गज़ब का हुस्नो शबाब देखा ज़मीन पर माहताब देखा खिजां रसीदा चमन में अक्सर खिला-खिला सा गुलाब देखा किसी के रुख पर परीशान गेसू किसी के रुख पर नकाब देखा वो आए मिलने यकीन कर लूँ की मेरी आँखों ने खवाब देखा न देखू रोजे हिसाब या रब ज़मीन पर जितना अजाब देखा मिलेगा इन्साफ कैसे " अलीम" सदकतों पर नकाब देखा
भाई जी देश या विश्व की राजनीति तो ऐसे ही चलती आई है और ऐसे ही चलेगी. हम बहुत बडी-बडी बाते करते है, लिखना एक कला है और इसमे बहुत लोग पारंगत होते हैँ, किंतु जो लिखते हैँ उसे कितने लोग अपने जीवन मैँ उतारते है, यह महत्वपूर्ण है. भाषण देना, ब्लोगिंग करना एक अलग बात है और ईमानदारी, सत्य और देश व समाज को प्राथमिकता देकर अपने व परिवार से जुडे निर्णय करना एक अलग बात है. आलोचना करना जितना सरल है, उतना ही कठिन है अपने आचरण मे उसको ढालना. जिस प्रकार अपने स्वार्थ के लिये ईश्वर का नाम सभी लेते है किंतु वास्तव मे ईश्वर को मानने वाला, जो उस पर पूर्ण विश्वाश करता हो और उसके अनुरूप आचरण भी हो मुझे तो आज तक कोई मिला नहीँ, अतः मेरा विचार है कि हमे आलोचना से बचकर सकारात्मक कुछ करना चाहिये. हम दुनिया को नही बदल सकते, किंतु अपने आप को बदल सकते है किंतु यह ब्लोगिंग की तरह सरल नही है. अतः आओ अपने से शुरूआत करेँ.
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