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पीर ज़माने की -- ग़ज़ल

उसमें घुसने का ही हक़ नहीं मुझको,
दरो-दीवार जो मैंने ही बनाई है।

मैं ही सिज़दे के काबिल नहीं उसमें ,
ईंट दर ईंट मस्जिद ,मैंने चिनाई है ।

कितावों के पन्नों में उसी का ज़िक्र नहीं,
पन्नों -पन्नों ढली वो बेनाम स्याही है।

लिख दिए हैं ग्रंथों पे लोगों के नाम ,
अक्षर-अक्षर तो कलम की लिखाई है।

गगन चुम्बी अटारियों पे है सबकी नज़र ,
नींव के पत्थर की सदा किसने सुनाई है।

वो दिल कोई दिल ही नहीं जिसमें ,
भावों की नहीं बज़ती शहनाई है।

इस सूरतो-रंगत का क्या फायदा 'श्याम,
यदि मन में नही पीर ज़माने की समाई है॥

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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

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