शाम होते ही गाँव के मंदिर की घंटी बंजने लगी तभी उसके समीप मस्जिद मे मगरिब की अजान होने लगी! अजान की आवाज़ मंदिर की घंटी से दबने लगी ! अगले ही दिन सुबह मुल्लाजी ने अपने ख़ास लोगों से चर्चा करके एक लाउड स्पीकर लगवा दिया ,अगले दिन मंदिर की घंटियों की आवाज़ से दबने लगी तो मंदिर मे भी लाउड स्पीकर लग गया!अब दोनों आवों मे गडमड होने लगी !!अब न मंदिर की आवाज़ आ रही थी न ही मस्जिद की !!!सिर्फ बातावरण मे एक सर व्याप्त था !!
यही शोर इश्वर की आवाज़ को हम तक पहुँचने से रोकता है |
ReplyDeleteअच्छा व्यंग्य
आपकी रचना को पढ़कर हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला की उन पंक्तियों की सार्थकता याद आ गई कि -
ReplyDeleteमुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला ।
साधुवाद !