प्रिय मित्रों,
शिक्षा के क्षेत्र में हमारे देश में अनेकानेक विरोधाभास दृष्टिगोचर होते हैं। कुछ संस्थान ऐसे हैं जो शिक्षा के उच्च स्तर के लिये प्रसिद्ध हैं, वहां प्रवेश पाना किसी भी विद्यार्थी का स्वप्न हो सकता है। वहीं दूसरी ओर, देश के हज़ारों नगरों, कस्बों में ऐसे विद्यालय, महाविद्यालय हैं जहां पढ़ाई आम तौर पर होती ही नहीं। छात्र - छात्रायें अगर इन विद्यालयों में जाते भी हैं तो सोशल नेटवर्किंग के लिये, नेतागिरी सीखने के लिये या येन-केन-प्रकारेण एक अदद डिग्री हासिल करने के लिये। अध्यापक - अध्यापिकायें इन कॉलेजों में आते हैं तो उपस्थिति पंजिका में हस्ताक्षर करने और वेतन लेने के लिये, धूप सेंकने के लिये, ट्यूशन के लिये आसामी ढूंढने के लिये या फिर साथियों के साथ गप-शप करने के लिये।
प्राइमरी या माध्यमिक स्तर की शिक्षा का जहां तक संबंध है, दिखाई ये दे रहा है कि प्राइवेट स्कूलों में (जिनको अंग्रेजी माध्यम या पब्लिक स्कूल भी कहा जाता है) शिक्षा का माहौल सरकारी स्कूलों या हिन्दी मीडियम के स्कूलों की तुलना में बहुत बेहतर है। अंग्रेज़ी माध्यम के सारे स्कूलों का स्तर अच्छा हो, ऐसा नहीं है। (हर शहर, कस्बे में असंख्य स्कूल ऐसे भी हैं जो ढेर सारा धन कमाने के इच्छुक शिक्षित अथवा अर्द्धशिक्षित लोगों ने अपने घर के कुछ हिस्से में ही खोल लिये हैं और एक बोर्ड टांग कर, अपने घर की नौकरानी को आया और पत्नी को प्रधानाचार्या बना कर और खुद प्रबंधक बन कर विद्यालय आरंभ कर दिया गया है। मुहल्ले पड़ोस की लड़कियों को छः सौ - आठ सौ रुपये प्रतिमास देकर अध्यापिका बना लिया गया है। परन्तु इतना तो मानना ही पड़ेगा कि इन स्कूलों के अध्यापकों, अध्यापिकाओं को पढ़ाना आता हो या न आता हो; अपेक्षित सुविधायें हों अथवा न हों; स्कूल का प्रबंधन वर्ग पढ़ाई के माहौल को लेकर, अनुशासन को लेकर, और अपने विद्यालय की छवि निर्माण को लेकर सजग अवश्य है।)
डिग्री कॉलेजों का जहां तक संबंध है, अंधेर नगरी, चौपट राजा वाली कहावत यहां चरितार्थ होती दिखाई देती है। छात्रों से पूछो तो वह अध्यापकों को दोष देते हैं; अध्यापकों से पूछो तो छात्रों को, प्रिंसिपल को, विश्वविद्यालय को या शिक्षा व्यवस्था को दोष देते हैं। प्रिंसिपल से पूछो तो वह स्थानीय नेताओं को और उनके संरक्षण में पलने वाले गुंडेछाप छात्रों को कॉलेज का वातावरण प्रदूषित करने के लिये दोषी ठहराते हैं, हर दूसरे-तीसरे दिन छुट्टी करने के लिये सरकार को, विश्वविद्यालय को, अध्यापकों को दोषी ठहराते हैं। प्रबंधन वर्ग से पूछो तो वह शिक्षण तंत्र में, सरकार में, विश्वविद्यालय की नीतियों में दोष ढूंढते हैं।
इस सब के बारे में विचार करें तो निम्न प्रश्न उभरते हैं :
१- क्या हमारे अध्यापक अध्यापन को लेकर गंभीर हैं? या, वह सिर्फ ट्यूशन को लेकर ही गंभीर हैं? क्या ऐसे भी अध्यापक विद्यालयों में, महाविद्यालयों में नौकरी पा गये हैं जो अध्यापन कार्य के लिये पूर्णतः अनुपयुक्त हैं ? यदि हां, तो इस समस्या का क्या हल है?
२- क्या छात्र-छात्रायें अध्ययन को लेकर गंभीर हैं? यदि नहीं तो फिर वह कॉलेजों में प्रवेश लेते ही क्यों हैं? जो छात्र-छात्रायें पढ़ाई को लेकर गंभीर हैं पर उनको अपेक्षित माहौल नहीं मिल पा रहा, क्या उनके पास इस समस्या का कोई समाधान हो सकता है?
३- क्या इस मामले में हमारे शिक्षा तंत्र में, शिक्षण पाठ्यक्रम में भी कुछ दोष हैं?
इन विचारणीय बिन्दुओं पर आप क्या सोचते हैं? आपके विचार हमारे लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं। अतः कृपया हमें अवश्य ही लिखें।
संपादक
द सहारनपुर डॉट कॉम
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर