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लो क सं घ र्ष !: तब भटकती प्रत्याशा...


ले प्रेम लेखनी कर में
मन मानस के पृष्ठों में।
अनुबंध लिखा था तुमने
उच्छवासो की भाषा में॥

अनुबंध ह्रदय से छवि का
है लहर तटों की भाषा।
जब दृश्य देख लेती है
तब भटकती प्रत्याशा॥

उन्मीलित नयनो में अब
छवि घूम रही है ऐसे।
भू मंडल के संग घूमे,
रवि,दिवस,प्रात तम जैसे॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''

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