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आचार्य संजीव 'सलिल' जी की रचना

आचार्य संजीव 'सलिल'







स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.
किंशुक कुसुम विहंस रहे, या दहके अंगार?

पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार
होश खो राह है पवन, लख वनश्री-श्रृंगार.

महका महुआ देखकर, सहसा बहका प्यार.
मधुशाला जाए बिना, सिर पर नशा सवार.

नहीं निशाना चूकती. पञ्चशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार.

नैन मिले, झुक, उठ, लड़े, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार.

मैं-तुम, यह-वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में मिलते गले. सब को हुआ खुमार.

ढोलक, टिमकी, मंजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी में मस्त हो, नाचो-गाओ यार.

घर-आँगन,तन धो, लिया तुमने रूप निखार.
अंतर्मन का मेल भी, गुपचुप कभी बुहार.

बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
स्नेह-साधना कर 'सलिल', श्वासें रखो संवार.

आगे यहाँ

Comments

  1. संजीव जी अच्छी रचना

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  2. बहुत समय बाद एक ऐसी कविता पढ़ने को मिली जिसमें भावपक्ष व कलापक्ष - दोनों ही भावविभोर कर देने वाले हैं। आभार !

    सुशान्त सिंहल

    ReplyDelete

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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

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