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बुढापे मा..

हमके सूझे न डगारिया॥
बुढ़ाई बेरिया॥
दुई लैका दुइनव अल्गारेन॥
नइखे poochhe पानी का॥
गुजरा ज़माना याद करी हम॥
रोई अपने जवानी का॥
चार बात उपरा से देवे॥
समझे लागे आपन चेरिया॥
हमके सूझे न डगारिया॥
बुढ़ाई बेरिया॥
नाती पोता मुह लडावे॥
सुने न कौनव काम॥
देहिया कय पौरुष जाय चुका॥
अबतो लागल पुण्य विराम॥
उन्ही के मुहवा पे बोले॥
नन्कौना कय हमारे धेरिया॥
हमके सूझे न डगारिया॥
बुढ़ाई बेरिया॥

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ग़ज़ल

गज़ब का हुस्नो शबाब देखा ज़मीन पर माहताब देखा खिजां रसीदा चमन में अक्सर खिला-खिला सा गुलाब देखा किसी के रुख पर परीशान गेसू किसी के रुख पर नकाब देखा वो आए मिलने यकीन कर लूँ की मेरी आँखों ने खवाब देखा न देखू रोजे हिसाब या रब ज़मीन पर जितना अजाब देखा मिलेगा इन्साफ कैसे " अलीम" सदकतों पर नकाब देखा