेशों में कुठेर और लिंकन के साथ भी ऐसी घटना नही घटी। यधपि सुकरात, ईशा, कबीर और गाँधी को यातनाएं मिलीं पर यातना देने वाले कसाई थे कर्णधार नही !जनता को जनार्दन चाहिए , जो उनके समस्याओं का समाधान हो , दुखों को हर सके । वह कटाई जूतों का इस्तेमाल नही करना चाहती । वह महज़ एक वोटर लिस्ट नही है। आज़ादी के बाद नेताओं की बेलगाम अय्याशी जारी है। आख़िर जनता कब तक अपने वोट और नोट का निरादर होते चुप-चाप देखती रहेगी। चुनाव एक भ्रम है , एक धोखा है। जनता को सिर्फ़ एहसास दिलाना है कि इस जम्हुरि़त का असली मालिक वही है। चुनाव के बाद क्या होता है , जग ज़ाहिर है । चुनाव के दौरान मालिक का ताज पहन कर इठलाने वाली जनता को चुनाव के पड़ उसी ताज का भिक्षापात्र बनाना पड़ता है । वह भिखारी कि तरह भटकती रहती है। वह बुनियादी सवालों पर रखे भारी पत्थर हटा नही पाती और निराश होती है । फ़िर सिलसिला शुरू होता है किसी अलोकतांत्रिक प्रक्रिया के चयन का! बोया पेड़ बबूल का तो आम कहा से खाए?
यह इस समय का सुलगता हुआ सवाल है कि जनता के विद्रोही चेतना को नेता समझाने का प्रयत्न करें। ये लोकव्यवहार हीं जनतंत्र के वर्तमान पीड़ा को प्रकट करतें हैं । जूता तो एक झांकी है , असली खेल तो बाकि है ।
राजा जैसा होगा , प्रजा उसके द्वारा स्थापित मूल्यों का ही अनुसरण करेगी। चुनाव प्रक्रिया में जब नैतिक मूल्यों का कोई स्थान नहीं तो जनता अपनी नैतिकता को क्यूँ बरक़रार रखे ? क्या काक है उस व्यक्ति को नैतिकता को सवाल बनाए का जो ख़ुद अनैतिक तरीके से चुनाव लड़ता है या चुअनो में अपने अधिकारों का प्रयोग करता है। जात-पात , धर्म और क्षेत्रवाद जब अनैतिक नहीं है तो जूता के प्रति इतनी बेरहमी क्यों ?
आईये हम दोनों हाथ से ताली बजाएं , तब वास्तव में इस लोकतंत्र कि जय होगी , विजय होगा । किसी जूता का भय नहीं होगा । वैसे भारतीय सदनों में सता के लिए आपस में जूतम-पैजर देखा। जूता अब संसद से सड़क पर आ गया है। पक्ष-विपक्ष सभी ने जूतों का इस्तेमाल किया। इन जूतों का नंबर शायद आठ या नौ रहा होगा ......
जूता महिमा से प्रभावित सारे व्यक्ति अवश्य पढ़ें ....
आगे ....गाँधी , सुभाष ,अम्बेदकर, लोहिया, भगत सिंह के साथ कभी एसी हरकत नही हुई। विदेशों में कुठेर और लिंकन के साथ भी ऐसी घटना नही घटी। यधपि सुकरात, ईशा, कबीर और गाँधी को यातनाएं मिलीं पर यातना देने वाले कसाई थे कर्णधार नही !जनता को जनार्दन चाहिए , जो उनके समस्याओं का समाधान हो , दुखों को हर सके । वह कटाई जूतों का इस्तेमाल नही करना चाहती । वह महज़ एक वोटर लिस्ट नही है। आज़ादी के बाद नेताओं की बेलगाम अय्याशी जारी है। आख़िर जनता कब तक अपने वोट और नोट का निरादर होते चुप-चाप देखती रहेगी। चुनाव एक भ्रम है , एक धोखा है। जनता को सिर्फ़ एहसास दिलाना है कि इस जम्हुरि़त का असली मालिक वही है। चुनाव के बाद क्या होता है , जग ज़ाहिर है । चुनाव के दौरान मालिक का ताज पहन कर इठलाने वाली जनता को चुनाव के पड़ उसी ताज का भिक्षापात्र बनाना पड़ता है । वह भिखारी कि तरह भटकती रहती है। वह बुनियादी सवालों पर रखे भारी पत्थर हटा नही पाती और निराश होती है । फ़िर सिलसिला शुरू होता है किसी अलोकतांत्रिक प्रक्रिया के चयन का! बोया पेड़ बबूल का तो आम कहा से खाए?
यह इस समय का सुलगता हुआ सवाल है कि जनता के विद्रोही चेतना को नेता समझाने का प्रयत्न करें। ये लोकव्यवहार हीं जनतंत्र के वर्तमान पीड़ा को प्रकट करतें हैं । जूता तो एक झांकी है , असली खेल तो बाकि है ।
राजा जैसा होगा , प्रजा उसके द्वारा स्थापित मूल्यों का ही अनुसरण करेगी। चुनाव प्रक्रिया में जब नैतिक मूल्यों का कोई स्थान नहीं तो जनता अपनी नैतिकता को क्यूँ बरक़रार रखे ? क्या काक है उस व्यक्ति को नैतिकता को सवाल बनाए का जो ख़ुद अनैतिक तरीके से चुनाव लड़ता है या चुअनो में अपने अधिकारों का प्रयोग करता है। जात-पात , धर्म और क्षेत्रवाद जब अनैतिक नहीं है तो जूता के प्रति इतनी बेरहमी क्यों ?
आईये हम दोनों हाथ से ताली बजाएं , तब वास्तव में इस लोकतंत्र कि जय होगी , विजय होगा । किसी जूता का भय नहीं होगा । वैसे भारतीय सदनों में सता के लिए आपस में जूतम-पैजर देखा। जूता अब संसद से सड़क पर आ गया है। पक्ष-विपक्ष सभी ने जूतों का इस्तेमाल किया। इन जूतों का नंबर शायद आठ या नौ रहा होगा ......
आजकल मैं अपने जूते और चप्पल छुपा कर रखता हूँ कही मैं ही ना फंस जाऊं !
ReplyDeleteआजकल मैं अपने जूते और चप्पल छुपा कर रखता हूँ कही मैं ही ना फंस जाऊं !
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