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आचार्य संजीव 'सलिल' जी की तीन लघुकथाएँ

जनतंत्र 'जनतंत्र की परिभाषा बताओ' राजनीतिशास्त्र के शिक्षक ने पूछा.
' जहाँ जन का भाग्य विधाता तंत्र हो' - एक छात्र ने कहा.
' जहाँ ग़रीब जनगण के प्रतिनिधि अमीर हों.' - दूसरे ने कहा.
' जहाँ संकटग्रस्त जनगण की दशा जानने के लिए प्रतिनिधि आसमान की सैर करें.' तीसरे की राय थी.
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रावण-दहन
- 'दादाजी! दशहरे पर रावण का पुतला क्यों जलाया जता है?'
- ' रावण ने सीता मैया का धोखे से अपहरण कर विश्वासघात किया था. इसलिए.'
- 'आप उस दिन कह रहे थे हमारे विधायक ने जनता से विश्वासघात किया है तब उसको क्यों नहीं...'
- 'चुप राह. बकवास मत कर.'
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एकलव्य
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?' - हाँ बेटा.' - दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
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- आचार्य संजीव 'सलिल' संपादक दिव्य नर्मदा

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ग़ज़ल

गज़ब का हुस्नो शबाब देखा ज़मीन पर माहताब देखा खिजां रसीदा चमन में अक्सर खिला-खिला सा गुलाब देखा किसी के रुख पर परीशान गेसू किसी के रुख पर नकाब देखा वो आए मिलने यकीन कर लूँ की मेरी आँखों ने खवाब देखा न देखू रोजे हिसाब या रब ज़मीन पर जितना अजाब देखा मिलेगा इन्साफ कैसे " अलीम" सदकतों पर नकाब देखा