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कुण्डली

आचार्य संजीव 'सलिल'

पुरखे थे हिन्दू मगर हैं मुस्लिम संतान।
मजबूरी में धर्म को बदल बचाई जान।
अब अवसर फिर से गहें, निज पुरखों की राह।
मजबूरी अब है नहीं, मिलकर पायें वाह।
कहे 'सलिल' कविराय बिंदु से हो फिर सिन्धु।
फिर हिन्दू हों आप, रहे पुरखे भी हिन्दू।

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ग़ज़ल

गज़ब का हुस्नो शबाब देखा ज़मीन पर माहताब देखा खिजां रसीदा चमन में अक्सर खिला-खिला सा गुलाब देखा किसी के रुख पर परीशान गेसू किसी के रुख पर नकाब देखा वो आए मिलने यकीन कर लूँ की मेरी आँखों ने खवाब देखा न देखू रोजे हिसाब या रब ज़मीन पर जितना अजाब देखा मिलेगा इन्साफ कैसे " अलीम" सदकतों पर नकाब देखा