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नारी देह, नग्नता और हमारा समाज

संवादघर ( www.samwaadghar.blogspot.com) में नारी की दैहिक स्वतंत्रता व सामाजिक उपयोगिता पर जो बहस चल रही है वह रोचक तो है हीबहुत महत्वपूर्ण भी है । एक ऐसा एंगिल जिससे अभी तक किसी ने इस विषय पर बात नहीं की हैमैं सुधी पाठकों के सम्मुख रख रहा हूं !  बहस को और उलझाने के लिये नहीं बल्कि सुलझाने में मदद हो सके इसलिये ! 

नारी देह के डि-सैक्सुअलाइज़ेशन (de-sexualization) की दो स्थिति हो सकती हैं ।  पहली स्थिति है - जहरीला फल चखने से पहले वाले आदम और हव्वा की -जो यौन भावना से पूर्णतः अपरिचित थे और शिशुओं की सी पवित्रता से ईडन गार्डन में रहते थे।  ऐसा एक ही स्थिति में संभव है - जो भी शिशु इस दुनिया में आये  उसे ऐसे लोक में छोड़ दिया जाये जो ईडन गार्डन के ही समकक्ष हो । वहां यौनभावना का नामो-निशां भी न हो ।  "धीरे धीरे इस दुनिया से भी यौनभावना को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना है" - यह भी लक्ष्य हमें अपने सामने रखना होगा ।

 यदि यह संभव नहीं है या  हम इसके लिये तैयार नहीं हैं तो दूसरी स्थिति ये हो सकती है कि हम न्यूडिस्ट समाज की ओर बढ़ें और ठीक वैसे ही रहें जैसे पशु पक्षी रहते हैं ।   सुना हैकुछ देशों में - जहां न्यूडिस्ट समाज के निर्माण के प्रयोग चल रहे हैंवहां लोगों का अनुभव यही है कि जब सब पूर्ण निर्वस्त्र होकर घूमते रहते हैं तो एक दूसरे को देख कर उनमें यौन भावना पनपती ही नहीं ।  "सेक्स नग्नता में नहींअपितु कपड़ों में है" - यही अनुभव वहां आया है ।  इस अर्थ में वे पशु-पक्षियों की सेक्स प्रणाली के अत्यंत निकट पहुंच गये हैं ।   प्रकृति की कालगणना के अनुसारमादा पशु-पक्षी जब संतानोत्पत्ति के लिये शारीरिक रूप से तैयार होती हैं तो यौनक्रिया हेतु नर पशु का आह्वान करती हैं और गर्भाधान हो जाने के पश्चात वे यौनक्रिया की ओर झांकती भी नहीं । पूर्णतः डि-सैक्सुअलाइज़ेशन की स्थिति वहां पाई जाती है ।  पशु पक्षी जगत में मादा का कोई शोषण नहीं होताकोई बलात्कार का भी जिक्र सुनने में नहीं आता । मादा या पुरुष के लिये विवाह करने का या केवल एक से ही यौन संबंध रखने का भी कोई विधान नहीं है।  उनकी ज़िंदगी मज़े से चल रही है ।  ये बात दूसरी है कि पशु - पक्षी समाज आज से दस बीस हज़ार साल पहले जिस अवस्था में रहा होगा आज भी वहीं का वहीं है ।  कोई विकास नहींकोइ गतिशीलता नहीं -भविष्य को लेकर कोई चिंतन भी नहीं ।

 हमारे समाज के संदर्भ में देखें तो कुछ प्राचीन विचारकोंसमाजशास्त्रियों का मत है कि यौनभावना का केवल एक उपयोग है और वह है - 'संतानोत्पत्ति। उनका कहना है कि प्रकृति ने सेक्स-क्रिया  में आनन्द की अनुभूति केवल इसलिये जोड़ी है कि जिससे  काम के वशीभूत नर-नारी  एक दूसरे के संसर्ग में आते रहें और सृष्टि आगे चलती चली जाये ।  विशेषकर स्त्री को मां बनने के मार्ग में जिस कष्टकर अनुभव से गुज़रना पड़ता हैउसे देखते हुए प्रकृति को यह बहुत आवश्यक लगा कि यौनक्रिया अत्यंत आनंदपूर्ण हो जिसके लालच में स्त्री भी फंस जाये ।  एक कष्टकर प्रक्रिया से बच्चे को जन्म देने के बाद मां अपने बच्चे से कहीं विरक्ति अनुभव न करने लगे इसके लिये प्रकृति ने पुनः व्यवस्था की -बच्चे को अपना दूध पिलाना मां के लिये ऐसा सुख बना दिया कि मां अपने सब शारीरिक कष्ट भूल जाये । विचारकों का मानना है कि मां की विरक्ति के चलते बच्चा कहीं भूखा न रह जायेइसी लिये प्रकृति ने ये इंतज़ाम किया है । 

 सच तो ये है कि सृष्टि को आगे बढ़ाये रखने के लिये जो-जो भी क्रियायें आवश्यक हैं उन सभी में प्रकृति ने आनन्द का तत्व जोड़ दिया है।  भूख लगने पर शरीर को कष्ट की अनुभूति होने लगती है व भोजन करने पर हमारी जिह्वा को व पेट को सुख मिलता है।  अगर भूख कष्टकर न होती तो क्या कोई प्राणी काम-धाम किया करता ! क्या शेर कभी अपनी मांद से बाहर निकलताक्या कोई पुरुष घर-बार छोड़ कर नौकरी करने दूसरे शहर जाता ?

पर लगता है कि हमें न तो ईडन गार्डन की पवित्रता चाहिये और न ही पशु-पक्षियों के जैसा न्यूडिस्ट समाज का आदर्श ही हमें रुचिकर है ।  कुछ लोगों की इच्छा एक ऐसा समाज बनाने की है जिसमे यौन संबंध को एक कप चाय से अधिक महत्व न दिया जाये । जब भीजहां पर भीजिससे भी यौन संबंध बनाने की इच्छा होयह करने की हमें पूर्ण स्वतंत्रता होसमाज उसमे कोई रोक-टोकअड़ंगेबाजी न करे ।  यदि ऐसा है तो हमें यह जानना लाभदायक होगा कि ये सारी रोक-टोकअड़ंगे बाजी नारी के हितों को ध्यान में रख कर ही लगाई गई हैं ।  आइये देखें कैसे ?

 पहली बात तो हमें यह समझना चाहिये कि समाज को किसी व्यक्ति के यौन संबंध में आपत्ति नहीं हैनिर्बाध यौन संबंध में आपत्ति है और इसके पीछे वैध कारण हैं !  हमारे समाजशास्त्रियों ने दीर्घ कालीन अनुभव के बाद ये व्यवस्था दी कि यौन संबंध हर मानव की जैविक आवश्यकता है अतः हर स्त्री - पुरुष को अनुकूल आयु होने पर यौन संसर्ग का अवसर मिलना चाहिये ।    चूंकि सेक्स का स्वाभाविक परिणाम संतानोत्पत्ति हैइसलिये दूसरी महत्वपूर्ण व्यवस्था यह की गयी कि संतान के लालन पालन का उत्तरदायित्व अकेली मां का न होकर माता - पिता का संयुक्त रूप से हो । यह व्यवस्था केवल मानव समाज में ही है ।  बच्चे का लालन पालन करनाउसे पढ़ाना लिखानायोग्य बनाना क्योंकि बहुत बड़ी और दीर्घकालिक जिम्मेदारी है जिसमें माता और पिता को मिल जुल कर अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करना होता हैइसलिये विवाह संस्था का प्रादुर्भाव हुआ ताकि स्त्री पुरुष के संबंध को स्थायित्व मिल सकेसमाज उनके परस्पर संबंध को पहचाने और इस संबंध के परिणाम स्वरूप जन्म लेने वाली संतानों को स्वीकार्यता दे। स्त्री-पुरुष को लालच दिया गया कि बच्चे का लालन-पालन करके पितृऋण से मुक्ति मिलेगीबच्चे को योग्य बना दोगे तो गुरुऋण से मुक्ति मिलेगीऐसी अवधारणायें जन मानस में बैठा दी गयीं।  विवाह विच्छेद को बुरा माना गया क्योंकि ऐसा करने से बच्चों का भविष्य दांव पर लग जाता है । जो स्त्री-पुरुष इस दीर्घकालिक जिम्मेदारी को उठाने का संकल्प लेते हुएएक दूसरे के साथ जीवन भर साथ रहने का वचन देते हुए विवाह के बंधन में बंधते हैंउनको समाज बहुत मान-सम्मान देता हैउनके विवाह पर लोग नाचते कूदते हैंखुशियां मनाते हैंउनके प्रथम शारीरिक संबंध की रात्रि को भी बहुत उल्लासपूर्ण अवसर माना जाता है ।  उनको शुभकामनायें दी जाती हैंभेंट दी जाती हैं ।  उनके गृहस्थ जीवन की सफलता की हर कोई कामना करता है ।

 दूसरी ओर,  जो बिना जिम्मेदारी ओढ़ेकेवल मज़े लेने के लियेअपने शारीरिक संबंध को आधिकारिक रूप से घोषित किये बिनाक्षणिक काम संतुष्टि चाहते हैं उनको समाज बुरा कहता हैउनको सज़ा देना चाहता है क्योंकि ऐसे लोग सामाजिक व्यवस्था को छिन्न विच्छिन्न करने का अपराध कर रहे हैं ।

 अब प्रश्न यह है कि ये व्यवस्था व्यक्ति व समाज की उन्नति मेंविकास में सहयोगी है अथवा व्यक्ति का शोषण करती है ?  दूसरा प्रश्न ये है कि कोई पुरुष बच्चों के लालन-पालन का उत्तरदायित्व उठाने के लिये किन परिस्थितियों में सहर्ष तत्पर होगा ?  कोई स्त्री-पुरुष जीवन भर साथ साथ कैसे रह पाते हैं ? जो स्थायित्व और बच्चों के प्रति जिम्मेदारी कीवात्सल्य की भावना पशु-पक्षी जगत में कभी देखने को नहीं मिलतीवह मानव समाज में क्यों कर दृष्टव्य होती है

 जब कोई स्त्री पुरुष एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करते हुएएक दूसरे के साथ सहयोग करते हुएसाथ साथ रहने लगते हैं तो उनके बीच एक ऐसा प्रेम संबंध पनपने लगता है जो उस प्यार मोहब्बत से बिल्कुल अलग है - जिसका ढिंढोरा फिल्मों मेंकिस्से-कहानियों मेंउपन्यासों में पीटा जाता है। एक दूसरे के साथ मिल कर घर का तिनका-तिनका जोड़ते हुएएक दूसरे के सुख-दुःख में काम आते हुएबीमारी और कष्ट में एक दूसरे की सेवा-सुश्रुषा करते हुएस्त्री-पुरुष एक दूसरे के जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं । वे एक दूसरे को "आई लव यू"कहते भले ही न हों पर उनका प्यार अंधे को भी दिखाई दे सकता है ।  यह प्यार किसी स्त्री की कोमल कमनीय त्वचासुगठित देहयष्टिझील सी आंखों को देख कर होने वाले प्यार से (जो जितनी तेज़ी से आता हैउतनी ही तेज़ी से गायब भी हो सकता हैबिल्कुल जुदा किस्म का होता है।   इसमे रंग रूप,शारीरिक गुण-दोष कहीं आड़े नहीं आते।  इंसान का व्यवहारउसकी बोलचाल,उसकी कर्तव्य-परायणतासेवाभावसमर्पणनिश्छलतादया-ममता ही प्यार की भावना को जन्म देते हैं। ये प्रेम भावना पहले स्त्री-पुरुष के गृहस्थ जीवन को स्थायित्व देती हैफिर यही प्रेम माता-पिता को अपने बच्चों से भी हो जाता है। यह प्यार बदले में कुछ नहीं मांगता बल्कि अपना सर्वस्व दूसरे को सौंपने की भावना मन में जगाता है।        

 ये सामाजिक व्यवस्था तब तक सफलतापूर्वक कार्य करती रहती है जब तक स्त्री-पुरुष में से कोई एक दूसरे को धोखा न दे ।  पुरुष को ये विश्वास हो कि जिस स्त्री पर उसने अपने मन की समस्त कोमल भावनायें केन्द्रित की हैंजिसे सुख देने के लिये वह दिन रात परिश्रम करता हैवह उसके अलावा अन्य किसी भी व्यक्ति की ओर मुंह उठा कर देखती तक नहीं है।  स्त्री को भी ये विश्वास हो कि जिस पुरुष के लिये उसने अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया हैवह कल उसे तिरस्कृत करके किसी और का नहीं हो जायेगा ।  बच्चों का अपने माता - पिता के प्रति स्नेह व आदर भी माता-पिता के मन में अपनी वृद्धावस्था के प्रति सुरक्षा की भावना जगाता है ।

 "पुरुष भी स्त्री के साथ बच्चे के लालन-पालन में बराबर का सहयोग दे" -इस परिकल्पनाव इस हेतु बनाई गई व्यवस्था की सफलताइस बात पर निर्भर मानी गयी कि पुरुष को यह विश्वास हो कि जिस शिशु के लालन-पालन का दायित्व वह वहन कर रहा हैवह उसका ही हैकिसी अन्य पुरुष का नहीं है। इसके लिये यह व्यवस्था जरूरी लगी कि स्त्री केवल एक ही पुरुष से संबंध रखे ।  कोई स्त्री एक ही पुरुष की हो कर रहने का वचन देती है तो पुरुष न केवल उसके बच्चों का पूर्ण दायित्व वहन करने को सहर्ष तत्पर होता हैबल्कि उस स्त्री को व उसके बच्चों को भी अपनी संपत्ति में पूर्ण अधिकार देता है।  इस व्यवस्था के चलतेयदि कोई पुरुष अपने दायित्व से भागता है तो ये समाज उस स्त्री को उसका हक दिलवाता है ।

 स्त्री ने जब एक ही पुरुष की होकर रहना स्वीकार किया तो बदले में पुरुष से भी यह अपेक्षा की कि पुरुष भी उस के अधिकारों में किसी प्रकार की कोई कटौती न करे ।  दूसरे शब्दों में स्त्री ने यह चाहा कि पुरुष भी केवल उसका ही होकर रहे ।  पुरुष की संपत्ति में हक मांगने वाली न तो कोई दूसरी स्त्री हो न ही किसी अन्य महिला से उसके बच्चे हों ।

 शायद आप यह स्वीकार करेंगे कि यह सामाजिक व्यवस्था न हो तो बच्चों के लालन पालन की जिम्मेदारी ठीक उसी तरह से अकेली स्त्री पर ही आ जायेगी जिस तरह से पशुओं में केवल मादा पर यह जिम्मेदारी होती है । चिड़िया अंडे देने से पहले एक घोंसले का निर्माण करती हैअंडों को सेती हैबच्चों के लिये भोजन का प्रबंध भी करती है और तब तक उनकी देख भाल करती है जब तक वह इस योग्य नहीं हो जाते कि स्वयं उड़ सकें और अपना पेट भर सकें । बच्चों को योग्य व आत्म निर्भर बना देने के बाद बच्चों व उनकी मां का नाता टूट जाता है । पिता का तो बच्चों से वहां कोई नाता होता ही नहीं ।

इसके विपरीतमानवेतर पशुओं से ऊपर उठ कर जब हम मानव जगत में देखते हैं तो नज़र आता है कि न केवल यहां  माता और पिता - दोनो का संबंध अपनी संतान से हैबल्कि संतान भी अपनी जन्मदात्री मां को व पिता को पहचानती है ।  भारत जैसे देशों में तो बच्चा और भी अनेकानेक संबंधियों को पहचानना सीखता है - भाईबहिनताऊताईचाचा - चाचीबुआ - फूफा,मामा - मामीमौसा - मौसीदादा - दादीनाना - नानी से अपने संबंध को बच्चा समझता है और उनकी सेवा करनाउनका आदर करना अपना धर्म मानता है ।  ये सब भी बच्चे से अपना स्नेह संबंध जोड़ते हैं और उसके शारीरिक,मानसिकबौद्धिक और आर्थिक विकास में अपने अपने ढंग से सहयोग करते हैं ।

 बात के सूत्र समेटते हुए कहा जा सकता है कि यदि कोई स्त्री या पुरुष सेक्स को"महज़ चाय के एक कपजैसी महत्ता देना चाहते हैंउन्मुक्त सेक्स व्यवहार के मार्ग में समाज द्वारा खड़ी की जाने वाली बाधाओं को वह समाज की अनधिकार चेष्टा मानते हैंयदि उन्हें लगता है कि उनको सड़क परकैमरे के सामनेमंच पर नग्न या अर्धनग्न आने का अधिकार हैऔर उनका ये व्यवहार समाज की चिंता का विषय नहीं हो सकता तो इसका सीधा सा अर्थ है कि वह इस सामाजिक व्यवस्था से सहमत नहीं हैंइसे शोषण की जनक मानते हैं और इस व्यवस्था से मिलने वाले लाभों में भी उनको कोई दिलचस्पी नहीं है ।  यदि स्त्री यह विकल्प चाहती है कि वह गर्भाधानबच्चे के जन्मफिर उसके लालन-पालन की समस्त जिम्मेदारी अकेले ही उठाए और बच्चे का बीजारोपण करने वाले नर पशु से न तो उसे सहयोग की दरकार हैन ही बच्चे के लिये किसी अधिकार की कोई अपेक्षा है तो स्त्री ऐसा करने के लिये स्वतंत्र है । बसउसे समाज द्वारा दी जाने वाली समस्त सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देनी होगी । वह समाज की व्यवस्था को भंग करने के बाद समाज से किसी भी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा भी क्यों रखे ? अस्पतालडॉक्टरनर्सदवायेंकपड़ेकॉपी-किताबस्कूल,अध्यापकनौकरीव्यापार आदि सभी सुविधायें समाज  ही तो देता है ।  वह जंगल में रहेअपना और अपने बच्चे का नीड़ खुद बनायेउसक पेट भरने का प्रबंध स्वयं करे।  क्या आज की नारी इस विकल्प के लिये तैयार है?

 यदि समाज द्वारा दी जा रही सेवाओं व सुविधाओं का उपयोग करना है तो उस व्यवस्था को सम्मान भी देना होगा जिस व्यवस्था के चलते ये सारी सुविधायें व सेवायें संभव हो पा रही हैं । सच तो ये है कि शोषण से मुक्ति के नाम पर यदि हम अराजकता चाहते हैं तो समाज में क्यों रहेंसमाज सेसमाज की सुविधाओं से दूर जंगल में जाकर रहें न !  वहां न तो कोई शोषणकर्ता होगा न ही शोषित होगा ! वहां जाकर चार टांगों पर नंगे घूमते रहोकौन मना करने आ रहा है ?

 सुशान्त सिंहल

www.sushantsinghal.blogspot.com 

Comments

  1. satik wishleshan hai..........aaj kal sex ek bar fir charch main hai .....lekin aapka wimarsh mujhe sarthak laga

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  2. यही मेरा भी सोचना है, पर इस आलेख को ज्यादातर लोग पढेंगे नहीं. काफी लंबा हो गया है, ब्लॉग फॉर्मेट के लिहाज़ से, मेरा भी मन उबने लगा था इतनी देर एक ही ब्लॉग पर आँखें गडाए हुए. अगर इसी को तीन से चार पैरा की श्रृंखला (सीरियलाइज्ड) में बाँट देते तो ज़्यादा लोग इसे पढ़ते और अपने विचार जोड़ते.

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  3. आज हमारे देश में भी सेक्स को सरलता से लेने की आवश्यकता है,मैं केवल सुद्ध सेक्स सेक्स की बात कर रहा हूँ!! आज हमारे देश में सेक्स को एक बहुत बड़ी बिपदा के टूर पर देखा जाता है जबकि असलियत ये है की सेक्स को खाना समझा जाना चाहिए ,शारीर की एक मूल जरुरत मनाकर!!
    विदेशों में इस तरह का चलन है,तो आप पाएंगे की वह पर बौधिक विकास एवं शारीरिक विकास तेजी से होता है !!

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  4. सुशांत जी आपका लेख बास्तविक है और जो आपने बताया है वो आज की जरुरत !!
    आपने अपनी बात को विस्तार से समझया अच्छा लगा!!
    प्रभावशील लेखन!!

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  5. सुशांत भाई विचार नेक है लेकिन सच्चाई यह है की समाज अभी इतना आधुनिक नहीं हुआ है !

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  6. aapne baat to thik hi likhi hai.

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  7. आप सब की हौसला अफ़ज़ाई के लिये बहुत बहुत आभार !

    सुशान्त सिंहल

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  8. Dear Sanjay Sen Sagar,

    I would like to reply to what you have said but I will need some time to think over it.

    Sushant Singhal

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  9. AAP KA LAKH BAHUT ACHA LAGA SUKRIA

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  10. AAP SA AAGA BHE ASA HE RAAY KE UMED KARTA H

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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

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