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लो क सं घ र्ष !: ठाकुर का क्रिया-करम


"यह तो पाँच ही हैं मालिक ।"
"पाँच, नही, दस हैं। घर जाकर गिनना ।"
"नही सरकार, पाँच हैं ।"
"एक रुपया नजराने का हुआ कि नही ?"
"हाँ , सरकार !"
"एक तहरीर का ?"
"हाँ, सरकार !"
"एक कागद का ?"
"हाँ,सरकार !"
"एक दस्तूरी का !"
"हाँ, सरकार!"
"एक सूद का!"
"हाँ, सरकार!"
"पाँच नगद, दस हुए कि नही?"
"हाँ,सरकार ! अब यह पांचो भी मेरी ओर से रख लीजिये ।"
"कैसा पागल है ?"
"नही, सरकार , एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का । एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने का, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को , बाकी बचा एक, वह आपके क्रिया-करम के लिए ।"

प्रेमचंद के गोदान से

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ग़ज़ल

गज़ब का हुस्नो शबाब देखा ज़मीन पर माहताब देखा खिजां रसीदा चमन में अक्सर खिला-खिला सा गुलाब देखा किसी के रुख पर परीशान गेसू किसी के रुख पर नकाब देखा वो आए मिलने यकीन कर लूँ की मेरी आँखों ने खवाब देखा न देखू रोजे हिसाब या रब ज़मीन पर जितना अजाब देखा मिलेगा इन्साफ कैसे " अलीम" सदकतों पर नकाब देखा